दर्द भी हार कर बैठ जाता है जब साधक की साधना तन्मयता की चरम सीमा पर होती है। वह एक ही विचार करता है, दर्द जड़ है, लेकिन सहन करने वाला चेतन है। दर्द कर्म है, जो पौद्गलिक है लेकिन कर्म के फल का भोक्ता चेतन आत्मा है। वह सोचता है, जैसा बीज भूमि पर डाला जाता है, वैसा ही वृक्ष उगता है, उसके वैसे ही फल होते हैं। इसलिए कर्म के फल में क्यों दूसरे सहारे की अपेक्षा रखें। ऐसा चिंतन करने वाला महान साधक योगी होता है। इसी प्रकार आचार्यश्री के जीवन में हमने देखा, जब भी कोई दर्द होता है तो कभी यह नहीं कहते कि मुझे दर्द हो रहा है, सहन करते हैं। एक प्रसंग ऐसा ही है।
प्रसंग : बात मुक्तागिरि सिद्ध क्षेत्र जनवरी- 1998 के शीतकालीन प्रवास की है। आचार्यश्री के गले में अचानक दर्द होने लगा। मुँह में पानी बहुत आता था, उसे अंदर करते तो दर्द होता था। 2-3 दिन बहुत वेदना रही। दिनभर तो हम लोग महाराज जी के पास बैठकर तत्व चर्चा आदि करते सो उनका मन लगा रहता था। लेकिन रात्रि में मात्र 2-3 महाराज आचार्यश्री के पास रहते थे। पर आचार्यश्री को दर्द के कारण नींद नहीं आई थी, आँखें भरीभरी-सी दिख रही थी। प्रात:काल जाकर आचार्यश्री के चेहरे को देखा, तो सहज ही पूछ लिया- लगता है आज आपको रात्रि में नींद नहीं आई? आचार्यश्री के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई, पर वे मौन रहे।
हमने पुनः पूछा - "बिल्कुल नींद नहीं आई? समझ में नहीं आता कैसा दर्द है?" आचार्यश्री हँसते हुए बोले- 'कैसा दर्द है नहीं अपना दर्द है।' अपने ही तो कर्म हैं, तो उसका फल भी तो हमें भी भोगना पड़ेगा।' पुनः पूछा- 'जब रात्रि में दर्द होता था, तब क्या करते थे?" आचार्यश्री- 'कुछ नहीं सहन करता था। जब दर्द बहुत तेज होता था तो बैठ जाता था, कम हुआ तो लेट जाता था। नींद का इंतजार करता रहता था। "नींद कैसे होती है", हमारे पास सोने वालों को देखता था, देखो ये कैसे सो रहे हैं। इन लोगों की नींद लगी रहती थी, मैं बैठा-बैठा देखता था, फिर संकेतों में बोले- उस समय एक चीज हमारा बहुत जरूरी साथ दे रही थी।"
हम लोगों ने पूछा- "क्या साथ दे रही थी?" आचार्यश्री- 'घड़ी की टिक-टिक आवाज साथ दे रही थी।' हमने पूछा- 'कैसे साथ दे रही थी आचार्यश्रीजी ये घड़ी की टिक-टिक?' आचार्यश्री- 'मैं घड़ी को देखता रहता और मन में सोचता था, देखो ये घड़ी निरन्तर चल रही है, चलायमान है। इस कालद्रव्य को रोका नहीं जा सकता है। हमने भी सोचा कि हमारे असाता वेदनीय कर्म इस घड़ी के अनुसार चल रहे हैं। निकलने दो अपने ही कर्म हैं। यही सोचते-सोचते इसी दौरान साता वेदनीय कर्म का उदय आ गया और थोड़ी देर के लिए नींद आ गई।
हम लोगों ने पूछा- 'आप इतने दर्द में भी ऐसा चिंतन कर लेते हैं?' आचार्यश्री- 'अरे भैया! ऐसा ही चिंतन करना चाहिए। दुख के समय कोई साथ नहीं देता है, अपना चिंतन ही हमारे साथ रहता है। कोई, यदि साथ दे भी दे तो दर्द नहीं मिटा सकता है'।
अपना साता वेदनीय कर्म उदय हो तो बाह्य निमित्त साथ देते हैं और यदि नहीं हो तो कोई कुछ कर ले, कोई साथ नहीं देता है।' इस प्रकार दर्द में भी चिंतन के मर्म की गहराई में डुबकी लगाने वाले महान आचार्यश्री हम लोगों को इस प्रकार की प्रेरणा देते रहते हैं। जिससे हमें भी सहन करने की मानसिक शक्ति बनी रहती है। एक प्राचीन कवि की पंक्तियाँ यहाँ आचार्यश्री के दर्द सहन करने की शक्ति को जैसे सहन कर रही हों। कवि कहते हैं-
देह घरे को दंड है, सब कहू को होय |
ज्ञानी भुक्ते ज्ञान ते, मुरख भुक्ते रोय ||