२७-११-२०१५
भीलवाड़ा (राजः)
स्वाधीन चैतन्य के अतीन्द्रिय आनंद के मार्ग प्रकाशक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज के पावन चरणों में नमोस्तु करता हूँ…
हे गुरुवर! विद्याधर १२-१३ वर्ष की अवस्था में ज्ञानार्जन का पुरुषार्थ तो करने ही लगा साथ ही अपने छोटे भाई बहिनों को अच्छे संस्कार देने का कर्तव्य निर्वाह भी करता था। इस सम्बन्ध में मुनि श्री योगसागर जी महाराज ने बचपन की कुछ स्मृतियाँ बताईं। जो मैं आपको लिख रहा हूँ-
घर की पाठशाला के बाल गुरु
"जब मैं ४ वर्ष का था और दोनों बहिने ७ एवं १० वर्ष की थीं। तब भैया विद्याधर जी हम छोटे भाई - बहिनों को घर पर णमोकार महामंत्र, तीन कालों के तीर्थंकरों के नाम, विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के नाम, विनतियाँ, बारह भावना आदि सिखाते/याद कराते थे और प्रतिदिन णमोकार मंत्र की माला की जाप करने का उन्होंने नियम भी दिया था और भी कई धर्म की बातें सिखाते रहते थे।” इस तरह विद्याधर बचपन से ही पठन-पाठन कर एक सुयोग्य पुत्र का दायित्व निर्वाह करने लगे थे। यही कारण है कि मोहल्ले पड़ोस के बच्चे हों या मित्रगण हों, सभी के बीच आदर्श की दृष्टि से देखा जाता था। ऐसे कर्तव्यवान् शिष्य को पाकर आप धन्य हुए और आचार्य परमेष्ठी का दायित्व देकर मोक्षमार्ग के कर्तव्यनिष्ठ गुरु बन गए हैं। ऐसे गुरुद्वय के चरणों में नमोस्तु करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य