२६-११-२०१५
भीलवाड़ा (राजः)
बिना कोई आघात के जागृत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सहज-स्वाभाविक वैराग्य को नमोस्तु करता हुआ… हे गुरुवर! जब किसी व्यक्ति में सहज-स्वाभाविक ज्ञान, कला, चातुर्य, साहस आदि गुण प्रकट होने लगते हैं, तो जन सामान्य यही कहता है कि पूर्व सुकृत संस्कार जागृत हो रहे हैं। बालक विद्याधर के ऐसे अनेक प्रसंग उनके ही भाई-बहिनों से सुनने को मिले। इस सम्बन्ध में अग्रज भाई महावीर जी ने बताया-
स्व पुरुषार्थ से बने तैराक
विद्याधर १२-१३ वर्ष का हुआ तो बावड़ी में तैरना सीखने के लिए सूखी तुम्बी या सूखा कद्दू लेकर जाते और पेट में बाँधकर बाबड़ी में कूदते। एक दिन उसके मित्रों ने बताया कि विद्याधर को तैरना आ गया। फिर अपने मित्रों को भी तैरना सिखा दिया।’’ इसी प्रकार तैरने के सम्बन्ध में विद्याधर की बहिनें शान्ता एवं सुवर्णा जी ने लिखकर दिया-
पानी में तैरते हुए करते सिद्ध का ध्यान
''भैया विद्याधर जी को हम लोगों ने बाबड़ी में ऊपर से छलाँग लगाते हुए सुना| 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' फिर बहुत देर तक पानी के अन्दर रहते थे और जब ऊपर निकलते तो चित्त लेटकर पद्मासन लगाकर ध्यान मुद्रा में तैरते रहते थे। बहुत देर तक ऐसा ध्यान लगाते थे। उनकी हर क्रिया अलौकिक लगती थी।" इस तरह विद्याधर जी बचपन से ही लौकिक कार्य करते हुए भी उसमें धर्म-ज्ञान-साधना कर लिया करते थे। यह उनका महापुरुषत्व का द्योतन है। ऐसे महापुरुषत्व को नमस्कार करता हुआ।
आपका
शिष्यानुशिष्य