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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • व्यक्तित्व का विकास : भाषा पर अधिकार

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    प्रतिभा का निखार व्यक्ति के सम्यक् पुरुषार्थ में छुपा होता है और ज्ञान का भंडार व्यक्ति के उपयोग में। बहुमुखी प्रतिभा की परीक्षा ज्ञान-अर्जन के क्षेत्र में ही देखी जाती है। व्यक्ति का जीवन देखा जाए तो पानी के बुलबुले के समान होता है, लेकिन उसके अंदर की प्रतिभा, ज्ञान अर्जन की लगन एवं व्यक्तित्व सागर की गहराई की तरह अथाह होता है, जो अपने अंदर बहुत कुछ समेटे रहता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व ही अांतरिक और व्यवहारिक जीवन की विशेषताओं का नेतृत्व करने वाला होता है। आचार्यश्री का जीवन अगणित प्रेरक प्रसंगों से भरा हुआ है। वे जिन्होंने अपनी यात्रा शून्य से अनंत की ओर प्रारंभ की है, अपनी मातृ भाषा से अलग हिन्दी भाषा को कैसे प्राप्त किया। क, ख, ग से हिन्दी का ज्ञान लेकर मूकमाटी जैसे श्रेष्ठ हिन्दी महाकाव्य की सर्जना कैसे की? यह विस्मयकारी तथ्य है।

     

    बात उस समय की है जब आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के पास ब्रह्मचारी विद्याधरजी साधनारत थे। उस समय पंडित श्री हीरालालजी शास्त्री ब्यावर वाले आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के पास आते थे। पंडितजी श्री ज्ञानसागरजी महाराज से धर्म चर्चा करते थे। ब्रह्मचारी विद्याधरजी वहीं पर बैठकर उनकी चर्चा को ध्यान से सुनते थे। यह क्रम प्रतिदिन का था। पंडितजी का आना, चर्चा करना, ब्रह्मचारी विद्याधर का हिन्दी न जानते हुए भी चर्चा को सुनना। वे हिन्दी समझ भी नहीं पाते थे फिर भी सुनते जरूर थे।

     

    एक दिन ब्रह्मचारीजी आचार्यश्री श्री ज्ञानसागरजी से बोले 'पंडितजी इतनी अच्छी हिन्दी बोलते हैं, हमें ऐसा बोलना कब आएगा?' आचार्यश्री ज्ञानसागरजी मुस्करा कर बोले- 'चिंता मत करो सब आ जाएगा।’ स्वाध्याय कराते हुए एक दिन जब इस प्रसंग को बताया तो हम लोगों ने प्रति प्रश्न किया- 'आचार्यश्री आपको हिन्दी नहीं आती थी तब तो आपको बहुत विकल्प रहता होगा।' आचार्यश्री बोले 'बहुत विकल्प रहता था, दिनभर उसी में लगा रहता था। रात में तैयारी करता था, सुबह महाराज को सुनाता था।'

     

    फिर पूछा- मूकमाटी आपने कैसे लिखी? आचार्यश्री ने कहा' यह सब गुरु महाराज का आशीर्वाद है। रात्रि में चिंतन करता था और प्रात: काल सम्बन्धी नित्य क्रिया से निबटकर लिखा करता था।' आचार्यश्री के इस संस्मरण से उनकी नैसर्गिक प्रतिभा का ज्ञान हुआ। उनके अंतरंग व्यक्तित्व का भान हुआ। कितना कठिन पुरुषार्थ करके उन्होंने हिन्दी पढ़ना और लिखना सीखा व 'मूकमाटी' जैसे हिन्दी के अदभुत महाकाव्य के रचियता बने। हिन्दी वर्णमाला के गिने चुने अक्षरों से बनने वाले अनगिनत सार्थक शब्दों और उन शब्दों में जीवंत भावों के संयोजन से रची सहज-सरल बोलती-सी कविताओं का प्रस्तुतिकरण ही तो है 'मूकमाटी' महाकाव्य जो मात्र एक कथानक ही नहीं वरन जैन दर्शन के गूढ़ रहस्यों को भी रोचक ढंग से जनसुलभ बनाता है।

     

    प्रतिभा के अदभुत धनि और गुनी गुणवान |

    ज्ञान परायणत में निरत, साधक सुधी पुमान ||


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