त्याग का प्रभाव दूसरों पर पड़ता ही है। पर कभी-कभी आगम का सही ज्ञान न होने के कारण से उसका अर्थ अलग ही निकाल लिया जाता है और श्रोताओं को बता दिया जाता है। इसका परिणाम है- उसकी धारणा भी वैसी बन जाती है। ऐसा ही एक प्रसंग पूज्य आचार्यश्री ने सुनाया।
'सन् 1975 का वर्षायोग फिरोजाबाद (उ.प्र.) में हमारा हुआ। हमारा ब्रह्मचारी अवस्था से ही नमक का त्याग है। एक व्यक्ति शुद्ध तेरापंथी विचारधारा के थे। उन पर कुछ सोनगढ़ विचारधारा का प्रभाव भी था। पर मुनिभत थे। प्रतिदिन क्लास में आते थे। उन्होंने चौका लगाया तो 10-12 दिन पहले से पूरे परिवार वालों का नमक का त्याग करा दिया, फिर चौका लगाया। हमारा आहार हुआ। इसके बाद प्रसंगवश हमारी उनसे चर्चा हुई तो उन्होंने कहा- महाराज! आपको उद्दिष्ट भोजन नहीं देना चाहता था, इसलिए हमने ऐसा किया।
तब हमने उन्हें समझाया- 'उद्दिष्ट का अर्थ- उद्देश्य को लेकर कराया हुआ कार्य उद्दिष्ट है। मुनिगण अपने उद्देश्य पूरा कराने के लिए अपनी रसना इन्द्रिय की पूर्ति के लिए कहकर भोजन आदि तैयार कराते हैं, तो वह आहार उद्दिष्ट है। श्रावक तो अपने पात्र के अनुसार तैयारी करता है, बिना कहे करता है, तो वह उद्दिष्ट नहीं है। उन्हें फिर हमने अच्छे से समझाया, उद्दिष्ट क्या है? उन्हें समझ में आया। बोले- महाराज हमें तो भ्रमित किया गया था। हमारे लिए गलत बताया गया है। उसके बाद उन्होंने वहाँ पर जाना बंद कर दिया।