साधना के मार्ग पर चलने वाला साधक मात्र शारीरिक साधना नहीं करता है, वह अपनी समस्त शक्तियों को केन्द्रित करके कठिन आत्म साधना करता है। इससे उसमें शारीरिक मानसिक और वाचनिक सिद्धियाँ अपने आप जागृत हो जाती हैं। पूज्य आचार्यश्री के तो वचनपटुता और वचनसिद्धि दोनों अनोखी है। कैसी है, इस प्रसंग से हमें ज्ञात होता है।
बात सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावरजी की है। सोमवार 5 जनवरी 1998 का दिन मेरे लिए यादगार के रूप में मिला था। इस दिन पूज्य आचार्यश्री ने मुझे ऐलक पद प्रदान किया था। उसी दिन शाम को कुछ अजैन बाबा लोग आचार्यश्री एवं संघ के दर्शनार्थ आए। आचार्यश्री से निवेदन किया कि हम आपसे कुछ पूछना चाहते हैं। आचार्यश्री ने मौन स्वीकृति दे दी। एक बाबा जी ने प्रश्न किया 'आप नर्मदा नदी को किस रूप में मानते हैं?'
आचार्यश्री ने सहजता से उत्तर दिया- 'नर्मदा जिस रूप में है, हम उस रूप में नर्मदा को मानते हैं।' पुनः बाबा जी ने कहा कि 'आखिर कोई रूप या स्वरूप तो होगा?' 'हाँ! हमारे जैनाचार्यों ने इस नर्मदा नदी के तटों को बहुत उत्तम स्थान माना है ध्यान के लिए। क्योंकि इस के तटों पर बैठकर ध्यान की सिद्धि तो होती ही है, आत्मसिद्धि भी सहज रूप से साधक कर लेता है।'
'ध्यान सिद्धि तो ठीक है, लेकिन आत्मसिद्धि से आपका तात्पर्य क्या है?' 'आत्मसिद्धि से तात्पर्य हमारे यहाँ निर्वाण से है। सांसारिक दुखों से सदा के लिए मुक्ति से है। इसी का प्रमाण हमारे इतिहास में मिलता है कि इस रेवा नदी के दोनों तट से साढ़े पाँच करोड़ मुनिराजों को आत्मसिद्धि हुई। या कहो निर्वाण की प्राप्ति हुई।' 'इसका मतलब हुआ कि नर्मदा नदी के लिए आप ध्यान करने के लिए निमित्त कारण मानते हैं।' "हाँ, इससे बढ़कर पवित्र स्थान ध्यान के लिए और कौनसा हो सकता है?" 'हम सभी मुनिगणों को हमारे गुरुओं ने, आचार्यों ने ऐसा उपदेश दिया है कि सदा ऐसे स्थानों पर रहो जहाँ पर ध्यान अच्छा लगे।'
अंत में बाबाजी लोगों ने कहा- 'आपके विचार इस पवित्र स्थान के बारे में बड़े उत्तम हैं। ऐसी भावना हम सभी संतों के मन भी आ जाए तो इस नर्मदा की पवित्रता, महत्व और बढ़ जाएँगे। बहुत अछि सोच है आपकी एसी सभी संतो की हो भगवन से प्रार्थना करते हैं।'
आत्मसिद्धि निर्वाण की, साडी पर्वत के तीर |
अनगिनते मुनि तपस्वी पाते भव का तीर ||