२५-११-२0१५
भीलवाड़ा (राजः)
अन्तहीन इन्द्रियज सुखसम्वेदन से मूर्छातीत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु...
हे गुरुवर! आज मैं पत्र में आपके शिष्य की उस अनोखी वैयावृत्य का वर्णन कर रहा हूँ। जो १२ वर्ष की उम्र में सीखी और अपने गुरु की सल्लेखना के दौरान अनुपम अदभुत वैयावृत्य करके एक आदर्श खड़ा किया था। इस सम्बन्ध में विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया-
नन्हा सल्लेखना सहायक
‘‘विद्याधर के सामने मुनिश्री आदिसागर जी (भोजगाँव) की समाधि बेड़कीहाल गाँव में हुई थी और वहीं पर बाद में मुनिश्री मल्लिसागर जी महाराज की समाधि हुई। तब दोनों बार विद्याधर अपने मित्र मारुति के साथ सल्लेखना देखने गया था। विद्याधर को सल्लेखना के बारे में मुनि महाराजों से काफी ज्ञान प्राप्त हो गया था। सदलगा से ६ कि.मी. दूर बोरगाँव है। वहाँ पर मुनि श्रीनेमिसागर जी महाराज की सल्लेखना चल रही थी। तब विद्याधर छटवीं कक्षा में पढ़ता था। उम्र १२ वर्ष थी। अपने मित्र मारुति के साथ नेमिसागर जी महाराज की वैयावृत्य करने चला गया था। सात दिन वहीं रहा, हर क्रिया में सहयोग दिया। खूब मन लगाकर सेवा की तब नेमिसागर जी महाराज ने उसकी सेवा-सुश्रुषा एवं श्रद्धा-भक्ति-समर्पण देखते हुए आशीर्वाद देते हुए कहा था- ‘‘तुम बड़े होकर बहुत महान् बनोगे, मेरे जैसे अनेकों की समाधि कराओगे।’’ उसका मित्र मारुति सदा हर बात मुझको बताता रहता था।” इस तरह बचपन से ही विद्याधर साधु सेवा में अत्यधिक रुचि लेता था यही कारण है कि आज मेरे गुरु समाधि सम्राट कहलाते हैं। साधु सेवा की भावना मेरी भी बनी रहे। नमोस्तु गुरुवर...
आपका
शिष्यानुशिष्य