आध्यात्म के रहस्य को समझने से पहले कर्तव्य, भोगत्व और स्वामित्व को समझना जरूरी ही नहीं अनिवार्य भी है। आध्यात्म को अपने जीवन में जिसने भी समझा है उसने इन तीनों से पृथक् होकर ही समझा है। हम किसी 'पर' के कर्ता बनते हैं तो हस्तक्षेप करते हैं, जिससे सामने वाले को तकलीफ होती है, लेकिन वह कहता नहीं है। वह किसी कारण से मजबूर हैं। संसारी जीव का संसार में परिभ्रमण भी कभी मजबूरी में, तो कभी मनजोरी में यानि अहंकार ममकार आदि के कारण से हो रहा है।
प्रसंग : पूज्य गुरुदेव के साथ रहकर आध्यात्म के कुछ ऐसे ही सूत्र सहज रूप में मिल जाते थे। बात कटंगी की है। आचार्यश्री के पास बैठा था। चर्चा चली, आचार्यश्री बोले- 'संसार में तीन बातें हैं और कुछ नहीं है।' पूछा- 'गुरुदेव वो कौनसी हैं?' उत्तर था- 'तीन कारण हैं- जिन्हें कर्तृत्व, भोगत्व और स्वामित्व कहते हैं। पूरे संसार रूपी महल की ये आधारशिला हैं'। आचार्यश्री बोले- 'समझ में आई कि नहीं! देखो मैं इसका कर्ता हूँ मै इसका स्वामी हूँ मैं इसका भोता हूँ बस इसके अलावा और भी कुछ है क्या? लेकिन मोक्षमार्ग इससे एकदम विपरीत चलता है'। संसार में मालिक कैसे बना? अधीनस्थ के कारण गुरु कैसे बना? शिष्य के कारण और भगवान कैसे कहलाए? भत के कारण। ये सब पर-सापेक्ष हो जाते हैं।' तब मुनिगण पूछ बैठे'आचार्यश्री! भगवान तो स्वाश्रित रहते हैं, पर सापेक्ष कैसे हो सकते हैं?'
आचार्यश्री- 'अरे! भगवान कहने वाला कौन है? भक्त ही तो हैं। भगवान जो कहलाए वह भक्त के कारण ही तो कहलाए और भक्त नहीं तो भगवान कौन कहेगा? हालाँकि भक्त के भगवान कहने या न कहने पर भगवान के 'भगवानप्पन' पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। ये बात अलग है कि भक्त उन भगवान का सहारा लेकर अपना कल्याण कर लेता है।' गंभीर चिंतन है पूज्य गुरुदेव का संसार की गहराई बहुत है, इसको पाना बहुत कठिन है। इसलिए संसार में रहो पर उसमें उलझो नहीं, जो उलझे तो फिर निकलना बहुत मुश्किल है|