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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. १०-०१-२०१६ अतिशय तीर्थक्षेत्र चंवलेश्वर पार्श्वनाथ (राजः) पर दु:ख कातर करुणासागर ज्ञान उजागर गुरुवर ज्ञानसागरजी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन… हे विद्यानिधीश! मैं विद्याधर की हर छोटी से छोटी जानकारी आपको देना चाहता हूँ, मानो मेरे अन्दर संकल्प-सा जाग उठा है। मैं उनकी हर एक प्रवृत्ति से आप को अनभिज्ञ नहीं रहने देना चाहता हूँ इसलिए प्राथमिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई के बारे में जैसा बड़े भाई महावीर जी ने बताया वैसा लिख रहा हूँ- गुरुकुल के समान शिक्षा व्यवस्था ‘‘छटवीं, सातवीं के छात्रों को रात्रि में विद्यालय में ही सोना पड़ता था। उस समय विद्यालय की यही व्यवस्था थी। हम लोग ओढ़ने-बिछाने के लिए चटाई, चादर घर से ही ले जाते थे रात्रि में पढ़ने के लिए लालटेन ले जाते थे क्योंकि लाइट नहीं थी, लाइट १९६६ में आई थी और वहीं कक्षा में सबके स्थान निश्चित रहते थे वहाँ रख लेते थे। शाम ५ बजे घर आकर भोजन करते फिर वापस ८ बजे विद्यालय पहुँच जाते थे। रात्रि ८ से १० बजे तक शिक्षक पढ़ाते थे तदोपरान्त शिक्षक घर चले जाते थे, किन्तु छात्र विद्यालय में ही सोते थे। सुबह चार बजे घण्टी बजती थी सभी छात्र उठकर मुँह-हाथ धोकर पढ़ाई करने बैठ जाते थे और ६ बजे अपने-अपने घर चले जाते थे। तैयार होकर नाश्ता आदि करके पुनः आठ बजे विद्यालय आना होता था। वह व्यवस्था मात्र दो कक्षाओं में ही थी। सातवीं कक्षा में बोर्ड परीक्षा होती थी। बोर्ड की परीक्षा देने के लिए समीप ही चिक्कौड़ी (तहसील) के कन्नड़ राजकीय विद्यालय जाना पड़ता था जो २१ कि.मी. दूर था और सदलगा के सातवीं कक्षा के विद्यार्थी मिलकर परीक्षा के लिए सात दिन तक वहीं रहते थे। ८वीं से ११वीं कक्षा तक माध्यमिक और १२वीं कक्षा हायर सेकेण्डरी मानी जाती थी। माध्यमिक कक्षा की पढ़ाई के लिए सदलगा से ५ कि.मी. की दूरी पर बेडकीहाल ग्राम के विद्यालय में साईकिल से जाते थे और साईकिल विद्याधर चलाता था, मैं आगे डंडे पर बैठता था। आठवीं कक्षा से एक विषय अंग्रेजी भाषा का भी शुरु होता था। विद्याधर ने नौवीं कक्षा तक पढ़ाई की फिर आगे पढ़ने से पिताजी को मना कर दिया। पिताजी ने पूछा क्यों नहीं पढ़ना, तो विद्याधर बोला-मुझे लौकिक नहीं अलौकिक पढ़ना है, स्कूल की पढ़ाई से आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। विद्याधर ने सन् १९५८ में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास की हिन्दी प्राथमिक परीक्षा भी प्राईवेट पास की थी।" विद्याधर ने आगे पढाई क्यों नहीं की और आत्मकल्याण की बात क्यों कही? इसके बारे में मैं आपको अगले पत्र में उस रहस्य का उद्घाटन करूँगा। नमोस्तु गुरुवर.... जिज्ञासु शिष्यानुशिष्य
  2. ०९०१-२०१६ अतिशय तीर्थक्षेत्र चंबलेश्वर पार्श्वनाथ (राजः) ज्ञानं ज्ञाता ज्ञेय के साधक ज्ञानमूर्ति गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण को त्रिकालं वन्दन करता हूँ... हे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी! आज आपको आपके ज्ञानपिपासु अन्तेवासिन् का ज्ञानार्जन पुरुषार्थ एवं उस ज्ञान को अनुभव की चासनी में पागने की कला के बारे में बता रहा हूँ जैसा भाई महावीर जी ने बताया- ज्ञानार्जन के साथ ध्यानार्जन जब विद्याधर ९ वर्ष का था तब अकेले कलबसदि (छोटा जैन मंदिर) चला जाता था। वहाँ जाकर प्रतिदिन शाम को ध्यान किया करता था। जब १३ वर्ष का हुआ तो दोड्डबसदि (बड़ा जैन पंचायती मंदिर) जाता और वहाँ पर स्वाध्याय सुनने बैठ जाता था। कभी-कभी शिखरबसदि (जमींदारों का जैन मंदिर) भी जाता था। १४-१५ वर्ष की उम्र में विद्याधर दोड्डबसदि में सभी को स्वाध्याय कराने लगा था। भरतेश वैभव, रत्नाकर शतक सभी को कन्नड़ में सुनाता था और उसके बाद १०-११ बजे रात तक मूलाचार पढ़ता रहता था। कभी-कभी तो कलबसदि के पीछे २ बजे रात तक ध्यान सामायिक करता रहता था। कभी खड़े होकर तो कभी बैठकर। यह सब जानकारी उसके साथ सदा रहने वाला मित्र मारुति हम लोगों को बताता रहता था। मित्र मारुति का कहना था कि मुझे तो नींद आने लगती, उबासी आने लगती थी किन्तु विद्याधर को स्वाध्याय में और ध्यान में कभी भी उबासी नहीं आती। एक बार मारुति उसके साथ नहीं था तब भी विद्याधर अकेले टीले वाले मंदिर के (कलबसदि) पीछे २ बजे रात तक ध्यान करता रहा। फिर रात में टेंट वाली टॉकीज की फिल्म छूटी तो लोग निकले तब उनके पीछे-पीछे घर तक आया क्योंकि रात में कुत्ते भौंकते थे तो डर लगता था। घर का ताला लगाकर जाता था। चुपचाप आकर लेट जाता था। जब इस प्रकार की साधना करने लगा तब घर पर ज्यादा बातचीत करना बंद कर दी थी। अधिक समय तक अकेले ही रहना पसंद करता था।” इस तरह बचपन का आत्मप्रेरक साधक आज आत्म महासाधक बन गया। ऐसे आत्मशिल्पी साधक के चरणों में नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. ०८-०१-२०१६ अतिशय तीर्थक्षेत्र चंबलेश्वर पार्श्वनाथ (राजः) ज्ञानोदधि गुरुवर के श्रीचरणों में ज्ञानाह्वानन हेतु त्रिकाल त्रिभक्तिपूर्वक नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे ज्ञानवारिधि! ये तो आप जानते ही हैं कि माता-पिता ही बच्चे के प्रथम गुरु होते हैं जो कुल परम्परा के संस्कारों की वसीयत तो देते ही हैं साथ ही धर्मनिष्ठ माता-पिता हैं तो वो धर्म की वसीयत के संस्कार भी देते हैं। ऐसे ही माता-पिता थे श्रीमन्ती जी व मल्लप्पा जी, जिन्होंने कुल संस्कारों के साथ-साथ धर्म संस्कार भी अपनी सन्तानों को दिए। विद्याधर के अग्रज भाई से इस सम्बन्ध में हमने पूछा तो उन्होंने बताया- संस्कारित घर की सच्ची पाठशाला : वसीयत का दस्तावेज ‘‘मेरे माता-पिता धार्मिक विचार के थे क्योंकि मेरे दादाजी बड़े ही धार्मिक एवं स्वाध्यायशील थे। संस्कारों की वसीयत पिताजी को मिली। पिताजी (मल्लप्पाजी) प्रतिदिन घर पर स्वाध्याय करते थे। उस स्वाध्याय में आस-पास के बुजुर्ग पुरुष हमारे घर पर स्वाध्याय सुनने के लिए आते थे। यह स्वाध्याय रोज शाम को हुआ करता था उनके स्वाध्याय में पुराणशास्त्र (बिना जिल्द वाले) हुआ करते थे। पिताजी को हिन्दी आती थी वो पढ़कर उन कहानियों को कन्नड़ में बड़े ही रोचक ढंग से सुनाते थे। हम सभी भाई-बहिन भी उन कहानियों को सुनकर खूब आनन्द लेते थे। विद्याधर को तो धर्म की बात या पुराणों की बात जल्दी याद हो जाया करती थी। इससे विद्याधर की रुचि धर्म में बढ़ती गई। एक बार पिताजी से हम लोगों ने मेले में जाने के लिए पैसे माँगे तो उन्होंने पैसे न देकर हम भाई-बहिनों को एक-एक धर्म की पुस्तक दे दी और बोले जो मुझे सहस्रनाम, भक्तामर सबसे पहले कण्ठस्थ करके सुनायेगा, उसे मेले में जाने के लिए पाँच रुपये इनाम में मिलेंगे और अन्ना जी (पिताजी) ने हम लोगों को उनका उच्चारण करना सिखाया। तब विद्याधर जितना सीखता उतना वह दूसरे दिन याद करके सुना देता था। तब विद्याधर १३-१४ वर्ष का था। सबसे पहले विद्याधर ने याद करके सुना दिया और वह प्रतियोगिता जीत ली तब पिताजी ने उसे पाँच रुपये इनाम में दिए तो विद्याधर बोला अन्ना सभी को आप पैसे दीजिए ना...तभी तो हम सभी मेले में जाएँगे, सभी को पैसे मिले और मेले में गए। कुछ दिन बाद विद्याधर को मुनि महाबल महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र याद करने को कहा तब विद्याधर ने घर आकर अन्ना को कहा... तो पिताजी ने उसे उसका उच्चारण सिखाया। सात दिन में याद करके महाराज जी को जाकर सुना आया। आकर बताया महाराज ने सिर पर पिच्छी रखकर आशीर्वाद दिया-नित-नित आत्मविकास हो धर्ममार्ग में ऊँचाईयों पर पहुँचो।” इस तरह घर की पाठशाला में वसीयत में मिले धर्म के संस्कार जिसे विद्याधर ने पालन कर अपने गुरुवर की (आपकी) भावना "संघ को गुरुकुल बनाना" को पूर्णकर संघ को चलता फिरता विश्वविद्यालय बना दिया। उस विश्वविद्यालय के कनिष्ठ छात्र का गुरुनाम गुरु एवं गुरु चरणों में सादर नमोस्तु... कृपाकाँक्षी शिष्यानुशिष्य
  4. ०७-०१-२०१६ अतिशय तीर्थक्षेत्र चंवलेश्वर पार्श्वनाथ (राजः) परिपक्व स्वभाव से सुशोभित, साधनारथ के सारथी, गुरुवरश्री ज्ञानसागर जी महाराज के पुनीत चरण कमलों की वंदना कर कृतकृत्य होता हुआ आज आपके द्वारा सृजित सर्वश्रेष्ठ चेतन कृति की सर्वश्रेष्ठता का रहस्य प्रकट कर रहा हूँ। जिससे विद्याधर आज आचार्य विद्यासागर बनकर समाज एवं राष्ट्र उत्थान के सूत्रधार बने हैं। इस सम्बन्ध में बड़े भाई महावीर जी ने बताया- सूत्रधार से बना : समाज-राष्ट्र कर्णधार “जब विद्याधर आठवीं कक्षा में पढ़ता था तब विद्यालय में एक नाटक हुआ था जिसका नाम राम-सीता नाटक था। उस नाटक में विद्याधर ने सूत्रधार का रोल किया था। जिससे सभी को उसके अन्दर छिपी नेतृत्व शक्ति का आभास हुआ था। इसी तरह एक बार विद्याधर के मित्र शिवकुमार ने मुझसे कहा था कि विद्याधर बहुत बड़ा महान् व्यक्ति बनेगा। तो मैंने पूछा-तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ? तो शिवकुमार बोला—उसके हाथ की अनामिका अँगुलि में त्रिशूल की रेखायें हैं और सामुद्रिक शास्त्र में लिखा है कि त्रिशूल, शंख, चक्र आदि जिसके हाथ में बने हैं। वह महान् पुरुष होता है और वहीं राजा, महाराजा, नेता आदि बनता है। विद्याधर भी एक महान् नेता बनेगा। वह समाज एवं राष्ट्र को दिशा निर्देश देगा।" इस सम्बन्ध में विद्याधर की बहिनें ब्रह्मचारिणी शान्ता जी एवं सुवर्णा जी ने भी एक संस्मरण लिखकर भेजा- महानता की भविष्यवाणी ‘‘महान् पुरुषों का पुण्य उनके कार्यों के साथ-साथ शरीर में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता है और जब वह पूर्व पुण्य को वर्तमान पुरुषार्थ के साथ जोड़ देते हैं तो वह भव्यों के लिए प्रेरणास्रोत बन जाते हैं। विद्याधर के मित्र शिवकुमार ने जब विद्याधर की मुनि दीक्षा का समाचार सुना तो पिताजी (मल्लप्पाजी) के पास आये और कहा-मैं पहले ही जानता था कि विद्याधर महान् व्यक्ति बनने वाले हैं। महात्मा गाँधी जैसे नेता या विनोबाभावे जैसे सर्वोदयी नेता बनेंगे, किन्तु वह तो मोक्षमार्ग के नेता बन गये हैं। उनके हाथ की अनामिका अँगुलि में त्रिशूल का चिह्न है ऐसा बताकर रोते-रोते बोले-विद्याधर हमारे साथ गाड़ी में घूमते थे, शतरंज खेलते थे। एक बार विद्याधर ने अँगुलि में स्याही लगाकर सफेद कागज पर त्रिशूल का चिह्न अंकित करके भी दिखाया था। तभी से मुझे ऐसा आभास हो गया था। मेरा मित्र महान् व्यक्ति बन गया। हम सब धन्य हो गए। बचपन के शुभ लक्षण, लक्ष्य को पाने वाले विलक्षण व्यक्ति की ओर संकेत करते हैं। " इस प्रकार जन-सामान्य व्यक्ति भी विद्याधर की महानता की भविष्यवाणी करने लगे थे। उस महानता के प्रकटीकरण में आपश्री निमित्त बने आपके श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. ०५-०१-२०१६ रोपां (केकड़ी राज) ज्ञानेन्द्र गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को शत-शत नमन करता हूँ… हे वात्सल्य रत्नाकर गुरुवर! एक महापुरुष के अन्दर सहज स्वाभाविक असीम गुणों के भण्डार से समय-समय पर गुणरत्न प्रकट होते रहते हैं और उस विराट व्यक्तित्व को चमकाते रहते हैं। विद्याधर में एक तरफ वैराग्य की ऊर्जा वृद्धिंगत हो रही थी तो दूसरी तरफ व्यावहारिक गुण भी अपनी सुगन्धी फैलाते जा रहे थे। परिवार के सदस्यों से उसे गहरा लगाव था, वे प्रत्येक सदस्य का बड़ा ही ख्याल रखते थे। उसकी संवेदनाएँ महापुरुषत्व की आधार शिलाएँ स्थापित कर रही थी। इसका एक छोटा-सा संस्मरण बड़े भाई महावीर जी ने सुनाया वह मैं लिख रहा हूँ- भ्रातृ-प्रेम "जब छोटा भाई अनन्तनाथ तीन वर्ष का था तब उसे रीकेट्स नामक रोग हो गया था। जिसमें हाथ-पाँव सूखते चले गए और पेट बड़ा हो गया था। शरीर की हड्डी-हड्डी दिखने लगी थी बहुत इलाज करने के उपरान्त भी रोग ठीक नहीं हुआ तब हम सभी समझ गए कि यह बच नहीं पाएगा। सुन्दर गोरा बदन रोग होने के कारण फीका और विद्रूप लगने लगा था। उसकी यह हालत देखकर घर के सभी लोग दुःखी थे, किन्तु विद्याधर कुछ ज्यादा ही दु:खी था। उस वक्त विद्याधर १३ वर्ष का था। इस दुःख के कारण विद्याधर खेलने नहीं जाता था। दूर के एक ग्रामीण वैद्य के बारे में पता चला उन्हें लाकर दिखाया गया। उन्होंने दवाई दी और कहा इसे एक साल तक सुबह से १२ बजे तक धूप में बैठाना है, तब ऐसा ही किया गया। इससे अनन्तनाथ के शरीर की चमड़ी काली पड़ गई किन्तु रोग भाग गया और अनन्तनाथ स्वस्थ हो गया। उसके शरीर वर्ण को देखकर विद्याधर दुःखी रहता था और पिताजी को बोलता था-अन्ना अच्छे डॉक्टर को दिखाओ ना। घर पर कोई भी डॉक्टर, वैद्य आता तो उनसे पूछता–मेरा भाई कब ठीक होगा? जल्दी स्वस्थ करो ना। उसकी रुग्ण हालत में विद्याधर और मैं सेवा करते थे। विद्याधर तो कहीं जाता ही नहीं था वैसे भी घर में कोई भी बीमार पड़ता तो विद्याधर सबसे ज्यादा सेवा करता।" इस तरह बचपन का वह भ्रातृ-प्रेम आज असीम स्वरूप में बदलकर जगत् के प्राणियों पर बरस रहा हैं। उसी प्रेम से स्नपित आपका शिष्यानुशिष्य
  6. ०१०१-२०१६ अतिशय क्षेत्र चन्द्रगिरि सावर (केकड़ी-राजः) जीवनभर मुनियों की सेवा करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु... हे वैयावृत्य निपुण गुरुवर! आज मैं विद्याधर के सेवाभावी व्यक्तित्व के बारे में प्रकाश डाल रहा हूँ। उसकी हर क्रिया को सदा देखने वाले बड़े भाई महावीर जी ने बताया- सेवाभावी विद्याधर “सदलगा में दिगम्बर मुनि-आचार्य आते रहते थे। जिनमें सर्व प्रथम आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ससंघ, फिर आचार्य श्री अनन्तकीर्ति जी महाराज ससंघ, मुनि श्री महाबल जी महाराज, मुनि श्री सुबलसागर जी महाराज, मुनि श्री पिहिताश्रव जी महाराज, मुनि श्री पायसागर जी महाराज का ससंघ प्रवास सदलगा में होता रहा। सर्वप्रथम सन् १९५९ (सम्भावित) आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने ६ पिच्छीधारी मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक के साथ चातुर्मास किया था। तब विद्याधर १३ वर्ष का था और वह आचार्य महाराज देशभूषण जी के पास ही ज्यादा समय रहता था। चातुर्मास में संघ की सेवा में पूरे गाँव में सबसे आगे था। आचार्य देशभूषण जी महाराज विद्याधर को बहुत वात्सल्य देते थे। कभी-कभी आचार्य महाराज विद्याधर के कंधे पर अपना हाथ रखकर चलते थे। यदि विद्याधर कभी नहीं दिखा तो किसी को बोलकर उसे बुलाते थे। विद्याधर पूरे चातुर्मास में आचार्य महाराज को आहार कराने जाता था। संघ के किसी भी साधु के अस्वस्थ होने पर आचार्य महाराज विद्याधर को ही वैयावृत्य करने के लिए बोलते थे। विद्याधर की रुचि को देखते हुए उन्होंने विद्याधर को वैराग्य मार्ग में बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उस चातुर्मास में विद्याधर अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करता था और दसलक्षण पर्व में दस दिन एकासन व्रत किए थे। इस चातुर्मास में साधु समागम से उसका वैराग्य बढ़ता गया और तब से विद्याधर ने प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी का व्रत करना शुरु कर दिया था। फिर उनके बाद आचार्य श्री अनन्तकीर्ति जी महाराज ने तीन पिच्छीधारी आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक के साथ चातुर्मास किया था। उनके बाद मुनि श्री महाबल जी महाराज ने चातुर्मास किया था। आचार्य देशभूषण जी के दो चातुर्मास हुए थे। तब घर पर चौका लगा करता था और विद्याधर बावड़ी से चौके का पानी भरकर लाया करता था एवं चौके में माँ के साथ काम भी करता था।पड़गाहन करके मुनियों की पूजा करता था और आहार शोधन करके सभी को पकड़ाता था। बड़े ही सावधानी से आहार करता था। फिर कमण्डलु लेकर मुनियों को मंदिर छोड़ने जाता था। जब तक मुनिगण सामायिक में नहीं बैठा करते तब तक पिताजी के साथ महाराज से धर्म चर्चा करता-सुनता था और रविवार को दोपहर में प्रवचन सुनने जाता था। प्रतिदिन रात्रि में वैयावृत्य करने जाता था तथा सुबह साधुओं के कमण्डलु में पानी भरकर उनके साथ कमण्डलु पकड़कर शौच क्रिया के लिए जंगल जाता था। साधुओं की सेवा में सदा अग्रणी रहता था। कोई भी साधु सदलगा में आते तो उन्हें लेने जाता और सदलगा से विहार करने पर छोड़ने भी जाता था। ये सब उसकी सहज प्रवृत्ति थी। हर सेवा-कार्य बड़े उत्साह एवं रुचि के साथ करता था। साधुओं के साथ ही ध्यान सामायिक की साधना करता था। साधुओं के जाने के बाद आस-पास के गाँव में साधु होते तो मित्रों के साथ वहाँ दर्शन करने जाता था।” इस प्रकार विद्याधर की रुचि शुरु से ही महाव्रती साधुओं की सेवा में एवं उनके जैसे बनने की साधना करने में थी। सत्संगति का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस अनुभूति को विद्याधर ने आचार्य विद्यासागर बनने के बाद जब महाकाव्य मूकमाटी का सृजन किया तो उसमें लिखा है-सन्त समागम की/यही तो सार्थकता है/कि संसार का अन्त दिखने लगता है, भले समागम करने वाला पुरुष/संत-संयत बने या न बने/किन्तु संतोषी अवश्य बनता है। उनकी यह कविता उनके जीवन की अनुभूति है। सन्तों के समागम से उनके भाव सन्त बनने के हो गए और वो सन्त बनने के लिए सन्त स्वरूप का ज्ञान करने के लिए सन्तों की संहिता-नियम-कायदे कानून का संविधान पढ़ने लगे थे। इस सम्बन्ध में विद्याधर के अग्रज भ्राता महावीर जी ने बताया- ‘अन्ना साहब जो पण्डित जी थे मंदिर के पास रहते थे। वो मंदिर जी में अपने स्वाध्याय में विद्याधर को बैठा लेते थे। उनको अच्छा ज्ञान था वो मंदिर जी में भरतेश वैभव पर प्रवचन करते वृद्ध पुरुष वर्ग सुनते। उन पण्डित जी का स्नेह पाकर विद्याधर रोज उनका शास्त्र प्रवचन सुनने लगा और उनसे अपनी जिज्ञासा का समाधान पाने लगा। धीरे-धीरे विद्याधर के ज्ञान को देखकर पण्डित जी अन्ना साहेब कहीं बाहर जाते तो शास्त्र गादी पर विद्याधर को बैठा जाते और शास्त्र अलमारी की चाबी विद्याधर को दे जाते। विद्याधर गादी पर बैठकर जहाँ से उन्होंने छोड़ा उससे आगे पढ़ता था एवं अलमारी में शास्त्र जी जमाता था। अलमारी में मूलाचार ग्रन्थ हाथ लग गया तो निकालकर उसको पढ़ने लगा। फिर पण्डित जी से पूँछकर घर ले आया। मंदिर से स्वाध्याय सुनकर आता फिर हिन्दी में मूलाचार पढ़ता।" इस तरह हे गुरुवर! आपकी कृपा से विद्याधर को साधुओं की सेवा का सच्चा फल मिल गया। वह भी उन जैसे ही बन गया। उन संतों को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. २८-१२-२०१५ गुणोदय तीर्थ क्षेत्र गुलगाँव (केकड़ी-राजः) दिव्यध्वनि के उपासक, सम्यग्ज्ञान के विचारों से शोभायमान गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पुनीत चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु...हे ऋषिराज ! आज मैं आपको विद्याधर की दिनचर्या के बारे में बताता हूँ। इस सम्बन्ध में भाई महावीर जी ने बताया- होनहार विद्याधर की समयबद्ध दिनचर्या ‘‘मैं, विद्याधर एवं छोटे भाई-बहिन सभी एक बड़े कक्ष में सोते थे। जो चौथी, पाँचवीं कक्षा में आ जाता था वह अलग कक्ष में सोता था विद्याधर १० वर्ष की उम्र तक तो १० बजे तक सो जाता था और सुबह ५ बजे उठ जाता था। १३ वर्ष की उम्र से मित्र मारुति के साथ देर रात तक धर्म की चर्चा, कथा कहानी की चर्चा करता रहता था और ध्यान स्वाध्याय अधिक देर तक करता रहता था। दिन में कभी भी सोता नहीं था। समय भी नहीं मिला करता था। सुबह ७-११ बजे तक विद्यालय होता था। फिर आकर बावड़ी में स्नान करने जाता था। फिर भोजन करके भैसों को नहलाने ले जाता था। वहाँ से आकर पढ़ाई से सम्बन्धित गृहकार्य करता था और फिर २ बजे पुनः विद्यालय जाता था। वहाँ से ५ बजे घर लौटता था फिर भोजन करके मंदिर जाता था। इसलिए दिन में सोने का समय नहीं मिलता था।” इस प्रकार विद्याधर की दैनिक जीवन चर्या इतनी व्यवस्थित थी कि उससे समय का प्रबन्धन करना सीखा जा सकता है... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. २७-१२-२०१५ गुलगाँव (केकड़ी राजः) निजत्व अनुभव की, अपनत्व की प्रतिमा गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में निज में अपनत्व जगाने हेतु नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे गुरुवर! आज मैं आपको विद्याधर के श्रावक तप संस्कारों के जागरण के बारे में लिख रहा हूँ जैसा कि विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया- बारह वर्षीय विद्याधर ने शुरु किए एकासन "पर्युषण पर्व में माता-पिता पूजा-अनुष्ठान करके जब घर आते थे तो साथ में गन्धोदक लेकर घर आते थे। तब मैं और विद्याधर गन्धोदक लगाकर ही माता-पिता के साथ भोजन ग्रहण करते थे और एकासन करते थे। विद्याधर ने १२ वर्ष की अवस्था से एकासन करना शुरु कर दिया था और जब तक घर पर रहा तब तक प्रतिवर्ष पर्युषण पर्व में एकासन करता था।" इसी प्रकार कर्नाटक की परम्परा के अनुसार भी एक बार विद्याधर ने मंदिर जी में परिवार की ओर से व्रत अनुष्ठान किया था। इस सम्बन्ध में विद्याधर के ज्येष्ठ भ्राता ने बताया- पारिवारिक परम्परा का निर्वहन किया विद्याधर ने "कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में दसलक्षण पर्व में नोंपी (व्रत) रखते हैं, जिसमें सोलहकारण व्रत सोलह वर्ष तक करते हैं। दसलक्षण व्रत दस वर्ष तक करते हैं। रत्नत्रय व्रत तीन वर्ष तक करते हैं, किन्तु अनन्त व्रत तीन दिन का होता है। जिसको परिवार की ओर से जीवन भर करते हैं। पिताजी के स्वर्गवास होने पर पुत्र उनको चालू रखते हैं। इसीलिए उसे अनन्त व्रत कहते हैं। ये सभी व्रत करने वाले मंदिरजी में सुबह सामूहिक अभिषेक-पूजन करते हैं, इस क्रिया में ५-६ घंटे लग जाते हैं। यदि किसी का स्वास्थ्य खराब हो जाता है तो परिवार का कोई दूसरा सदस्य सम्मिलित होता है। एक बार पिताजी का स्वास्थ्य खराब हो गया था तो विद्याधर ने उस व्रत को चालू रखने के लिए उत्साह दिखाया तो उसे माँ की आज्ञा मिल गई तो वह उस अभिषेक-पूजन की क्रिया में गया था। मंदिर से जब ५-६ घण्टे बाद पूजा करके घर आया तो हमने बोला-तुम थक गए होगे, कल से मैं चला जाऊँगा। तो बोला-थकने की बात ही कहाँ, वहाँ तो बहुत अच्छा लगता है। मैं तो बैठ ही गया हूँ, छोड़ेंगा नहीं।’’ इस प्रकार विद्याधर कुल परम्परा की रीति रस्मों को उत्साह के साथ पालन करता था और माँ (श्रीमन्तीजी) जो भी व्रत पूर्ण करती थीं, उनके उद्यापन के कार्यक्रम में बड़ी तत्परता से प्रबन्धन करता था। इस सम्बन्ध में अग्रज भाई महावीर जी ने बताया- माँ के व्रतोद्यापन के कनिष्ठ प्रबंधक विद्याधर ‘माँ सदा व्रत वगैरह करती रहती थी। अष्टमी-चतुर्दशी के दिन माँ-पिताजी उपवास करते थे, यह मैंने बचपन से ही देखा है। माँ ने रोहणी व्रत, णमोकार व्रत, दसलक्षण व्रत, सोलहकारण व्रत, रविव्रत, चौबस तीर्थंकरों के पंचकल्याणक व्रत, रत्नत्रय व्रत, अनन्त व्रत आदि किए थे और पिताजी ने उद्यापन कराया था। तब विद्याधर उद्यापन के लिए दिए जाने वाले 'बागिना' (केले के पत्ते में बादाम, खजूर, जनेऊ,अक्षत, गंध, नारियल, फल, नैवेद्य, मिश्री, गन्ने का टुकड़ा, पुष्प आदि वस्तुएँ रखकर) तैयार करते थे और साधर्मी भाईयों, रिश्तेदारों एवं परिचितों को निमंत्रण देने के लिए बहिन को लेकर जाते थे एवं अक्षत देकर भोजन के लिए निमंत्रित करते थे। सभी अतिथियों को पंगत में बैठाकर भोजन परोसते थे और भोजन के पश्चात् ‘बागिना' तथा बर्तन सप्रेम भेंट करते थे। इसके साथ ही रिश्तेदारों को वस्त्रादि विशेष भेंट दिए जाते हैं, तो वह भी अपने हाथों से देता था। इस काम को करने में विद्याधर विशेष रुचि लेता था।” इस प्रकार घर में श्रावकोचित तप साधना का प्रभाव विद्याधर पर भी पड़ा और व्रतों से अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने में बचपन से ही संलग्न हो गया था। साथ ही माँ के व्रतों के उद्यापन के प्रभावनापूर्ण कार्यक्रम में बढ़चढ़कर भाग लेता। ऐसे सम्यक्त्वाचरण को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  9. ३४-१२-२०१५ शाहपुरा (राजः) भवसागर की नौका, गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे स्वावलम्बी गुरुवर! विद्याधर लोक व्यवहार में स्वावलम्बी बनने के लिए सतत् पुरुषार्थ करता रहता था और महापुरुषों के आदर्शों को स्वीकार करता था। इस सम्बन्ध में विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया- स्वावलम्बी विद्याधर “जब विद्याधर सातवीं कक्षा में पढ़ता था तब विद्याधर ने तकली एवं चरखा चलाना सीखा था और मित्रों के साथ सुती धागा बनाता था। उसी धागे से कपड़ा बनाना भी सीखा। उस कपड़े से टोपी, चड्डी एवं टॉवल बनाता था और उसी का उपयोग करता था। पिताजी को भी टोपी बनाकर दी थी। तब पिताजी ने कहा-इतनी मेहनत क्यों करता है बेटा? तब विद्याधर बोला-यह तो स्वाभिमान की बात है जब अन्ना और देश के महापुरुष भी बनाते हैं तो हमें बनाने में क्या शर्म? स्वावलम्बी तो बनना ही चाहिए। विद्याधर की बात सुनकर माता-पिता दोनों ही बड़े प्रसन्न हुए।” इस प्रकार विद्याधर बचपन से ही स्वावलम्बी जीवन जिया करता था और पूर्णतः स्वावलम्बी बनने के लिए आपश्री के पास आये। जिसे आपने मुनि बनाया और आचार्य बनाकर पूर्णतः स्वावलम्बी बनाया था। यहाँ तक कि आपने अपनी पराधीनता से भी उसे मुक्त कर दिया था। धन्य हैं गुरुवर ! द्वय गुरुवरों के चरणों में नमोस्तु करता हुआ भावना भाता हूँ, आप जैसा स्वाभिमानी बनूं... आपका शिष्यानुशिष्य
  10. २८-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) दार्शनिक विचारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की वन्दना करता हूँ… हे गुरुवर! जब कोई बालक बड़ों के समान व्यवहार करे तो उसे हर कोई सयाना बालक कहते हैं। आपका शिष्य विद्याधर बचपन में बड़ों के मुख से एक आदर्श बालक के रूप में स्थापित किया जाने लगा था। हर कोई अपने बच्चों को विद्याधर जैसा बनने की सलाह/समझाइस देने लगे थे, इसका कारण आज मैं आपको लिख रहा हूँ, जो मुझे विद्याधर के ज्येष्ठ भ्राता जी ने बताया- बचपन में पचपन-सा व्यवहार “१२-१३ वर्ष के बाद से विद्याधर को कभी भी हँसी-मजाक करते नहीं देखा। न ही कभी किसी मित्र के गले में हाथ डाले हुए देखा और न ही उसके गले में किसी मित्र का हाथ डला देखा। एक बार जो कपड़े पहन लेता था। तो दो दिन तक उसकी प्रेस नहीं बिगड़ती थी। उसकी कभी कोई भी शिकायत अड़ोस-पड़ोस से या विद्यालय से घर पर नहीं आई।" इस प्रकार विद्याधर महापुरुषों के चरित्रों को सुनकर गंभीर होता चला गया और बन गया था सभी का प्रिय। मुझसे किसी को कोई शिकायत न रहे, ऐसी समझ मुझमें भी प्रगट हो इस भावना के साथ... आपका शिष्यानुशिष्य
  11. २७-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) स्वाधीन चैतन्य के अतीन्द्रिय आनंद के मार्ग प्रकाशक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज के पावन चरणों में नमोस्तु करता हूँ… हे गुरुवर! विद्याधर १२-१३ वर्ष की अवस्था में ज्ञानार्जन का पुरुषार्थ तो करने ही लगा साथ ही अपने छोटे भाई बहिनों को अच्छे संस्कार देने का कर्तव्य निर्वाह भी करता था। इस सम्बन्ध में मुनि श्री योगसागर जी महाराज ने बचपन की कुछ स्मृतियाँ बताईं। जो मैं आपको लिख रहा हूँ- घर की पाठशाला के बाल गुरु "जब मैं ४ वर्ष का था और दोनों बहिने ७ एवं १० वर्ष की थीं। तब भैया विद्याधर जी हम छोटे भाई - बहिनों को घर पर णमोकार महामंत्र, तीन कालों के तीर्थंकरों के नाम, विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के नाम, विनतियाँ, बारह भावना आदि सिखाते/याद कराते थे और प्रतिदिन णमोकार मंत्र की माला की जाप करने का उन्होंने नियम भी दिया था और भी कई धर्म की बातें सिखाते रहते थे।” इस तरह विद्याधर बचपन से ही पठन-पाठन कर एक सुयोग्य पुत्र का दायित्व निर्वाह करने लगे थे। यही कारण है कि मोहल्ले पड़ोस के बच्चे हों या मित्रगण हों, सभी के बीच आदर्श की दृष्टि से देखा जाता था। ऐसे कर्तव्यवान् शिष्य को पाकर आप धन्य हुए और आचार्य परमेष्ठी का दायित्व देकर मोक्षमार्ग के कर्तव्यनिष्ठ गुरु बन गए हैं। ऐसे गुरुद्वय के चरणों में नमोस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  12. २६-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) बिना कोई आघात के जागृत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सहज-स्वाभाविक वैराग्य को नमोस्तु करता हुआ… हे गुरुवर! जब किसी व्यक्ति में सहज-स्वाभाविक ज्ञान, कला, चातुर्य, साहस आदि गुण प्रकट होने लगते हैं, तो जन सामान्य यही कहता है कि पूर्व सुकृत संस्कार जागृत हो रहे हैं। बालक विद्याधर के ऐसे अनेक प्रसंग उनके ही भाई-बहिनों से सुनने को मिले। इस सम्बन्ध में अग्रज भाई महावीर जी ने बताया- स्व पुरुषार्थ से बने तैराक विद्याधर १२-१३ वर्ष का हुआ तो बावड़ी में तैरना सीखने के लिए सूखी तुम्बी या सूखा कद्दू लेकर जाते और पेट में बाँधकर बाबड़ी में कूदते। एक दिन उसके मित्रों ने बताया कि विद्याधर को तैरना आ गया। फिर अपने मित्रों को भी तैरना सिखा दिया।’’ इसी प्रकार तैरने के सम्बन्ध में विद्याधर की बहिनें शान्ता एवं सुवर्णा जी ने लिखकर दिया- पानी में तैरते हुए करते सिद्ध का ध्यान ''भैया विद्याधर जी को हम लोगों ने बाबड़ी में ऊपर से छलाँग लगाते हुए सुना| 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' फिर बहुत देर तक पानी के अन्दर रहते थे और जब ऊपर निकलते तो चित्त लेटकर पद्मासन लगाकर ध्यान मुद्रा में तैरते रहते थे। बहुत देर तक ऐसा ध्यान लगाते थे। उनकी हर क्रिया अलौकिक लगती थी।" इस तरह विद्याधर जी बचपन से ही लौकिक कार्य करते हुए भी उसमें धर्म-ज्ञान-साधना कर लिया करते थे। यह उनका महापुरुषत्व का द्योतन है। ऐसे महापुरुषत्व को नमस्कार करता हुआ। आपका शिष्यानुशिष्य
  13. २५-११-२0१५ भीलवाड़ा (राजः) अन्तहीन इन्द्रियज सुखसम्वेदन से मूर्छातीत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे गुरुवर! आज मैं पत्र में आपके शिष्य की उस अनोखी वैयावृत्य का वर्णन कर रहा हूँ। जो १२ वर्ष की उम्र में सीखी और अपने गुरु की सल्लेखना के दौरान अनुपम अदभुत वैयावृत्य करके एक आदर्श खड़ा किया था। इस सम्बन्ध में विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया- नन्हा सल्लेखना सहायक ‘‘विद्याधर के सामने मुनिश्री आदिसागर जी (भोजगाँव) की समाधि बेड़कीहाल गाँव में हुई थी और वहीं पर बाद में मुनिश्री मल्लिसागर जी महाराज की समाधि हुई। तब दोनों बार विद्याधर अपने मित्र मारुति के साथ सल्लेखना देखने गया था। विद्याधर को सल्लेखना के बारे में मुनि महाराजों से काफी ज्ञान प्राप्त हो गया था। सदलगा से ६ कि.मी. दूर बोरगाँव है। वहाँ पर मुनि श्रीनेमिसागर जी महाराज की सल्लेखना चल रही थी। तब विद्याधर छटवीं कक्षा में पढ़ता था। उम्र १२ वर्ष थी। अपने मित्र मारुति के साथ नेमिसागर जी महाराज की वैयावृत्य करने चला गया था। सात दिन वहीं रहा, हर क्रिया में सहयोग दिया। खूब मन लगाकर सेवा की तब नेमिसागर जी महाराज ने उसकी सेवा-सुश्रुषा एवं श्रद्धा-भक्ति-समर्पण देखते हुए आशीर्वाद देते हुए कहा था- ‘‘तुम बड़े होकर बहुत महान् बनोगे, मेरे जैसे अनेकों की समाधि कराओगे।’’ उसका मित्र मारुति सदा हर बात मुझको बताता रहता था।” इस तरह बचपन से ही विद्याधर साधु सेवा में अत्यधिक रुचि लेता था यही कारण है कि आज मेरे गुरु समाधि सम्राट कहलाते हैं। साधु सेवा की भावना मेरी भी बनी रहे। नमोस्तु गुरुवर... आपका शिष्यानुशिष्य
  14. २४-११-२0१५ भीलवाड़ा (राजः) सज्जनों के उपकारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में प्रणाम निवेदित करता हूँ... हे दिव्य विचारक गुरुवर! आज आपको आपके शिष्य ब्रह्मचारी विद्याधर के कलाकार हृदय का भी परिचय देना चाहता हूँ। जिससे आप अन्दाज लगा सकते हैं कि विद्याधर के मन में क्या था? कहावत तो यहीं कहती है कि हृदय की बात बाहर आती ही है, जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। इस सम्बन्ध में विद्याधर के बड़े भाई ने बताया- चरित्र का चित्रकार "विद्याधर ११-१२ वर्ष की उम्र से ही महापुरुषों के रेखाचित्र बनाने लगा था। उसे महापुरुष और देश की सेवा करने वाले पुरुषों के चरित्र में विशेष अनुराग होता था। धीरे-धीरे बहुत सारे चित्र बना लिए थे, जिनमें भगवान् महावीर स्वामी, भगवान् बाहुबली, सरस्वती देवी, लक्ष्मी देवी, महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोस, झाँसी की रानी, हिरण्य कश्यप, महाराज शिवाजी, सिपाही, पशु-पक्षियों के आदि। विद्याधर के चित्रों को देखकर अड़ोस-पड़ोस के लोग सभी खुश होते थे और मित्र लोग उसके चित्रों की नकल करते थे। चित्रों को बनाने के बाद उन्हें बड़े संभालकर रखता था। आज वो चित्र धरोहर स्वरूप रखे हुए हैं।" इस तरह जिसका जैसा भाव होता है, वह उसी में रुचि लेता है। विद्याधर को महापुरुषों का चरित्र सुनना बहुत अच्छा लगता था। बड़ी एकाग्रता से सुनता था और उन्हीं के चित्रों को अपने मानसपटल पर बनाकर कलम से कागज पर उकेरता था। अपने चरित्र का चित्रकार मैं भी बनूँ इस भावना से चरित्र के चित्रकार-गुरुद्वय को नमस्कार... आपका शिष्यानुशिष्य
  15. २३-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) आत्मानुशासक-अनुशासनप्रिय गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के श्रीचरणों में नमोस्तु नमोस्त नमोस्तु... हे आचार्यप्रवर! आपके द्वारा घड़े गये महापुरुष के बचपन की छोटी-सी छोटी बात अनुकरणीय एवं शिक्षाप्रद है। वे बचपन से ही अनुशासनप्रिय रहे इस सम्बन्ध में श्रीमती कनक जी (दिल्ली) अजमेर ने बताया- आज्ञा पालक और एकाग्रता "दिल्ली में हम लोग प्रतिदिन, चातुर्मास कर रहे पूज्य मुनि श्री मल्लिसागर जी महाराज के पास जाते थे और विद्याधर के संस्मरण सुना करते थे। एक दिन उन्होंने बताया- ‘विद्याधर बाल्यकाल से ही आज्ञा का पालन करते थे और कोई भी कार्य बड़ी लगन एवं चतुराई से करते थे। एक बार सभी बच्चों को कहा पढ़ाई करोगे और कोई उठकर नहीं जायेगा। तब बाहर सड़क पर कोई बैंडबाजा निकल रहा था तो सभी उठकर चले गए, लेकिन विद्याधर बड़ी एकाग्रता से पढ़ता रहा, बाहर उठकर नहीं गया।' इस तरह विद्याधर को बाहर का कोई विशेष आकर्षण नहीं था। आकर्षण था तो केवल गुणों का, वही आज हम उनमें देखते हैं। इसी प्रकार बड़े भाई महावीर जी ने भी स्वानुशासन की बात बताई- स्वानुशासन ‘‘घर का कोई भी बड़ा व्यक्ति विद्याधर को जो भी काम बताते वो काम प्रतिदिन समय पर कर देता था। अनुशासन का पक्का था वह। विद्याधर ने कभी भी स्कूल से छुट्टी नहीं की और सुबह प्रतिदिन समय पर तैयार हो जाता था। जब कभी स्कूल जल्दी जाना पड़ता था या माँ दूध दुहती रहती थी तो विद्याधर बिना गर्म हुआ ताजा दूध पीकर चला जाता था। उस समय तो चाय-कॉफी का चलन ज्यादा नहीं था इसलिए हम लोगों ने कभी नहीं पी।" इस तरह बचपन से ही स्वयं अनुशासित रहते और दूसरों से भी अनुशासन का पालन कराते थे। इस सम्बन्ध में बड़े भाई महावीर जी ने एक बात और बताई- बचपन के अनुशासक "विद्याधर को विद्यालय की कक्षा में प्रथम नम्बर मिलने पर कक्षा का कप्तान बना दिया गया था तब लीडरशिप करते थे। शिक्षक के अभाव में विद्यार्थियों की हाजरी लगाना, कक्षा की सफाई की बारी जिस टोली की होती उनसे सफाई करवाना, कक्षा में गोबर लिपवाना, कक्षा में अनुशासन बनाए रखना। इसी तरह घर पर भी छोटे भाई-बहिन को अनुशासित रखते थे। विद्याधर ने कहीं भी कोई भी ऐसी शरारत नहीं की, जिससे कोई शिकायत घर पर आयी हो। उसके मुख से कभी गाली या गन्दे शब्द नहीं सुने। विद्याधर ने किसी भी गंदे बच्चों से दोस्ती नहीं की क्योंकि उसे अनुशासन प्रिय था।” इस तरह उन्हें बचपन से ही मिलिट्री के अनुशासन के समान अनुशासन प्रिय था। इसी तरह मुनिश्री योगसागर जी महाराज ने एक स्मृति बताई- समय के पाबंद ‘‘मैं जब छोटा था तब मित्रों के साथ पतंग उड़ाने चला जाता था। समय का पता ही नहीं चलता और शाम हो जाती, तब बड़े भैया विद्याधर जी लेने आते और बोलते-तुमको समय का ध्यान नहीं है। रात हो जाने पर माँ भोजन नहीं देगी। शीघ्र चलो ..." इस तरह बचपन से ही विद्याधर समय के पाबंद थे और अपने छोटे भाई-बहिनों को समय पर कार्य करने का पाठ पढ़ाते थे। आत्मानुशासन की प्राप्ति के लिए महान् अनुशासक के चरणों में नमन करता हुआ.... आपका शिष्यानुशिष्य
  16. न ही चलाता पर को काल निष्क्रिय है ना क्रय-विक्रय से परे है वह। अनन्त-काल से काल एक ही स्थान पर आसीन है पर के प्रति उदासीन...! तथापि इस भाँति काल का उपस्थित रहना यहाँ पर प्रत्येक कार्य के लिए अनिवार्य है; परस्पर यह निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध जो रहा! मान-घमण्ड से अछूती माटी पिण्ड से पिण्ड छुड़ाती हुई कुम्भ के रूप में ढलती है कुम्भाकार धरती है धृति के साथ धरती के ऊपर उठ रही है। वैसे, निरन्तर सामान्य रूप से वस्तु की यात्रा चलती रहती है अबाधित अपनी गति के साथ, फिर भी विशेष रूप से विकास के क्रम तब उठते हैं जब मति साथ देती है जो मान से विमुख होती है, और विनाश के क्रम तब जुटते हैं जब रति साथ देती है जो मान में प्रमुख होती है उत्थान-पतन का यही आमुख है। Nor does he make the other move on. - The Time is inactive, indeed! It is beyond the reach of buying and selling. Since time immemorial, the Time Is seated on one and the same place Neutral to everything remote...! Even then In this manner, the presence of Time Here-at Is inevitable for every affair; mutually It represents the relationship of the efficient cause and effect ! Untouched by prestige and pride, the Soil Getting itself rescued from the roundish lump Is moulded into the form of a holy pitcher Assumes the pitcher-shaped appearance, Is rising up above the earth with steadiness. Like that, In an ordinary manner, for ever, The journey of things goes on With its uninterrupted motion Despite it, in special manner, The dimensions of development arise When goes hand in hand with them The intellect, which is opposed to pride, And The phases of destruction confront us When is extended the hand of sensuousness Which is outstanding in exciting pride, This is indeed a prelude to rise and fall.
  17. २२-११-२0१५ भीलवाड़ा (राजः) ज्ञानरश्मि प्रसारक ज्ञानसूर्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण की त्रिकाल वंदना करता हूँ… हे ज्ञानभानु! आज मैं विद्याधर में जिनवाणी सुनने, पढ़ने, चिंतन-मनन करने का संस्कार बचपन से कैसे आया? इस रहस्य का उद्घाटन कर रहा हूँ। इस बारे में आपसे ज्ञान की शिक्षा पाने वाली श्रीमती कनक जी जैन (दिल्ली) हॉल निवासी ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र, अजमेर ने मुझे बताया- माँ के संस्कारों ने बनाया सरस्वती पुत्र ‘‘एक बार मैं परिवार सहित दिल्ली में विराजमान मुनि मल्लिसागर जी महाराज के दर्शन करने गई थी। तब उन्होंने संस्मरण सुनाते हुए कहा- 'विद्याधर जब श्रीमन्ती जी के गर्भ में आया तब से ही श्रीमन्ती प्रतिदिन घर में विराजमान जिनवाणी के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित करती थी और स्वाध्याय किया करती थी और जब मैं स्वाध्याय का वाचन करता था तब वह भी नित्यप्रति स्वाध्याय सुना करती थी। इस कारण विद्याधर में बचपन से ही जिनवाणी सुनने, पढ़ने और सुनाने की रुचि जागृत हो गई थी। इस तरह मल्लिसागर जी के पास जब भी जाते, तो वो संस्मरण सुनाते। उससे हमारे जीवन में बहुत परिवर्तन आया।” इस प्रकार माँ श्रीमन्ती के द्वारा गर्भ में दिए गए संस्कारों ने ऐसे सरस्वती पुत्र को जन्म दिया जो आपसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर, सारे जग के अज्ञान अन्धकार को मिटाने में कारण बन रहा है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हेतु गुरुद्वय के चरणों को नमोस्तु करता हुआ.... आपका शिष्यानुशिष्य
  18. उसके उपयोग में आकृत होता है कुम्भ का आकार। प्रासंगिक-प्राकृत हुआ, ज्ञान ज्ञेयाकार हुआ, और ध्यान ध्येयाकार ! मन का अनुकरण तन भी करता है, कुम्भकार के उभय कर कुम्भाकार हुए, प्राथमिक छुवन हुआ माटी के भीतर अपूर्व पुलकन आत्मीयता का अथ-सा लगा। लो, रह-रह कर तरह-तरह की माटी की मंजुल छवियाँ उभर-उभर कर ऊपर आ रहीं, क्रम-क्रम से तरंग-क्रम से रहस्य के घूँघट में निहित थीं ...जो चिर से! रहस्य की घूँघट का उद्घाटन पुरुषार्थ के हाथ में है रहस्य को सूंघने की कड़ी प्यास उसे ही लगती है जो भोक्ता संवेदन-शील होता है, यह काल का कार्य नहीं है, जिसके निकट-पास करण यानी कर नहीं होता है वह पर का कुछ न करता, न कराता। जिसके पास चरण-चर नहीं होता है वह स्वयं न चलता पद भर भी Into his functional consciousness The figure of the holy pitcher (Kumbha) takes shape. The incidental became the natural, The cognizance merged into the form of the cognizable, The meditation merged into the form of the meditative ! The body too imitates the mind, Both the hands of the pitcher-maker Turned into the pitcher-like shape, The preliminary touch took place An unforeseen thrill, the beginning of intimacy Was perceived within the Soil. Lo, gradually Little by little, in a wave-like serial, Making their appearance in various forms, Sprang up the charming beauties of the Soil Which were hidden behind a veil of mystery ...Since long ! The opening of the veil of mystery Is in the hands of the supreme manhood (puruṣārtha) The stern thirst to smell a secret Pinches only that very experienced one Who is sensitive, It is not an act of the Time, The one, who doesn't possess A hand, that is, an instrument of action Neither acts upon the other, nor does get it Actuated. The one who doesn't possess A traveling foot Neither moves on himself even a step
  19. कुलाल-चक्र यह, वह सान है जो जिस पर जीवन चढ़ कर अनुपम पहलुओं से निखार आता है, पावन जीवन की अब शान का कारण है, हाँ! हाँ!! तुम्हें जो चक्कर आ रहा है उसका कारण कुलाल-चक्र नहीं, वरन् तुम्हारी दृष्टि का अपराध है वह क्योंकि परिधि की ओर देखने से चेतन का पतन होता है। और परम-केन्द्र की ओर देखने से चेतन का जतन होता है। परिधि में भ्रमण होता है जीवन यूँ ही गुजर जाता है, केन्द्र में रमण होता है जीवन सुखी नज़र आता है। और सुनो, यह एक साधारण-सी बात है कि चक्करदार पथ ही, आखिर गगन चूमता अगम्य पर्वत-शिखर तक पथिक को पहुँचाता है बाधा-बिन बेशक!" अब, सहजरूप से सर्व-प्रथम संकल्पित होता है शिल्पी, This potter's wheel is that whet-stone On being placed upon which, the life Gets purified in most excellent aspects, It is an instrument of dignity of holy life. Yes ! yes! the giddiness which you are feeling Is not caused by the potter's wheel, But It is the fault of your vision Because On keeping the eye upon the circumference The spirit gets degraded And On keeping one's view fixed upon the Supreme One The spirit gets salvaged. One roams about within the circumference - The life is whiled away aimlessly, The genuine joy is felt within the Supreme One The life is found to be happy. And, listen, It is an ordinary thing that The winding ways, indeed, Ultimately kiss the skies – Make the pilgrims reach The unattainable mountain-top Undoubtedly, without hindrance !” Now, naturally, at first The Artisan makes a resolve,
  20. ‘‘सृ धातु गति के अर्थ में आती है, सं यानी समीचीन सार यानी सरकना... जो सम्यक् सरकता है वह संसार कहलाता है। काल स्वयं चक्र नहीं है संसार-चक्र का चालक होता है वह यही कारण है कि उपचार से काल को चक्र कहते हैं इसी का यह परिणाम है कि चार गतियों, चौरासी लाख योनियों में चक्कर खाती आ रही हूँ। लो, आपने कुलाल-चक्र पर और रख दी इसे कैसा चक्कर आ रहा है घूम रहा है माथा इसका उतार दो...इसे...तार दो!" फिर से उत्तर के रूप में माटी को समझाती हुई शिल्पी की मुद्रा : “चक्र अनेक-विध हुआ करते हैं संसार का चक्र वह है जो राग-रोष आदि वैभाविक अध्यवसान का कारण है; चक्री का चक्र वह है जो भौतिक जीवन के अवसान का कारण है, परन्तु “ The root Sr' is used in the sense of motion, ‘Sam', that is, ‘proper’ ‘Sāra', that is, to proceed'... That which proceeds properly Is called ‘the world' [ that is, samsāra). The time itself is not the wheel It is the motive-force behind the wheel of the world, That is the reason why In conventional usage, the ‘Time’ is called the ‘Wheel' The outcome of it, indeed, is that I have been whirling round into “The four life-cycles of births and deaths And, the eighty four lacs forms of existence. Lo, you have placed it now Over the potter's wheel too! What a swirling motion, Its head is reeling ! Bring it down...let it...be saved!” Again, in the form of a reply, Awakening the understanding of the Soil, The posture of the Artisan : “ The wheels represent various types ‘ The wheel of the world’ 44b is the one which Is the cause of passions and anger etc. - -The exertions of the ill-sentiments ; due to Ignorance An emperor's disc-weapon is that which Is the cause of destruction’ Of the physical life, But –
  21. संयम-रत धीमान् को ही ‘ओम्’ बना देता है। जहाँ तक शान्त-रस की बात है वह आत्मसात् करने की ही है कम शब्दों में निषेध-मुख से कहूँ सब रसों का अन्त होना ही- शान्त-रस है। यूँ गुनगुनाता रहता सन्तों का भी अन्त:प्रान्त वह। ...धन्य ! रस-राज, रस-पाक शान्त-रस की उपादेयता पर बल देती हुई पूरी होती है इधर माटी की रौंदन-क्रिया भी। और पर्वत-शिखर की भाँति धरती में गड़े लकड़ी की रॉड पर हाथ में दो हाथ की लम्बी लकड़ी ले अपने चक्र को घुमाता है शिल्पी। फिर घूमते चक्र पर लोंदा रखता है माटी का लोंदा भी घूमने लगता है- चक्रवत् तेज-गति से, कि माटी कुछ कहती है शिल्पी को, It makes a self-disciplined prudent person A devotee to ‘Om.’ So far as the Sentiment of Quietism is regarded It is concerned with the sense of assimilation In a few words I should say, in the style of negation, The Sentiment of Quietism is The tranquilization of all the other Sentiments. Thus goes on enchanting The innermost conscience of the sages. ...How blissful ! On the other side, the process of trampling the Soil too Reaches its completion while stressing upon The beneficiality of the Supreme And mellowed Sentiment of Quietism. And Like a mountain-top, Upon the wooden rod - buried into the earth, The Artisan revolves his wheel With a two-cubit long stick in his hand. Then Upon the spinning wheel Puts a lump of the Soil, The lump too starts whirling round – With the same fastness as that of the wheel, when The Soil tells something to the Artisan,
  22. २१-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) आचार और पुरुषार्थ के आदर्श गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे गुरुवर! 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' इस मुहावरे को आपके लाड़ले शिष्य के व्यक्तित्व में चरितार्थ होते हुए देखा जा सकता है। ब्रह्मचारी विद्याधर में बालक अवस्था से ही सहज स्वाभाविक महापुरुषत्व के लक्षण प्रकट होने लगे थे। इस सम्बन्ध में पूर्व पत्रों से आप जान ही गए हैं, किन्तु विद्याधर की अनेक ऐसी विशेषताएँ हैं जिनके बारे में जानकर मन प्रफुल्लित हो उठता है और लगता है कि आपको बताऊँ। विद्याधर बचपन से ही हर चीज को जानने की जिज्ञासा करता था और जो चीज उसके मन को भा जाती तो उसे प्राप्त करने का भाव करता था। इस सम्बन्ध में विद्याधर की छोटी बहिनों ने एक स्मृति भेजी। जो आपको बता रहा हूँ- बालक विद्याधर ने नेता बनने का भाव किया एक बार माँ पड़ोसी के यहाँ पर गई थी, तब १० वर्षीय बालक विद्याधर भी साथ में था। उनके यहाँ पर बहुत सारे चित्रों के फ्रेम लगे हुए थे। उनको देखकर चतुर विद्याधर अपने हाथों को उठाकर अँगुली का इशारा करते हुए धीरे से माँ से बोला-माँ ये किसके फोटो हैं? तब माँ बोली-बेटा ये महापुरुषों के फोटो हैं। ये गाँधी जी हैं, ये विनोबा जी हैं, ये राष्ट्रपति जी हैं, ये भगवान महावीर स्वामी हैं, ये कृष्ण जी हैं। तभी बालक विद्याधर बोला–ये किसका है? माँ बोली-ये नेहरु जी का है। ये देश के सबसे बड़े नेता हैं। तो विद्याधर बोला–माँ मुझे भी नेहरु बोलना, मैं भी एक दिन ऐसा ही बनूंगा। माँ आश्चर्य से बोली–हाँ! हाँ!! फिर माँ ने घर आकर सबको बताया। इस तरह विद्याधर के बचपन से ही बड़े बनने के भाव होते थे। जब भी आस-पास कोई भी देश का बड़ा नेता या संत व्याख्यान देने आते तो विद्याधर सुनने जाते थे और सुनकर आने के बाद घर पर आकर सारी बात बतलाते-वो कैसे हैं? क्या बोला? आदि।" इस तरह आज वो मोक्षमार्ग के बड़े नेता बन गए हैं और उनको सुनने के लिए लाखों लोग आते हैं और देश में चर्चा होती है- आचार्य श्री विद्यासागर जी ने यह कहा। ऐसे शिष्य को पाकर आप कितने आह्लादित हुए थे। आपकी यह अनुभूति आज हम शिष्यों को, ऐसे गुरु को पाकर हो रही है। गुरुद्वय के चरणों में कोटिशः नमन करते हुए.... आपका शिष्यानुशिष्य
  23. यानी, शान्त-रस का संवेदन वह सानन्द-एकान्त में ही हो और तब एकाकी हो संवेदी वह...! रंग और तरंग से रहित सरवर के अन्तरंग से अपने रंगहीन या रंगीन अंग का संगम होना ही संगत है शान्त-रस का यही संग है ...यही अंग! करुणा-रस जीवन का प्राण है घम-घम समीर-धर्मी है। वात्सल्य जीवन का त्राण है धवलिम नीर-धर्मी है किन्तु, यह द्वैत-जगत् की बात हुई, शान्त-रस जीवन का गान है मधुरिम क्षीर-धर्मी है। करुणा-रस वह माना है, कठिनतम पाषाण को भी मोम बना देता है, वात्सल्य का वह बाना है जघनतम नादान को भी सोम बना देता है। किन्तु, यह लौकिक चमत्कार की बात हुई। शान्त-रस का क्या बताना, That is to say, That experiencing of the Sentiment of Quietism Should take place at a pleasant lonely spot And at that time That experience should be all alone...! The confluence of our colourless or coloured limbs With the colourless and waveless Conscience of a pond Is appropriate, indeed It is the only attachment of the Sentiment of Quietism ..It is really its limb! The Sentiment of Compassion is the vital breath of life It's like a sweeping wind with sharp sound. The Sentiment of Affection is the deliverance of life It is like a bright current of water. But, this point Is related to the world of duality, The Sentiment of Quietism is the lyric of life It is melodious like the merits of milk. The Sentiment of Compassion is acknowledged only that – Which transforms into the soft wax – Even the hardest of the stones, The manner of the Sentiment of Affection, Changes even the worst stupids Into the form of a moon! But, it conveys the point Related to worldly wonder. What should be mentioned about the Sentiment of Quietism,
  24. २०-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) जैन जगत् के आलोक, तत्त्व प्रकाशक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को गुणानुरागी का नमोस्तु- -नमोस्तु-नमोस्तु… हे शान्तिपथ के राही गुरुवर! माता-पिता यदि सुसंस्कारित हैं, तो उनकी संतानें भी उनसे अच्छे-अच्छे संस्कार जन्म से ही प्राप्त करती चली जाती हैं। इस प्रसंग में विद्याधर का पुण्य कहूँ या माता-पिता का, जिन्हें ऐसा भाग्यवान् पुत्र प्राप्त हुआ। विद्याधर की ईमानदारी के बारे में बड़े भाई महावीर जी ने बताया- बचपन में सीखा ईमानदारी का पाठ "विद्याधर को जब किसी कार्य के लिए पैसे दिए जाते तो वो कार्य पूरा करने के बाद हिसाब देते थे और बचे हुए पैसे अक्का (माँ) को दे देते थे। जब वह ८-१० वर्ष का हुआ तो अन्ना या अक्का उससे कभी-कभी कुछ छोटा समान बाजार से लाने के लिए भेजते थे, किन्तु वह कभी भी बचे हुए पैसे से अपने लिए कुछ नहीं खरीदता था। शुरु से ही अक्का और अन्ना ने हम लोगों को ईमानदारी सिखाई थी।” इस तरह विद्याधर को बचपन से ही किसी वस्तु से मूर्छा नहीं रही। माता-पिता हर आवश्यकता को खुशी-खुशी पूरी कर दिया करते तो विद्याधर और सभी भाई-बहिनों को कभी भी झूठ का सहारा नहीं लेना पड़ा। मैं भी सत्य स्वभावी आत्मप्राण में रम जाऊँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  25. हलकी-सी मधुरता...फिर क्षण-भंगुरता झलकती है ओस के कणों से न ही प्यास बुझती, न आस बुझता बस श्वास का दीया वह! फिर तुम ही बताओ, वात्सल्य में शान्त-रस का अन्तर्भाव कैसा हो ? माँ की गोद में बालक हो माँ उसे दूध पिला रही हो बालक दूध पीता हुआ ऊपर माँ की ओर निहारता अवश्य, अधरों पर, नयनों में और कपोल-युगलों पर। क्रिया-प्रतिक्रिया की परिस्थिति प्रतिफलन किस रूप में है- परीक्षण चलता रहता है यदि करुणा या कठोरता नयनों में झलकेगी कुछ गम्भीर हो रुदनता की ओर मुड़ेगा वह, अधरों की मन्द मुस्कान से यदि कपोल चंचल स्पन्दित होते हों ठसका लेगा वह! यही एक कारण है, कि प्रायः माँ दूध पिलाते समय- अपनी अंचल में बालक के मुख को छुपा लेती है। A glimpse of sweetness... then The sense of transience reflects. With the dew-drops Neither quenches the thirst, nor the hope - Extinguishes only that lamp of breathings! Then you please tell yourself, How is the Sentiment of Quietism Included into the Sentiment of Affection ? If there be a child into mother's lap If the mother is making him suck her breasts - The child, while sucking the milk, Certainly gazes upwards towards the mother, At her lips, into her eyes And At the pair of her cheeks. The position of action and reaction Is reflected in what form – The observation goes on, If the compassion or harshness - Would peep through her eyes He would turn towards weeping After being somewhat serious, If the cheeks would appear playful and vibrant Due to a faint smile upon her lips He would give out a dash ! It is the only reason that Mostly, the mother, while making the baby suck her milk – Gets the face of the child hidden Under the border of her sādi.
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