अध्यात्म की खोज करना है? पर कैसे करना है? इसका विचार जब तक ज्ञान पिपासुओं को नहीं होता है तब तक उन्हें अध्यात्म का बोध नहीं होता है। जिन्हें अध्यात्म का बोध होता उन्हें फिर आत्मा का बोध अवश्य होता है। परम पूज्य आचार्यश्री ने अध्यात्म को अपने जीवन के अभिन्न अंग की तरह माना है। उसे आत्मसात किया है। चर्चा के दौरान आचार्यश्री ने सुनाया |
बुंदेलखंड के सिद्धक्षेत्र श्री कुंडलपुरजी में जब हमारा प्रथम चातुर्मास (सन् 1976) हुआ। तब पं. श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री वहाँ पर थे। एक दिन आए और साथ में राजमल पवैया और कुछ सोनगढ़ विचारधारा के 4-5 बड़े-बड़े विद्वान आदि भी थे। उन्होंने निवेदन किया कि आपके दर्शन करने व विचार-विमर्श हेतु कुछ विद्वान आना चाहते हैं। वे आए और कहा- एक आध्यात्मिक शिविर का आयोजन होना है। उस शिविर की सफलता के लिए आपका सानिध्य चाहिए। आपको अवश्य पधारना है। आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद प्रदान करें। सोचता रहा और जब हमारा बोलने का नंबर आया तो हमने पंडितजी को जवाब दिया- "लगता है अब अध्यात्म शिविर भी पर के आश्रित हो गए हैं। ऐसे पर के आश्रित शिविरार्थियों का अध्यात्म स्वाश्रित कैसे हो सकता है? पराश्रित होकर के अध्यात्म शिविर नहीं होते हैं।"