०५-०१-२०१६
रोपां (केकड़ी राज)
ज्ञानेन्द्र गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को शत-शत नमन करता हूँ…
हे वात्सल्य रत्नाकर गुरुवर! एक महापुरुष के अन्दर सहज स्वाभाविक असीम गुणों के भण्डार से समय-समय पर गुणरत्न प्रकट होते रहते हैं और उस विराट व्यक्तित्व को चमकाते रहते हैं। विद्याधर में एक तरफ वैराग्य की ऊर्जा वृद्धिंगत हो रही थी तो दूसरी तरफ व्यावहारिक गुण भी अपनी सुगन्धी फैलाते जा रहे थे। परिवार के सदस्यों से उसे गहरा लगाव था, वे प्रत्येक सदस्य का बड़ा ही ख्याल रखते थे। उसकी संवेदनाएँ महापुरुषत्व की आधार शिलाएँ स्थापित कर रही थी। इसका एक छोटा-सा संस्मरण बड़े भाई महावीर जी ने सुनाया वह मैं लिख रहा हूँ-
भ्रातृ-प्रेम
"जब छोटा भाई अनन्तनाथ तीन वर्ष का था तब उसे रीकेट्स नामक रोग हो गया था। जिसमें हाथ-पाँव सूखते चले गए और पेट बड़ा हो गया था। शरीर की हड्डी-हड्डी दिखने लगी थी बहुत इलाज करने के उपरान्त भी रोग ठीक नहीं हुआ तब हम सभी समझ गए कि यह बच नहीं पाएगा। सुन्दर गोरा बदन रोग होने के कारण फीका और विद्रूप लगने लगा था। उसकी यह हालत देखकर घर के सभी लोग दुःखी थे, किन्तु विद्याधर कुछ ज्यादा ही दु:खी था। उस वक्त विद्याधर १३ वर्ष का था। इस दुःख के कारण विद्याधर खेलने नहीं जाता था।
दूर के एक ग्रामीण वैद्य के बारे में पता चला उन्हें लाकर दिखाया गया। उन्होंने दवाई दी और कहा इसे एक साल तक सुबह से १२ बजे तक धूप में बैठाना है, तब ऐसा ही किया गया। इससे अनन्तनाथ के शरीर की चमड़ी काली पड़ गई किन्तु रोग भाग गया और अनन्तनाथ स्वस्थ हो गया। उसके शरीर वर्ण को देखकर विद्याधर दुःखी रहता था और पिताजी को बोलता था-अन्ना अच्छे डॉक्टर को दिखाओ ना। घर पर कोई भी डॉक्टर, वैद्य आता तो उनसे पूछता–मेरा भाई कब ठीक होगा? जल्दी स्वस्थ करो ना। उसकी रुग्ण हालत में विद्याधर और मैं सेवा करते थे। विद्याधर तो कहीं जाता ही नहीं था वैसे भी घर में कोई भी बीमार पड़ता तो विद्याधर सबसे ज्यादा सेवा करता।" इस तरह बचपन का वह भ्रातृ-प्रेम आज असीम स्वरूप में बदलकर जगत् के प्राणियों पर बरस रहा हैं।
उसी प्रेम से स्नपित आपका
शिष्यानुशिष्य