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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. ०२-०३–२०१६ घाटोल (बासवाड़ा-राजः) ध्वजारोहण (पंचकल्याणक महोत्सव) वेदपुरुष के वास्तविक प्राकृतिक स्वरूप के सच्चे दिग्दर्शक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे गुरुवर! जब आप दादिया ग्राम में विराजमान थे। तब विद्याधर जी ग्राम के नवयुवकों के आँखों के तारे बन गए थे। इसका कारण दादिया के पारस झाँझरी सुपुत्र हरकचंद जी झाँझरी ने बताया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ। भजन गायक ब्रह्मचारी विद्याधर “जब गुरु ज्ञानसागर जी महाराज हमारे यहाँ दादिया ग्राम में प्रवास पर थे तब ज्ञानसागर जी महाराज आहार के पश्चात् धूप में थोड़ी देर बैठते थे। उस वक्त समाज के लोग ब्रह्मचारी विद्याधर जी से भजन बोलने के लिए कहते थे किन्तु विद्याधर जी मौन बैठे रहते थे। फिर गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की स्वीकृति पाकर भजन बोलते थे। बड़ी ही मीठी आवाज में वे भजन गाते थे। रोज नया भजन सुनाते थे इस कारण बालक युवा - महिलाएँ सब लोग गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के आहार के पश्चात् मंदिर जी में एकत्रित हो जाते थे और भजन सुनते थे। एक दिन उन्होंने बड़ा ही सुन्दर भजन सुनाया। मैंने सुना तो उसे याद कर लिया और आज तक अपनी डायरी में सुरक्षित रखा हुआ हूँ, वह भजन निम्न प्रकार है गुरु दर्शन महिमा (तर्ज-सावन का महीना पवन करे शोर...) पावन हुए नयना दरश कर तोर। हियरा रे हरसे ऐसे जैसे लख के चन्द्र-चकोर॥ कुगुरु कुदेव ध्याके बहुत दुःख उठाया। छवि वीतराग ने तो शान्त रस पिलाया॥ शान्त सुधारस प्याला लगा के एक ठौर। मनुआ रे झूम उठा रे होकर आनंद विभोर॥ पावन हुए...॥ सकल परिग्रह तज के बने हो विरागी। ममता को त्याग हुए आतम अनुरागी॥ धार दिगम्बर बाना चले हो शिव की ओर। धन्य हुआ रे तुमको प्रभु शीश नवा कर जोर॥ पावन हुए...॥ कर केशलोंच तन से ममत्व हटाते। वैराग्यता के भाव उर में जगाते॥ अस्थिर है जग जाना देखा है कर गोर। दु:ख का रे यो सागर जिसका है न कोई छोर॥ पावन हुए...॥ महिमा को सुनकर तेरी शरण अब आया। पुण्य उदय जब आया तब है दर्श पाया॥ पाकर तेरा शरणा जंचे ना कोई और। बाँधी रे मैंने तुमसे अब अपनी जीवन डोर॥ पावन हुए...॥ कर्म लुटेरे नाना नाच हैं नचाते। भव वन में निशदिन हैं ये भटकाते॥ कर्मों के आगे हाँ चलता है जब जोर। हटती रे तव कृपा से मिथ्यात्व घटा घनघोर॥ पावन हुए...॥ लागी लगन मोरी तुमसे मुनीश्वर। लगाओगे निश्चय तुम्ही मुक्ति के पथ पर॥ गायन कर में महिमा हे गुरु-वर तोर। बाज उठी रे वीणा प्रभु नाच उठा मन मोर॥ पावन हुए...॥ इस तरह सुस्वर नामकर्मोदयी ब्रह्मचारी विद्याधर जी की वाणी आबालवृद्ध सभी जन को कर्णप्रिय लगती थी। पूर्व का देव शास्त्र-गुरु उपासक, भजन गायककार, गीतकार, आज ऐसा साहित्यकार, महामनीषी, महाकवि बन बैठा है कि अनेकों गीतकार भजन गायककार, साहित्य मनीषीयों की रचना का आधार बन पड़ा है। ऐसे महानायक को कोटि-कोटि प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. 0१-७३-२०१६ घाटोल (बासवाड़ा राजः) सर्वत्र अप्रमत्त भाव से विचरण करने वाले सत्ता मात्र के प्रति अहिंसक आचरण के पालनकर्ता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पवित्र चरणों में सदा नतमस्तक हूँ...। हे गुरुवर! आपने मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास के पश्चात् विहार किया और पुनः दूसरे दिन वापस आ गए। समाज में हर्ष की लहर व्याप्त हो गई थी क्योंकि ज्ञानी गुरु को कौन छोड़ना चाहेगा और आप जैसे ज्ञानी गुरु को पाकर कौन हर्षित नहीं होगा? किन्तु निर्बन्ध को कौन बाँध सका है। आपने कुछ दिन बाद पुनः विहार कर दिया और १२-०२-१९६८ को दादिया ग्राम पहुँचे थे। भव्य स्वागत हुआ। आपके साथ में क्षुल्लक श्री सन्मतिसागर जी महाराज, क्षुल्लक श्री सिद्धसागर जी महाराज एवं क्षुल्लक श्री शंभूसागर जी महाराज तथा त्यागीगण भी थे। यह समाचार जैन गजट (पाक्षिक अखबार) २२ फरवरी १९६८ को प्रकाशित हुआ। दादिया के श्रीमान् हरखचंद झाँझरी ने मुझे १९९४ में दीपावली के दिन एक पत्र लिखकर दिया था। उसमें विद्याधर की दिनचर्या और साधना के बारे में कुछ इस तरह से लिखा था। वह मैं आपके बहाने जग को बताना चाह रहा हूँ, क्योंकि आप तो स्वयं उसके साक्षी हैं ब्र० विद्याधर की आदर्श दिनचर्या "मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास (१९६७) पूर्ण करने के बाद गुरु महाराज ज्ञानसागर जी संघ सहित फरवरी माह में दादिया ग्राम पधारे थे। हमारे ग्राम में एक दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मंदिर जी है। जिसमें तीन वेदियाँ हैं। गाँव में १५ घर दिगम्बर जैनियों के हैं, जिसमें जैनियों की संख्या १४0 है और ग्राम की जनसंख्या ४५00 है। गुरु महाराज के संघ में ब्रह्मचारी विद्याधर जी भी थे। ब्रह्मचारी विद्याधर जी की पूरे दिन २४ घण्टे इस प्रकार रोजाना की दिनचर्या करते थे - सुबह ४ बजे से सामायिक करना, ५:३० बजे तक अपनी धर्म क्रियायें करके फिर शौच को जाना, उसके बाद नहा-धोकर स्नान करके भगवान का अभिषेक व अष्टद्रव्य से पूजन करना। ८ बजे से गुरु महाराज ज्ञानसागर जी महाराज को रात का अध्ययन पठन किया हुआ मुखाग्र सुनाना। उसके बाद जो गुरु महाराज अध्ययन कराते उसको पढ़ना-मनन करना। १० बजे गुरु महाराज ज्ञानसागर जी की शुद्धि कराना और उनके आहार में जाना। आहार शोध करके देना, उसके बाद श्रावकों के द्वारा उनका निमंत्रण किया जाता तब उनके यहाँ पर ही भोजन करना।अंतराय होने पर भोजन-पानी छोड़ देना, पूरे दिन भर कुछ नहीं लेना।एक ही टेम(समय) भोजन करना, पूरा दिन पढ़ना-अध्ययन करना, दोपहर एवं शाम को सामायिक करना। शाम की सामायिक डेढ़ से दो घण्टे तक करना। इसके बाद रात्रि ९-१० बजे तक भजन मंडली के साथ भजन बोलना एवं खुद के बनाए हुए नित्य नये भजन बोलना। १० बजे ठीक टेम भजन बंद करके रात को १२ बजे तक अध्ययन मनन करना। २४घण्टे में मात्र ३-४घण्टे ही निद्रा लेना। फिर सुबह ४ बजे उठना। ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने दूसरा केशलोंच दादिया में किया था। बाल काले, घने, घुघराले और मजबूत थे। बड़ी कठोरता से केशलोंच किया जिससे सिर में गर्दन के पीछे चमड़ी टूट गई व लहू आ गया था। बिना कोई प्रकार की वाणी (राख) लगाये ही केशलोंच किया था। जब गुरु महाराज ने माथा को लोंच किया हुआ देखा और हम लोगों ने बता दिया था। तो गुरु महाराज बोले-ब्रह्मचारी जी आपने ऐसा क्यों किया ? भस्मी वगैरह तो लेकर करते। यह लहू तो नहीं आता। तब विद्याधर जी बोले-एक बार ऐसा करके देखना था। गुरु महाराज ज्ञानसागर जी महाराज का यह सिद्धान्त उत्कृष्ट था कि वे छोटे-छोटे गाँव में धर्म की प्रभावना होती रहे इसलिए वो छोटे-छोटे गाँव में विहार करते थे। दादिया से विहार करके २ कि.मी. चलकर छोटा लाम्बा गए। वहाँ जैनियों के ३० घर और एक मंदिर है और गाँव की आबादी ४५०० है। वहाँ से ५ कि.मी चलकर मण्डावरिया ग्राम गए, वहाँ ४ घर जैनियों के हैं, १ मंदिर है और गाँव की आबादी ८०० की है। वहाँ से ८ कि.मी. चलकर तिहारी गए। वहाँ १ दिगम्बर जैन घर है, १ दिगम्बर जैन मंदिर है, उस मंदिर में बँवरी बनी हुई थी, किन्तु भगवान करीबन ४५ साल से विराजमान नहीं थे, पीछे उच्चासन पर विराजमान किए गए। गाँव की कुल आबादी ४००० की है। वहाँ से ८ कि.मी. चलकर मोराझड़ी ग्राम गए, वहाँ ७ दिगम्बर जैन घर हैं और गाँव की आबादी १५०० की है, यहाँ पर १ दिगम्बर जैन मंदिर है, जिसका नाम अतिशय क्षेत्र पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर है। जो दो मंजिला है। मोराझड़ी से ५ कि.मी. चलकर चानसिण गए वहाँ दिगम्बर जैन घर हैं, १ मंदिर २ मंजिला का है। गाँव की आबादी ७०० की है। वहाँ से ५ कि.मी. चलकर सनोद गए, वहाँ ११ दिगम्बर जैनियों के घर हैं। एक बड़ा मंदिर है। सनोद से मैं दादिया घर वापस आ गया। बाद में पता चलने पर अराई ग्राम गया। अराई किशनगढ़ रियासत में है। अराई ग्राम में भूगर्भ से निकला हुआ सहस्रकूट चैत्यालय है। जो बहुत पुराना है। इसके साथ और भी प्रतिमाएँ निकलीं थीं। यहाँ जैनियों के पहले बहुत घर होंगे मगर उस वक्त जब प्रतिमा निकली थी तब नहीं थे। रियासत राजाजी ने प्रतिमाजी को किसी भी आस-पास के जैनियों को नहीं ले जाने दी और हुकुम दिया कि यहाँ मंदिर बनाकर विराजमान करके, यहीं पर सेवा-पूजा कर सकते हो तो करो वरना हमारे ही ठिये के मुजीम करेंगे। जिस पर ८ गाँव के जैनी भाईयों ने १ दिगम्बर जैन मंदिर बनाया और आम बाजार में १५ दुकानें बनाई ताकि उसके भाड़े से भगवान की सेवा-पूजा हो सके। मंदिर बहुत बड़ा है, उसमें बहरा (तलघर) भी बनवाया गया है, जिसमें भी प्रतिमा जी विराजमान की गई हैं। यहाँ पर माहेश्वरी के २५ घर हैं। गाँव की आबादी ६००० है। यहाँ पर उच्छव (उत्सव) मनाया जाता है। यह उच्छव ८ गाँव वाले अभी भी आसौज वदी तीज को मनाते हैं। सवारी निकाली जाती है। खूब हरष उच्छाव होता है। मंदिर की पूजा-प्रक्षाल की व्यवस्था ८ गाँव से सालाना उगाई करके की जाती है। प्रबन्ध कारण कमेटी का चुनाव होकर सुचारु रूप से कार्य होता है। इस अराई ग्राम में गुरु महाराज २ दिन रहे फिर यहाँ से ८ कि.मी. चलकर सिरोंज गए। वहाँ दिगम्बर जैनियों के ८ घर हैं, १ दिगम्बर जैन मंदिर है, गाँव की जनसंख्या २००० है। यहाँ से ९ कि.मी. चलकर रहलाणा गए, यहाँ पर दिगम्बर जैनियों के १० घर हैं। एक बड़ा मंदिर है, जिसमें दो बँवरियाँ हैं, गाँव की आबादी २५०० है। ५ कि.मी. पर रहसुली ग्रामगए, यहाँ पर १५ दिगम्बर जैनियों के घर हैं, १ मंदिर है। गाँव की आबादी १७०० की है। यहाँ से दूदू गए ७ कि.मी. पर है, यहाँ पर २० घर दिगम्बर जैनियों के हैं, १ मंदिर है। १ दिगम्बर जैन नसियाँ है, गाँव की आबादी ६००० है। यह जयपुर रोड पर आम सड़क के पास हैं। दूद् से मैं घर वापस आ गया। उधर से गुरु महाराज नसीराबाद गए थे।" इस तरह आपश्री के साथ ब्रह्मचारी विद्याधर जी पैदल विहार कर उत्तर भारत की संस्कृति और भाषाज्ञान को बढ़ा रहे थे। आप श्री की दूरदृष्टि को नमस्कार करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. २९-०२-२०१६ भूगड़ा (बासवाड़ा राजः) मोक्षकल्याणक महोत्सव सदेह में विदेह के भोक्ता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को मेरे कोटि-कोटि वंदन... हे गुरुवर! आज मैं आपको वह घटना याद करा रहा हूँ, जिससे आप कुछ विचलित से हुए थे किन्तु विद्याधर जी के जवाब से आपके हर्षाश्रु आ गए थे जिसे आप सहजता से छिपा दिए थे और रातभर आशीर्वाद देते रहे होंगे तो लाड़ले ब्रह्मचारी सुबह हँसते हुए मिले थे, जिसको किशनगढ़ के वो लोग आज तक नहीं भूले। जो उसके साक्षी थे। इस सम्बन्ध में शान्तिलाल गोधा जी (आवड़ा वाले) मदनगंज-किशनगढ़ से लिखते हैं परीषहजयी साहसी विद्याधर ‘‘सन् १९६७ मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास के दौरान एक दिन रात्रि में ब्रह्मचारी विद्याधर जी को बिच्छू ने काट लिया। तब ज्ञानसागर जी महाराज ने समाज के व्यक्तियों को शीघ्र उपचार करने के लिए कहा। तत्काल एक वैद्य को बुलाया गया। तब विद्याधर जी ने उपचार के लिए मना कर दिया। समाज के सारे लोगों की चिन्ता बढ़ गई। उनकी तकलीफ को देख सभी उन्हें मनाते रहे। प्रमुख लोगों ने पूछा-आप मना क्यों कर रहे हो? तो ब्रह्मचारी विद्याधर जी बोले- ‘मुझे मुनि बनना है तब कैसे सहन करूँगा ?' और बिना उपचार के ही चटाई पर लेट गए, पीड़ा को सहन करते रहे। हम सभी लोग अन्यमनस्क हो, तरह-तरह की शंकाएँ लेकर गुरुजी के पास गए तो सुनकर उनके मुख पर गर्वोन्मुक्त मन्द मुस्कान फैल गई और फिर हम लोग घर वापस चले गए। दूसरे दिन सुबह जब समाज के लोग पहुँचे। तब ज्ञानसागर जी महाराज को सारी बात बतलाई। तो ज्ञानसागर जी महाराज ने विद्याधर जी को बुलवाया और पूछा-‘स्वास्थ्य कैसा है?' तो विद्याधर जी हँसते हुए बोले- ‘आपके आशीर्वाद से बिल्कुल ठीक हूँ। यह सुनकर गुरु महाराज प्रसन्न हो गए और हम सभी विद्याधर जी की ऐसी उत्कृष्ट साधना देखकर हतप्रभ रह गए।'' इस तरह विद्याधर जी मुनि बनने की उत्कट भावना लेकर साधना में लीन थे। जिससे उनकी साहस एवं सहनशीलता का परिचय मिलता है। ऐसे श्रेष्ठ साधक ब्रह्मचारी को पाकर आप भी गौरवान्वित हुए होंगे। आपके गौरव को प्रणाम करता हूँ। मुझमें भी ऐसी सहन शक्ति प्रगट हो, इस भावना के साथ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. २८-०२-२०१६ भूगड़ा (बासवाड़ा राजः) ज्ञानकल्याणक महोत्सव ज्ञानालोक प्रभा के प्रभाकर गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नित्य नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे गुरुवर! जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने प्रथम केशलोंच किया था, तब आपने जो बात कही थी, वह बात आज तक मेधावी मेरे गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज को याद है। उन्होंने ०६-०४-१९९८ बीना बारह अतिशय तीर्थक्षेत्र पर मूलाचार की कक्षा में प्रसंगवश सुनाई। जो मुनि श्री निर्वेगसागर जी महाराज ने मुझ तक पहुँचाई, वह आपको बता रहा हूँ- मोक्षमार्ग की दृढ़ता "ब्रह्मचारी विद्याधर, ज्ञानसागर जी गुरु महाराज के सामने किशनगढ़ में प्रथम केशलोंच खटखट (जल्दी-जल्दी) कर रहे थे। तो खून निकलने लगा। वहीं पास में क्षुल्लक आदिसागर जी बैठे थे। उन्होंने गुरुवर ज्ञानसागर जी से कहा-ब्रह्मचारी जी के सिर से खून निकल रहा है, तो ज्ञानसागर जी महाराज ने शान्त रहने के लिए इशारा किया। क्षुल्लक जी ब्रह्मचारी विद्याधर जी से बोले कैंची ले आयें क्या? तब विद्याधर जी ने इशारे से मना किया। यह सब ज्ञानसागर जी महाराज देख सुन रहे थे, तब उन्होंने क्षुल्लक जी से कहा- ‘मोक्षमार्ग में ऐसी दृढ़ता होनी चाहिए। इस तरह आपके शिष्य अनुत्तर योगी आचार्यश्री विद्यासागर जी वीतरागमयं दृढ़ता से मोक्षमार्ग पर अप्रमत्त बढ़ रहे हैं और अनेकों भव्य मुमुक्षुओं को मोक्षमार्ग पर बढ़ा रहे हैं। उन भव्य मुमुक्षुओं के चरणों में नमोस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. २७-0२-२०१६ भूगड़ा (बासवाड़ा राजः) तपकल्याणक महोत्सव चारित्र सौरभ के प्रवाही गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज! मेरे कोटि-कोटि नमन स्वीकारें... हे गुरुवर! आज मैं आपको वह दिन याद करा रहा हूँ जब भोले-भाले ब्रह्मचारी विद्याधर जी की बात सुनकर श्रावक समूह के साथ आपश्री अत्यधिक मुस्कुरा उठे थे। इस सम्बन्ध में मुनि निर्वेगसागर जी महाराज ने सन् १९९७ नेमावर चातुर्मास की स्वाध्याय कक्षा में आचार्यश्री के मुख से सुना संस्मरण लिख भेजा वह मैं आप तक प्रेषित कर रहा हूँ। ब्रः विद्याधर जी ने बताया सवारी त्याग का मतलब "जब विद्याधर किशनगढ़ में गुरु महाराज ज्ञानसागर जी के पास आया और सवारी का त्याग कर दिया। एक दिन एक श्रावक ने विद्याधर से कहा-त्यागी जी हमारे यहाँ भोजन को चलो, तो विद्याधर उनके साथ ताँगे पर बैठकर चला गया। ४-५ कि.मी. दूर घर था। वापस आया तो गुरु महाराज के पास कुछ श्रावक बैठे हुए थे, उन्होंने देखा कि विद्याधर जी किसके साथ आए और तब उन श्रावकों ने गुरु महाराज ज्ञानसागर जी से पूछा- यह कैसा सवारी का त्याग ये तो ताँगे पर बैठकर आहार लेने गए और वापस आए। तो बीच में विद्याधर बोल पड़े क्या ताँगा भी सवारी में आता है ? यह तो मुझे ज्ञात नहीं था। मेरा भाव सवारी त्याग करने का यह था कि आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। विद्याधर की इस सहजता, सरलता को देखकर ज्ञानसागर जी महाराज और श्रावक लोग मुस्कुराने लगे।" इस तरह विद्याधर की सहजता, सरलता और भोलापन आपको भा गया था। उस सहज, सरल भावों को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. २६-0२-२०१६ भूगड़ा (बासवाड़ा राज०) जन्मकल्याणक महोत्सव चलते फिरते तीर्थ गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में भावों की विशुद्ध पूर्वक प्रणाम करता हूँ... हे गुरुवर! किशनगढ़ चातुर्मास की एक विशेष बात आपको याद होगी कि जब विद्याधर को आपने तीर्थयात्रा जाने की बात कही थी किन्तु उन्होंने मनाकर दिया था। इस सम्बन्ध में श्रीमती कनक जैन (दिल्ली) हाल निवासी ज्ञानोदय, अजमेर ने बताया-जब हम किशनगढ़ गुरु महाराज के दर्शन करने के लिए आए तब यह बात पता चली, वही बात मैं आपको लिख रहा हूँ- ज्ञानतीर्थ की वंदना का संकल्प “सन् १९६७ में किशनगढ़ के कुछ सज्जनों ने ब्रह्मचारी विद्याधर को निवेदन किया कि यात्रा के लिए बस जा रही है आप भी चलिए तीर्थ यात्रा हो जावेगी, तब ब्रह्मचारी जी ने मना कर दिया, बोले-मुझे बहुत पढ़ना है। तो वे सज्जन आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के पास आए और बोले-गुरु महाराज हम लोग यात्रा पर जा रहे हैं, विद्याधर जी को चलने का निवेदन किया तो वे मना कर रहे हैं, तब गुरुवर ज्ञानसागर जी बोले-विद्याधर! तीर्थ यात्रा पर चले जाओ, मना क्यों कर रहे हो ? तब विद्याधर बोले-महाराज! मैंने आपके चरणों में वाहन का त्याग कर दिया है और मुझे ज्ञान तीर्थ की यात्रा करनी है, जो मैं कर रहा हूँ। आपके चरणों को छोड़कर मुझे कहीं नहीं जाना है।" इस तरह विद्याधर एक सच्चे अन्तर्यात्री थे, जो ज्ञानरथ पर सवार होकर गुरु के सम्यग्ज्ञान तीर्थ की वन्दना करने निकल पड़े थे। ऐसे सम्यग्ज्ञान तीर्थ की मैं वन्दना करता हूँ। अपने गुरु के रत्नत्रय तीर्थ की मैं सदा वन्दना करता रहूँ इस भावना के साथ.... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. २५-०२-२०१६ भूगड़ा (बासवाड़ा राजः) गर्भकल्याणक महोत्सव निरन्तर तप श्रम से श्रांत देह से परमत्व में विश्रांत करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तपोपूत चरणकमलों की वंदना करता हूँ... हे गुरुवर! ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने आपके संक्षिप्त प्रश्न का बहुत बड़ा उत्तर दिया या यूँ कहूँ कि आपकी छोटी सी परीक्षा में शत-प्रतिशत उत्तीर्ण होकर विद्याधर जी आपके कृपापात्र बने। तब ब्रह्मचारी विद्याधर की सुन्दर देहयष्टी देखकर लोग आकर्षित होने लगे और उनकी हर क्रिया को बड़े ही रुचि से देखने लगे। उस समय के लोगों ने मुझे अपनी-अपनी अनुभूतियाँ लिखकर भेजीं। वो मैं आपको बता रहा हूँ। मदनगंज-किशनगढ़ के प्राणेशकुमार बज जी ने लिखा- बच्चा महाराज ‘‘सन् १९६७ में मुनि ज्ञानसागर जी महाराज हमारे मदनगंज-किशनगढ़ में ग्रीष्मकाल के प्रवास में थे। तब ब्रह्मचारी विद्याधर जी सदलगा ग्राम जिला-बेलगाँव (कर्नाटक) से गुरुजी के पास आये थे। तब वो दिनभर पढ़ा करते थे। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने उनके लिए विद्वान् लगवा रखे थे। उस समय हमारी उम्र १७-१८ वर्ष की थी। हम अपने मित्रों के साथ ब्रह्मचारी जी को देखने जाया करते थे। वे गोरे-चिट्ट-वदन एवं काले धुंघराले बालों से आकर्षक सुन्दर होने के कारण हम युवा उन्हें बच्चा महाराज कहकर बुलाते थे। तो वह हँस देते थे किन्तु कहते कुछ भी नहीं थे।" इसी प्रकार रमेशचन्द्र गंगवाल जी मदनगंज-किशनगढ़ ने ब्रह्मचारी जी की दिनचर्या के बारे में बतलाया स्वाभिमानी ब्रह्मचारी विद्याधर “जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी मुनिश्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास आये थे तब हम उस समय १२-१३ वर्ष के थे। ज्ञानसागर जी महाराज का संघ श्री चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मंदिर मदनगंज में ठहरा हुआ था। उनके साथ में क्षुल्लक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक सुखसागर जी भी थे। तब हमने देखा ज्ञानसागर जी महाराज ब्रह्मचारी विद्याधर जी को धर्मग्रन्थ पढ़ाते रहते थे और डॉ. फैयाज अली किशनगढ़ के विद्याधर जी को अंग्रेजी शिक्षा देते थे। विद्याधर जी सुबह अभिषेक-पूजा करते थे, उसके बाद ज्ञानसागर जी महाराज से पढ़ते थे और फिर ज्ञानसागर जी महाराज को आहार कराने जाते थे। फिर स्वयं आहार करने जाते थे, किन्तु बिना बुलाये किसी के भी घर भोजन करने नहीं जाते थे। भोजन के पश्चात् सामायिक करते थे और फिर सामायिक के बाद में पढ़ा करते थे। शाम को भी सामायिक करते थे। फिर रात्रि में गुरु जी की वैयावृत्य करते थे। वो किसी से भी सांसारिक चर्चा नहीं करते थे। एकान्त में रहकर सदा पढ़ते रहते थे। जब कभी भी हम बच्चे उनको देखते और वो हमको देखते तो वो मुस्कुरा देते थे। हमने उनको एक दिन केशलोंच करते देखा। बड़े-बड़े धुंघराले बाल वो जोर-जोर से खींच रहे थे खून बह रहा था। केशलोंच के बाद उनको देखकर हमें बहुत रोना आया। बड़े सुन्दर बाल उखाड़कर अलग कर दिए थे।" इसी प्रसंग में दीपचंद छाबड़ा जी (नांदसी वाले) जयपुर ने बताया- सरस्वती को समर्पित विद्याधर “मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में ब्रह्मचारी विद्याधर जी पं. श्री महेन्द्र कुमार जी पाटनी शास्त्री जी से संस्कृत एवं हिन्दी भाषा का ज्ञानार्जन करते थे। पण्डित जी से उन्होंने 'कातंत्ररूपमाला (संस्कृत व्याकरण), धनञ्जय नाममाला (शब्द कोश) एवं श्रुतबोध (छंद रचना)' इन तीन संस्कृत ग्रन्थों को पढ़ा था। जितना वो पढ़ते थे उतना वो याद कर लेते थे और पण्डित जी को सुनाते थे।" इसी प्रकार मदनगंज-किशनगढ़ के शान्तिलाल गोधा जी (आवड़ा वाले) ने लिखा- सिर की चोटी बाँधकर अध्ययन करते विद्याधर "१९६७ मदनगंज-किशनगढ़ के दिगम्बर जैन चन्द्रप्रभु मंदिर में ज्ञानसागर जी महाराज का चातुर्मास चल रहा था। तब कई बार मुनि ज्ञानसागर जी महाराज अजमेर के कजोड़ीमल जी अजमेरा से पूछते थे कि ब्रह्मचारी विद्याधर पढ़ाई भी करता है या नहीं, तब कजोड़ीमल जी उनकी परीक्षा करते थे। रात्रि में कई बार कजोड़ीमल जी छिप-छिप करके उनको देखा करते थे। ८ बजे से ११-१२ बजे तक वो पढ़ते रहते थे। एक दिन विद्याधर अपनी सिर की चोटी को एक रस्सी से बाँधकर छत के कड़े से रस्सी को बाँधे हुए थे। दूसरे दिन हम लोगों ने उनसे पूछा-भैयाजी आपने ऐसा क्यों किया था? तो वो बोले नींद से बचने के लिए। तब हम लोगों ने कहा कि आप दिन में पढ़ लिया करो ना... तो बोले-गुरुजी ने जो पढ़ाया उसे अगले दिन उन्हें सुनाना पढ़ता है इसलिए पूरा याद करके ही विश्राम करता हूँ।" इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूर्णतः ज्ञान पुरुषार्थ में निरत हो गए। एक सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी की तरह उनकी दिनचर्या समयबद्ध चलने लगी थी, क्योंकि लौकिक ज्ञान लेने वालों को वर्ष में दो बार ही परीक्षा देना होती है, किन्तु पारलौकिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए हर रोज परीक्षा देना होती थी। जिसके लिए विद्याधर जी सदा सतर्क और जागरुक रहे। गुरु-शिष्य के समान जाग्रति प्राप्त करने के लिए नमोस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. २००२-२०१६ कामलिया (बासवाड़ा राजः) देहातीत ऐश्वर्य को प्राप्त करने के पुरुषार्थो गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में कोटि-कोटि वन्दन.... हे गुरुदेव! ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने कितने और पत्र लिखे ज्ञात नहीं किन्तु अग्रज भाई महावीर जी ने बताया कि कई पत्र नष्ट हो चुके हैं। एक और अन्तर्देशीय पत्र २१-११-१९६७ को सदलगा के मित्र मारुति को लिखा। जिसको मारुति जी ने अपने संग्रह में सम्हालकर रखा, इस पत्र की कॉपी महावीर जी ने प्राप्त कर हिन्दी अनुवाद करके मुझे दी, उसको आपको प्रेषित कर रहा हूँ जिसे पढ़कर गदगद् हो उठेंगे आप, ब्रह्मचारी विद्याधर के उच्च विचारों को देखकर अकलंक-निकलंक को आदर्श मानकर लिखा पत्र श्री वीतरागाय नमः दिनाँक-२१-११-६७ किशनगढ़ प्रिय मित्र मारुति भरमा मडीवाल यहाँ से १०८ ज्ञानसागर महाराज जी का अनेक आशीर्वाद और विद्याधर का सप्रेम वंदन!... आपका पत्र पहुँच गया इसलिए मेरे मन में प्रतिक्षण आपके बारे में बहुत हर्ष हो गया है, लेकिन यह संयोग कब होगा पता नहीं? जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी तुम संसार त्यागकर यहाँ आ जाओ क्योंकि अब आगे तुम्हें ज्ञान हो गया, तुम संसार में नहीं फँसे हो। ऐसे ज्ञान से सहित होकर निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा मिलना असंभव है, इस भेष से जो मिलता है वह अपन दोनों मिलकर ले लेंगे और धर्म की प्रभावना करेंगे। अपन जितनी कोशिश करेंगे, उतनी मंजिल पास होगी। जिस प्रकार अकलंक-निकलंक दोनों ही ने धर्म का बोध पाकर सब जीवों के लिए इस संसार की निःसारता के बारे में बता दिया, उसी प्रकार की भावना को रखकर अपन दोनों यथाख्यात चारित्र को प्राप्त करेंगे। इन जैसा महाराज का जैसे उत्कृष्ट चारित्र है और किसी का नहीं। मैंने लगभग डेढ़ माह से शक्कर और नमक दोनों का त्याग किया है। मेरा दिन-प्रतिदिन वैराग्य बढ़ता जा रहा है, इसमें तुम भी यहाँ आकर मेरे साथ ‘रत्नकरण्डकश्रावकाचार' की कारिका याद करके वैराग्य भावना को और ज्यादा बढ़ाओ। ये मेरी विनती है। मेरे और तुम्हारे सम्बन्ध बहुत दूर से-सदियों से चले आये हैं ऐसा मुझे लगता है। तुम मुझे भेजकर खुद संसार में फँसे हुए हो, यानि डेढ़ वर्ष हो गया, मुझे भेजकर अभी तक तुम क्या कर रहे हो? बस करो, अब छोड़ दो और आत्मकल्याण में लीन हो जाओ और ये विचार तिलतुषमात्र भी नहीं करना। मेरा ये कहना भले ही तुम्हें अभी। बुरा लग जाये, लेकिन इसका फल यहाँ आने के बाद तुम्हें पता चलेगा। हे मारुति! संसार में कोई अर्थ नहीं है, मेरा सौभाग्य है कि मैं तुम्हें समझा रहा हूँ। ये इस भाग्य की चर्चा उसी प्रकार आनंद देगी जैसे पहले कलबसदि (जैन मंदिर) में आनंद आता था। ये सौभाग्य मुझे कब। मिलेगा ये ही सोचते हुए तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ। यहाँ पर आकर आप अपना और दूसरों का कल्याण करें, कृपा करके दूसरों को-घर में किसी को मत बताना, अभी बहुत समय है दीक्षा में उसी समय बताना लेकिन मैंने तुम्हें पहले-अभी बता दिया है। -विद्याधर ब्रह्मचारी इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने अपने मित्र मारुति को आध्यात्मिक पत्र लिखकर संसार की निस्सारता का और मनुष्य जन्म की दुर्लभता का बोध कराया। आत्मीयता से भरा यह पत्र पढ़कर धर्मोत्साह प्रगट होता है। इस पत्र से ब्रह्मचारी विद्याधर जी की अलौकिक उपकारता झाँक रही है। साथ ही विद्याधर का शास्त्रीय ज्ञान भी अपनी साक्षी दे रहा है। इस पत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी मात्र अपना कल्याण ही नहीं वरन् औरों का भी कल्याण करना चाहते हैं। उनकी यह विशाल दृष्टि महापुरुषत्व को सिद्ध करती है। हे गुरुवर ! उपरोक्त पत्र पढ़कर हम सभी शिष्यानुशिष्य गौरवान्वित हैं, अपने ऐसे कल्याणकारी गुरु एवं उनके निर्माता गुरु को पाकर। गुरुद्वय के चरणों में नमोस्तु करता हुआ...। आपका शिष्यानुशिष्य
  9. २००२-२०१६ खमेरा (बासवाड़ा-राजः) लोक में श्रेष्ठ साधु शरण गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों की अप्रत्यक्ष शरण को ग्रहण कर त्रिकाल नमोस्तु करता हूँ...। हे गुरुवर! ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने अगला पत्र ०५-११-१९६७ को मदनगंज-किशनगढ़ से लिखा जो आत्मीय मित्र मारुति भरमा मडीवाल को सदलगा में १५-११-१९६७ को एक लिफाफे में रखा मिला। इस पत्र को पढ़कर किसी भी भव्य मुमुक्षु को वैराग्य उत्पन्न हो सकता है और वह सच्ची राह पकड़ सकता है। यह पत्र भी कन्नड़ भाषा में लिखा हुआ आज भी मित्र के पास एक अमानत के रूप में विद्यमान है, जिसकी नकल (फोटोकॉपी) विद्याधर के अग्रज भाई ने प्राप्तकर हिन्दी अनुवाद सहित भिजवाई है वह आपको भेजकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि मेरे गुरु की कोमल, पवित्र, वात्सल्यमयी, करुण, वीतराग, कर्तव्य भावना से ओत-प्रोत वैराग्यपूर्ण चिन्तन को पढ़कर आपका हृदय आनन्द विभोर हो उठेगा ब्रः विद्याधर जी का वैराग्य जनक पत्र श्री वीतरागाय नमः। प्रिय मित्र मारुति भरमा मडीवाल को यहाँ से १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज जी का आशीर्वाद... और हमारा अकुलतापूर्वक वंदन(आपके संयोग की इच्छा)। सम्बरं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुये मृगाय। समापन्न विपत्ति कालेधियोऽपि पंसा मलिना भवन्ति।। इस संसार में तद्भव मोक्षगामी को भी संसार में मलिनता का करने वाला कारणभूत यह संसार ही है। क्योंकि इसमें दूसरा और कोई गुण ही नहीं है। वही एक अज्ञानता है। देखो! ज्ञानी-चरमशरीरी-योगी के समान लक्षण को धारण करने वाले राम, सीता के लिए सोने का मृग समझकर उसके पीछे वन में कष्ट उठाया, यह भी एक मोह है। इसी प्रकार इस संसार में बहुत समस्यायें आती हैं। प्रतिसमय यह जीव भ्रमण कर रहा है यह आश्चर्य की बात है।(धिक्कार है इस संसार को, पंचेन्द्रिय भोगों को) अङ्गारसदृशी नारी नवनीत समा नराः। तत्तत्सान्निध्य मात्रेण द्रवेत पुंसां हि मानसम्॥ स्त्री अंगारे के समान है और अंगारे के सामने पुरुष नवनीत के समान है, वह उसके सामने कितनी देर ठहर सकता है अर्थात् वह जल्दी ही पिघल जाता है। उसी प्रकार संसार के प्रपञ्च में पड़ने वाले नवनीत जैसा पिघल जाता है यानि मोहित हो जाता है। इसलिए हमारी आपसे नम्र विनंती है कि आप शीघ्रता से, वैराग्य से युक्त होकरघर छोड़कर सत्संग का रास्ता पकड़ना क्योंकि अनादिकाल से पुण्य संग्रह किए हो इसलिए मनुष्य जन्म मिला है, उस मनुष्य जन्म के समय को बिना कारण मत खोना, मैं तुमको क्या बताऊँ कि मेरे वैराग्य का कारण तुम हो और अभी तक तुम घर में हो... बहुत दुःख की बात है। शादी की बात मत करना क्योंकि और बंधन में पड़ जाओगे। कोई बात नहीं, जिनगोंड़ा को बताया कि नहीं, उनको बताना इस तरफ सब अच्छा रहेगा, शीघ्रता से आना। मैंने महाराज जी को तुम दोनों के बारे में सब बताया उसको सुनकर महाराज बहुत खुश हुए। इसलिए मेरी दीक्षा को भी आगे बढ़ा दिया और तुम दोनों का रास्ता देख रहा हूँ। महाराज जी जिनगोड़ा को भी दीक्षा देगें मैंने कहा था। एक और विषय है जिनगोंड़ा और मैंने मिलकर दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा ली हैं इसलिए दोनों मिलकर शीघ्रता से आना। धर्म की प्रभावना में आगे होना चाहिए उससे ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण दूर होता है। चकवा पक्षी की तरह आप दोनों का संयोग पत्र पहुँचते ही होना चाहिए। धर्म की रक्षा के लिए प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। अब मैंने डेढ़ महिने से नमक और शक्कर का त्याग किया है। मेरी संस्कृत की पढ़ाई अच्छी चल रही है और स्वास्थ्य भी अच्छा है। महावीर को भी बता देना। जब तक वैराग्य का रास्ता नहीं दिखता तब तक मोक्षमार्ग बहुत दूर है। मनुष्य जन्म का कल्याण वैराग्यमय ही है। कितना बताऊँ मुझे संतोष नहीं क्योंकि आप लोग अभी घर में ही हो । यही मुझे दिन-रात याद आती है और कुछ याद नहीं आता है। पत्र लिखकर बहुत दिन हुए, इस कारण पत्र का उत्तर जल्दी देना, उसके साथ दोनों आना |जिनगोंडा का पत्र आ चुका लेकिन उसको समझा देना मैंने उसको पत्र नहीं लिखा क्योंकि मेरा पत्र उसके पास नहीं पहुँचा, इसलिए मैंने उसको दूसरा पत्र नहीं लिखा तुम ही उसको समझा देना। उसने पत्र में ऐसा लिखा है कि मैं उससे नाराज हूँ लेकिन मैं उससे नाराज नहीं हूँ। उससे पूछकर, उसके कहने के बाद ही मैं यहाँ आया हूँ, बाद में आप आना ऐसा कहा था। मैंने उसको दूसरा पत्र नहीं लिखा क्योंकि पत्र मिलता नहीं है उसके साथ झगड़ा भी हो सकता है इसलिए तुम ही उसको समझा देना। –विद्याधर ब्रह्मचारी किशनगढ़ (मदनगंज) अजमेर (राजः) इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने वैराग्य से भरा पत्र अपने मित्रों को भेजा जिसमें विशेषता यह है कि अपने मित्रों के कल्याण के खातिर अपनी दीक्षा आगे बढवा दी। धन्य हैं, ऐसा अलौकिक अनुपम अद्वितीय मित्र। आज हम शिष्यगण धन्य हो गए ऐसे हितंकर गुरु मित्र को पाकर...। उनके श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन करते हुए आप का धन्यवाद करता हूँ कि ऐसा गुरु दिया... आपका शिष्यानुशिष्य
  10. १९-०२-२०१६ नरवाली (बासवाड़ा राजः) प्राणी मात्र के हितैषी, दयालु गुरुवर के चरणों में त्रिकाल नमोस्तु-नमोस्तु नमोस्तु... हे गुरुवर! आज मैं आपसे आपके आध्यात्मिक शिष्य बालब्रह्मचारी विद्याधर के द्वारा लिखे गए अपने दूसरे पत्र का जिक्र कर रहा हूँ। जिससे तत्कालीन समाज को ज्ञात हो जाएगा कि भविष्य के आध्यात्मिक महापुरुष को पहचान न पाने का कितना बड़ा अपराध उन्होंने किया था। ये तो आपके ज्ञान चक्षुओं की विशेषता रही कि उस महापुरुषत्व को गर्भ में ही पहचान लिया और समाज की परवाह किए बिना ही जन्म दे दिया। आत्मीय मित्र मारुति भरमा मडिवाल को लिखा अन्तर्देशीय पत्र जो ३१-१०-१९६७ को सदलगा, (तालुका-चिक्कौड़ी) पहुँचा। जिसे वे सम्हालकर रखे हुए थे, उस कन्नड़ पत्र का हिन्दी अनुवाद विद्याधर के ज्येष्ठ भ्राता ने किया और मुझको उपलब्ध कराया है, वह आप तक प्रेषित कर रहा हूँ ब्रः विद्याधर का मित्रों को अन्तरंग उद्बोधन भरा पत्र श्री वीतरागाय नमः किशनगढ़ मदनगंज दिन बीत गया, मोती टूट गया तो काम का नहीं इसी प्रकार तुम लोग समय बिताने में लगे हो, दिनदिन आपकी आयु कम होती जा रही है, तुम लोग ध्यान नहीं दे रहे हो। देखो-विचार करो! इस मनुष्य जन्म की तिथी निश्चित नहीं है। इसलिए आप जल्दी से संसार से मोह को त्यागकर इस ओर आ जाओ। नीति अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्। गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्।। बुद्धिमान् मनुष्य खुद को अजर-अमर समझकर ज्ञान और धन का संग्रह करता है। इस प्रकार मृत्यु सामने खड़ी है ऐसा सोचकर धर्म में अपना जीवन बिताता है। ये बुद्धिमान का कार्य है। इसी वाक्य से आप दोनों भी जल्दी संसार से मोह का त्याग करके आत्मोन्नति के अनुसार वैराग्य को धारण करने के लिए आ जाओ-रहने दो अब, आगे किसी को पता न चले ऐसा जिनगोंड़ा को बताना और दोनों आ जाना क्योंकि ऐसा मैंने वचन दिया था, आते समय मैं ऐसा वचन देकर आया था कि पहुँचकर पत्र लिखूँगा और तुम दोनों आ जाना, मैंने आते ही पत्र लिखा लेकिन उसका जवाब ऐसा आया, जो मुझे पसंद नहीं है। इसलिए अब हम दूसरा पत्र नहीं लिख रहे हैं। अब किसी को पता न चले और आप जिनगोंड़ा को समझा देना और आप दोनों आ जाना। जिनगोंड़ा ने कहा था-तुम पहले जाना, मैं बाद में आऊँगा इसलिए मुझे बहुत दुःख हो रहा है, हम और वे दोनों मिलकर दिगम्बर भेष धारण करेंगे ऐसा संकल्प किया था, उसको सहयोग देना तुम्हारा काम है, इसलिए उसके कारण इस बार मैंने अपनी दीक्षा रोकी है। मैंने महाराज से कहा है कि मेरा मित्र आने वाला है, मैं और वे मिलकर ही दीक्षा लेंगे ऐसा संकल्प लिया था, उसके आने के बाद ही दीक्षा देना ऐसा महाराज को कह दिया और एकांत में ढाई घण्टे में केशलोंच किया जिसे देखकर महाराज को बहुत खुशी हुई, पत्र का उत्तर जल्दी देना। -विद्याधर ब्रह्मचारी इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने वात्सल्यपूर्ण नीतिपरक पत्र लिखकर आत्मीय मित्रों को झकझोरा और प्राणों सी प्रिय सर्वकल्याणी दुर्लभ अपनी जिनदीक्षा को रुकवाया । यह मित्र स्नेह का और मित्रों के प्रति समर्पण का सबसे बड़ा उदाहरण है, और है विद्याधर के सम्यग्दर्शन के वात्सल्य अंग का प्रतीक। नीतिकारों ने कहा है- मित्र वही है जो अपने मित्र को सच्ची राह दिखाये। ऐसे सम्यग्दर्शन से युक्त गुरु चरणों की त्रिकाल वन्दना करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  11. १८-०२-२०१६ मुँगाना ग्राम (प्रतापगढ़ राजः) प्राणी मात्र के मित्र सच्चे दिग्दर्शक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे गुरुवर! आज मैं आपको एक और अलौकिक रहस्य का उद्घाटन करने जा रहा हूँ, संभवत: आप इस रहस्य को जानते हैं, किन्तु आपके भक्तों के सामने पड़े रहस्य के पर्दे को उठा रहा हूँ। जिससे सब को पता चल सके कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने अपने मित्र को दिए वादे से वादाखिलाफी नहीं की। उन्होंने आपश्री के चरणों को पाकर निश्चित होकर अपने मित्र को पूर्ण आस्वस्त किया और उन्हें सच्चे गुरु की प्राप्ति का संदेश देकर आमंत्रित किया। ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने प्रथम पत्र कन्नड़ लिपि में लिखा था, यह अन्तर्देशीय पत्र, मित्र जिनगोंडा के नाम से ०६-०९-१९६७ को सदलगा (तालुका-चिक्कौड़ी) पहुँचा। उस पत्र को मित्र मारुति जी अभी तक सम्हालकर रखे हुए हैं, उनसे वे पत्र विद्याधर के बड़े भाई महावीर जी ने प्राप्त कर उपलब्ध कराये और उनका हिन्दी (राष्ट्रभाषा) में अनुवाद कर सभी के लिए पठनीय बना दिए हैं। वह अनुदित पत्र आपको प्रेषित कर रहा हूँ ब्र० विद्याधर ने लिखा गुरुभक्तिमय समर्पित पत्र श्री वीतरागाय नमः किशनगढ़ प्रिय मित्र को किशनगढ़ से विद्याधर का धर्म की आसक्ति उत्पन्न करने वाला पत्र.... यहाँ से आचार्य ज्ञानसागर महाराज जी का बहुत आशीर्वाद...! आपको पत्र लिखने में देर हो गई क्षमा करना क्योंकि आप २ पत्र लिख चुके हो उसमें से कुछ शब्दों को पढ़कर मुझे बहुत बुरा लगा, फिर भी नहीं नहीं ऐसा नहीं है ये गलत नहीं मैं इसे स्वीकार नहीं करता, इस वाक्य पर श्रद्धा रखकर मैंने अपना काम शुरु कर दिया, पुस्तक पहुँच गया मेरे पास [छंद केशरी व्याकरण] लेकिन दूसरे पत्र में आपने ऐसा लिखा है कि मुझे वैराग्य उत्पन्न हो रहा है और मुझे आने की इच्छा है, इस बात को सुनकर के मेरा हृदय कमल ऐसा विकसित हुआ- जैसे सूर्य के दर्शन से कमल अथवा चकवा पक्षी चंद्रमा के दर्शन से हर्षित हो आनंद से भर जाता है उसी प्रकार आपके वैराग्य के उत्पन्न होने की बात सुनकर ही मेरा हृदय इतना हर्षित हो रहा है कि हम व्यक्त नहीं कर सकते।’ तुम्हारे बारे में पूरे विचार महाराज जी तक पहुँचा दिए हैं और महाराज जी ने कहा है- ‘‘जिसके पास ऐसा वैराग्य से युक्त परिणाम हो, जो संयम पूर्णरूप से पालन कर सके ऐसी क्षमता हो और शरीर अच्छा है, उसको हम दीक्षा दे सकते हैं, इसको सुनकर मुझे बहुत आनंद हुआ क्योंकि इन तीनों गुणों से तुम लोग भरे हुए हो, इसलिए इस समय तुम लोग घर छोड़ो तो अच्छा है। यदि आगे संसार में फंस गए तो मुक्ति होना कठिन है। इस समय तुम लोगों ने ऐसा विचार किया है तो ये मोक्ष का मार्ग है और एक बात है कि जब से मैं महाराज जी के पास आया हूँ मेरे में बहुत सुधार आया है यानि कि मेरे अन्दर और चारित्र आ गया है- एक महिने से मैंने नमक का त्याग किया है, समाधि होने तक मैंने नमक का त्याग किया था। महाराज का चारित्र बहुत उत्कृष्ट है चटाई वगैरह नहीं लेते। आप यहाँ आ गए तो आपका भी चारित्र बहुत उत्कृष्ट हो जायेगा। मुझे यहाँ आकर तीन महिने हो गए, २५वें दिन मैंने महाराज का केशलोंच किया, उस दिन लगभग २००० जनता थी, उस समय मुझे बोलने का समय दिया और मैंने २० मिनिट तक बोला, मेरे प्रवचन सुनकर महाराज को बहुत आनंद हुआ, उसी समय से मुझे बहुत बोलने आने लगा है। जब तक यौवन अवस्था है, जब तक स्वास्थ्य है, तब तक कल्याण कर लेंगे इसलिए जल्दी आओ मैं इंतजार कर रहा हूँ। -अपना तुम्हारा विद्याधर ब्रह्मचारी मेरी जिज्ञासा के साथ तुम्हें वंदन इस तरह गुरुचरणों को पाकर ब्रह्मचारी विद्याधर जी कितने आनंदित हुए थे और अपनी विशुद्धि को बढ़ा रहे थे तथा एक सच्चे मित्र बनकर अपना कर्तव्य का निर्वहन करते हुए अपने मित्रों को सच्ची सलाह-
  12. १७-0२-२०१६ धरियावाद (प्रतापगढ राजः) परमशान्त तपोनिधि गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज आपके पावन पूत चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु...। हे गुरुवर! आज मैं आपको ब्रह्मचारी विद्याधर जी की ऐसी सहजासहज प्रवृत्ति बता रहा हूँ, जिसको पढ़कर आप मुक्त हँसी से अपने आप को रोक नहीं पायेंगे। यह घटना आपके शिष्य मेरे गुरुवर आचार्य श्री जी ने सन् २०१२ डोंगरगढ़ चातुर्मास में दोपहर की कक्षा में खिलखिलाते हुए प्रसंगवश सुनाई, जिसको सुनकर सभी भक्तजन तालियों की गड़गड़ाहट के साथ मुक्तकण्ठ से हँस पड़े। इस वार्ता के साक्षी बने श्रीमान् दीपचन्द छाबड़ा (नांदसी वाले) जयपुर ने मुझे यह संस्मरण सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ- भोला ब्रह्मचारी विद्याधर "आचार्यश्री बोले ब्रह्मचारी विद्याधर १९६७ में जब उत्तरभारत आ रहा था, तब रेलयात्रा सम्बन्धी उसे ज्यादा कोई जानकारी नहीं थी। स्तवनिधि से कोल्हापुर गया, वहाँ से बॉम्बे गया, स्टेशन पर टिकिट ली तब तक गाड़ी चल पड़ी, तो वह दौड़कर आगे पहुँचा और इंजन में बैठे ड्रायवर को जोर-जोर से हाथों का इशारा करते हुए मुख से बोला-रोको! रोको!! रोको!!! चालक ने देखा और ट्रेन रोक दी और विद्याधर डिब्बे में चढ़ गया। ऐसा था विद्याधर। इस तरह उत्साही भोला ब्रह्मचारी यह भूल गया कि दौड़कर डिब्बे पर भी चढ़ा जा सकता है। दुनियादारी के छलछन्दों से दूर आत्मज्ञान की प्राप्ति के पुरुषार्थ में लीन विद्याधर जी पहुँच गए आपके पास। पुरुषार्थी गुरुओं के चरणों में नमस्कार करता हुआ.... आपका शिष्यानुशिष्य
  13. १५-०२-२०१६ कूण (उदयपुर राजः) परमसत्य की शाश्वत्ता पर श्रद्धान्वित गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तप:पूत चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे गुरुवर! यूँ तो आपको सब ज्ञात ही है फिर भी आज मैं वह रहस्य उद्घाटित कर रहा हूँ जो स्तवनिधि में बन गया था कि ब्र, विद्याधर जी अचानक से कहाँ चले गए?... विद्याधर आपकी तरह पूर्व जन्म के वैरागी थे, संसार के रागरंग में दुःख सहित क्षणिक सुखानुभूति में फँसना उन्हें गवाँरापन लगा और अनन्त से भटकती आत्मा को प्रकाश की ओर ले जाना ही जन्म की सार्थकता अनुभूत हुई। आचार्य देशभूषण जी महाराज के संघ में प्रवास करते समय अजमेर के किसी ज्ञानी पुरुष ने उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु आपश्री के बारे में अवगत कराया था। वही ज्ञानपिपासा लेकर विद्याधर स्तवनिधि से मोहीं रागियों की दृष्टि में गायब हुए थे, किन्तु अन्तस् का वह यात्री अपने निश्चित लक्ष्य को लेकर स्तवनिधि से कोल्हापुर होते हुए बॉम्बे पहुँचे और वहाँ से अहमदाबाद पहुँचे, अहमदाबाद से अजमेर पहुँचे थे। दो दिन-रात लोहपथ गामिनी गाड़ी (रेलगाड़ी) में खड़े-खड़े बिना खाये-पिए आपके दर्शन की आश में मई माह की भीषण गर्मी में इतना बड़ा पुरुषार्थ करके आप तक पहुँचे थे और तब आपश्री के चरणों में समर्पित हो गए थे। इस सम्बन्ध में मुनि श्री सुव्रतसागरजी महाराज ने आचार्यश्री के साथ हुई वार्तालाप लिखकर भेजी है। वह मैं आपको प्रेषित कर रहा हूँ शिष्यों ने लिया गुरु का साक्षात्कार "करेली पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव १४-२१ फरवरी २००० में सानंद सम्पन्न होने के बाद आचार्य श्री जी संघ सहित छिंदवाड़ा (म.प्र.) की तरफ प्रस्थान कर रहे थे। छिंदवाड़ा के पहले एक सारना नाम के ग्राम में प्रातः काल पहुँचे, आहारचर्या हुई, २ मार्च २००० का दिन था और ग्राम पंचायत के भवन में आचार्य महाराज ठहरे हुए थे। सारना से मेघाशिवनी ग्राम ५ कि.मी. पर ही था इसलिए विहार शाम को होना था। सामायिक के बाद आचार्य महाराज से तत्त्वचर्चा करने हेतु कुछ मुनिराज उनके पास गए। चर्चा के दौरान आचार्य श्री जी मुस्कुराते हुए बोले- 'मैं कोल्हापुर से ट्रेन में बैठकर अजमेर पहुँचा था वो भी रात में, दो उपवास हो गए थे, अतः साधक को अपना आहार, विहार और निहार ठीक रखना चाहिए, नियन्त्रित रखना चाहिए तो वह बीमार नहीं पड़ता, उसकी साधना ठीक चलती है। इसके बाद प्रश्नोत्तर का सिलसिला चल पड़ा हम लोग - आचार्यश्री जी! - निहार एवं विहार तो अपने वश में है परन्तु आहार को किस प्रकार से नियन्त्रित किया जाए? अंतराय आदि के समय तो बड़ी गंभीर अवस्था हो जाती है। आचार्यश्री - देखो, आहारचर्या पराधीन है, उस समय पता चलता है त्याग का महत्त्व (हँसते हुए)। हमारे जीवन की शुरुआत इसी त्याग से प्रारम्भ हुई थी जो आज तक चल रही है। हम लोग - यह कब की बात है आचार्यश्री ? आचार्यश्री - जब मैं, आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के पास गया था उस समय की बात है। हम लोग - आप कहाँ से कहाँ गए थे आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज के पास ? आचार्यश्री - मैं, स्तवनिधि से आचार्य देशभूषणजी महाराज के पास से अजमेर गया था। हम लोग - आप ज्ञानसागर जी महाराज के पास स्वयं गए थे या देशभूषण जी महाराज ने भेजा था ? आचार्यश्री - (तेज मुस्कान के साथ) क्या हुआ कि सदलगा वहाँ से पास में है। समाचार पाते ही सदलगा से बड़े महावीर जी मुझे लेने आए तो मैंने सोचा कि परिवार के अन्य सदस्य भी आ सकते हैं। अत: यहाँ से दूर जाकर आत्मज्ञान-साधना करना चाहिए। ऐसा विचार कर मैं वहाँ से निकल गया। हम लोग - आपने ज्ञानसागर जी महाराज को पहिले से देखा था क्या? या मात्र सुना था? आचार्यश्री - जब हम चूलगिरि जयपुर में देशभूषण जी महाराज के पास में थे तब वहाँ अजमेर के एक ब्रह्मचारी जी से परिचय हुआ था। वे हमें ज्ञानसागर जी महाराज के बारे में, उनके ज्ञान के बारे में सदा बताते रहते थे। हम लोग - आप कौन-सी स्टेशन से अजमेर के लिए बैठे थे ? आचार्यश्री - कोल्हापुर से। हम लोग - और टिकिट ? आचार्यश्री - टिकिट तो पहले ही ले लिया था। हम लोग - रिजर्वेशन कराया था या सिम्पल टिकिट था ? आचार्यश्री - उस समय मैं यह सब कुछ नहीं जानता था। हम लोग - टिकिट खरीदने के उपरान्त कुछ पैसा तो आपके पास रहा होगा ? आचार्यश्री - हाँ, पाँचेक रुपये बचे थे। हम लोग - तो आप, दो उपवास के उपरान्त पहुँचे थे? आचार्यश्री - दो उपवास के उपरान्त नहीं, दो उपवास में पहुँचे थे। बेला हो गया था, वह मेरे जीवन का पहला बेला था। हम लोग - आपने रास्ते में कुछ खाया-पिया क्यों नहीं? पैसे तो थे ? आचार्यश्री - उस समय सोचता था कि सात प्रतिमाएँ हैं मेरी और नहाया भी नहीं, देव-दर्शन, पूजन के बिना आहार कैसे करूँ? पैसे थे, दुकाने भी थीं, सामग्री भी थी किन्तु बिना देव-दर्शन, पूजन के कैसे संभव था ? हम लोग - आप स्टेशन पर उतरकर दर्शन कर आते ? आचार्यश्री - देखो! मैं उस समय कुछ ज्यादा जानता भी नहीं था और मुझे यह भी नहीं मालूम था कि कौन-से गाँव-नगर में मंदिर हैं और कहाँ पर है तथा मन में ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शनों की तीव्र भावना थी, इस कारण खाने-पीने का विकल्प ही नहीं आया। हम लोग - फिर उन पाँच रुपयों का क्या किया ? आचार्यश्री - रिक्शे आदि में खर्च हो गए। हम लोग - आप अजमेर कितने बजे पहुँच गए थे एवं किनके यहाँ पर गए थे ? आचार्यश्री - रात के लगभग ११-१२ बजे पहुँचे थे और उन्हीं परिचित ब्रह्मचारी जी के यहाँ पर पहुँचे। पहुँचकर, गरमी के दिन होने के कारण छत पर जाकर लेट गए, किन्तु खाली पेट और अत्यधिक गरमी होने के कारण नींद नहीं आयी। तभी उन ब्रह्मचारी जी ने कहा कि हाथ मुँह धो-लो, और जैसे ही उन्होंने ढका हुआ पात्र उघाड़ा तो उसमें पानी नहीं था। (हँसते हुए) हम लोग - फिर आपने इस परिस्थिति में क्या किया ? आचार्यश्री - (मुस्कुराते हुए) उन्हीं ब्रह्मचारी जी से कमण्डलु लिया और दुपट्टा गीला करके ओढ़ लिया। थोड़ी देर बाद दुपट्टा भी सूख गया। हम लोग - फिर क्या हुआ था ? आचार्यश्री - (थोड़ा-सा रुककर हँसकर बोले) फिर क्या, घण्टिया गिनते रहे। एक, दो, तीन, चार - चार बजे सुबह उठकर सामायिक की फिर शुद्धि आदि करके अभिषेक, पूजन किया। उसके बाद उन्हीं ब्रह्मचारी जी के यहाँ पारणा की। उसके उपरान्त सामायिक की। फिर नींद आने के कारण लेट गया तो नींद लग गई और ऐसी लगी कि शाम हो गई, पता ही नहीं चला। शाम को ब्रह्मचारी जी ने जगाया और कहा मैं तो जल लेने जा रहा हूँ, आप भी चलिए तो मैं भी चला गया। हम दोनों जल लेकर वापस आ गए। हम लोग - आप तो पहले से ही एक बार ही भोजन लेते थे ? आचार्यश्री - हाँ, परन्तु शाम को जल तो लेता था। फिर उन ब्रह्मचारी जी से चर्चा हुई फिर वे ही आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन कराने ले गए। मैंने दर्शन करके उनके चरणों में अपना माथा रख दिया एवं कहा- ‘अपनी शरण में ले लो।' तो महाराज ने पूछा-तुम्हारा नाम क्या है? तो हमने कहा- ‘विद्याधर'। फिर महाराज बोले- 'तुम्हारा नाम तो विद्याधर है, तुम तो विद्या धारण करके चले जाओगे मुझे क्या मिलेगा?' तो मैंने कहा- ‘महाराज नहीं जाऊँगा; आज से सवारी गाड़ी का त्याग करता हूँ' तब ज्ञानसागर जी महाराज मुझे विस्मयकारी दृष्टि से देखते रहे। शायद वो कहना चाह रहे हो इतनी-सी बात पर इतना बड़ा त्याग, तो मेरे कहने पर क्या होगा और मुझे देखते ही रहे।" हम लोग - आपकी दीक्षा के पहले आपकी बिंदौरी भी निकली थी क्या ? आचार्यश्री - हाँ, वहाँ का रिवाज तो अलग प्रकार का ही है। हम लोग - क्या ? आचार्यश्री - वहाँ तो २०-२५ दिनों पहले से ही बिंदौरी, टीका एवं निमन्त्रण प्रारम्भ हो जाता है। हम लोग - आप पैदल जाते थे क्या ? आचार्यश्री - हाँ कभी पैदल, कभी बग्गी में कभी रिक्शा में बैठाकर ले जाते थे। हम लोग - आचार्यश्री जी! आपने केशलोंच मंच पर किया था क्या ? कैसा लग रहा था ? आचार्यश्री - मंच तो मंच होता है आज भी वह दृश्य आँखों में झूलता है। (हँसने लग गए) हम लोग - मंच पर केशलोंच में कितना समय लगा था आचार्य श्री ? आचार्यश्री - लगभग ३ घण्टा।इससे पहले मैं गुरु आज्ञा से दो बार केशलोंच कर चुका था। हम लोग - जब पहली बार केशलोंच किया था तब कितना समय लगा था? आचार्यश्री - वही ३-३॥ घण्टे। पहले बहुत घने बाल थे। धुंघराले एवं कड़क भी थे। इस कारण केशलोंच के समय खून निकलता था और अँगुलियाँ भी कट जाती थीं। जब स्टेज पर से लौटकर आए तो ज्यादा तकलीफ होने के कारण महाराज जी ने एक श्रावक को कहा चंदन का तेल लगादो, तो उन लोगों ने केसर का तेल लगा दिया और तकलीफ बढ़ गई। हम लोग - आपने ज्ञानसागर जी महाराज से पूछा था क्या ? आचार्यश्री - नहीं, उन्होंने ही श्रावकों से कहा था। हम लोग - यह कहाँ की बात है आचार्यश्री ? आचार्यश्री - किशनगढ़ की। हम लोग - ज्ञानसागर जी महाराज केशलोंच देखने आए थे क्या ? आचार्यश्री - नहीं, उनकी वृत्ति अलग ही थी। वे कभी कुछ नहीं करते थे एवं आते ही नहीं थे। हम लोग - आप ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्ति करते थे क्या ? आचार्यश्री - हाँ, मैं एक बार महाराज की वैयावृत्ति करने गया तो महाराज जी ने वैयावृत्य नहीं कराई और कहा जाओ, पढ़ाई करो। हम लोग - आपने कभी महाराज जी से नहीं पूछा, आप कहाँ तक पढ़े ? कैसे रहते थे ? किस प्रकार यहाँ तक आए ? आचार्यश्री - नहीं, आप लोग तो बहुत बोलते हो, मैं उनके सामने बोलता ही नहीं था। वे वृद्ध भी तो थे। और वे कम बोलते थे। नीचे सिर करके बैठे रहते थे और आँख बंद रहती थी, उनकी प्रवृत्ति अलग ही थी तथा मैं हिन्दी भी कम जानता था, सो कोई गलती न हो जाए इसलिए कम ही बोलता था। हम लोग - फिर आप प्रवचन कैसे करते थे ? आचार्यश्री - (कुछ सोचते हुए) एक बार मुझे महाराज जी ने प्रवचन करने को कहा, उस समय मैं ब्रह्मचारी था उन्होंने कहा तो मैंने प्रवचन किया। प्रवचन में, मैं एक कहानी सुना रहा था। कहानी में मुनि महाराज प्रवचन सुना रहे थे। प्रवचन सभा में एक व्यक्ति बैठा तो था, किन्तु वह प्रवचन सुनना नहीं चाहता था। इस कारण उसने कानों में अँगुली डाली, तो मैंने कानों की जगह आँखों में कह दिया, तो सभी लोग हँसने लगे, पर मैं समझ नहीं पाया। इस प्रकार की थी भैया हमारी हिन्दी। हम लोग - आप दीक्षा के उपरान्त अस्वस्थ हो गए थे ? आचार्यश्री - हाँ, बुखार आ गया था। दो महीने तक रहा। कुछ भी नहीं पढ़ पाते थे। दीक्षा के बाद बुखार का पहला अनुभव था कि कैसा होता है बुखार और लगभग १०७ डिग्री बुखार आता था। हम लोग - कैसे आया था बुखार आचार्यश्री जी ? आचार्यश्री - बाहर स्टेज पर बैठने से, गर्म हवा लगने से पहले प्रवचन की प्रथा नहीं थी। ग्रन्थ से वाचन होता था, बाद में निर्ग्रन्थ प्रवचन प्रारम्भ हुआ। हम लोग - पहले आपने उपवास बहुत किए थे क्या ? आचार्यश्री - पहले, भाद्रपद में एक आहार एक उपवास करने की भावना थी। परन्तु आई फ्लू हो गया था। उस समय ३३ उपवास हो चुके थे। लोगों ने कहा कि उपवास का प्रभाव आँखों पर पड़ता है तो इस कारण काला चश्मा लगाने की सलाह दी। हम लोग - आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आपको अनुमति दे दी थी क्या ? आचार्यश्री - वो कुछ नहीं कहते थे। हम लोग - आचार्य श्री जी, जैसे आप बोलते हैं, देखलो, सोचेंगे, देखो, ऐसा ही ज्ञानसागर जी महाराज भी बोलते थे क्या ? आचार्यश्री - मैंने कहा ना, उनकी प्रवृत्ति अलग प्रकार की थी। हम लोग - फिर आईफ्लू ठीक हो गया ? आचार्यश्री - हाँ, आँख तो ठीक हो गई परन्तु डॉ. ने काला चश्मा लगाने की सलाह दी और अनिवार्य बताया। उस समय मेरी उम्र २२ वर्ष की रही होगी, तो मैंने सोचा कैसे क्या होगा ? फिर डॉक्टर से पूछा कि कोई दूसरा उपचार नहीं है क्या ? उन्होंने एक ड्रॉप डालने के लिए बताया, पर मुझे जमा नहीं। पता नहीं इसमें कैसा क्या होगा ? तो मैंने पूछा और कोई प्राकृतिक उपाय हो तो बतायें तो उन्होंने कहा कि त्रिफला के अर्क से आँख धोएँ। यह सलाह मुझे आँच गई क्योंकि यह अपने आश्रित है और दोष भी नहीं। उसी समय अमेरिका के एक डॉक्टर का लेख आया वह मुझे पढ़ाया। उसमें लिखा था नींबू की बूंद से मोतियाबिन्द का इलाज एवं चश्मा उतारने का इलाज। वैद्यों ने बताया कि कपूर सरसों का तेल भी आँखों में डाला जा सकता है तब श्रावकों ने यह बाह्य प्रयोग किए, इसके साथ आँखों की एक्सरसाइज भी किया करता था और कमण्डलु के पानी से अपनी आँखों को धोया करता था। फिर भी चश्मा नहीं उतरा और हम कुण्डलपुर आ गए। वहाँ लोगों ने कहा कि आपका चश्मा उतर ही नहीं सकता क्योंकि आप आहार में कुछ नहीं लेते हैं । हम लोग - कुछ का मतलब ? आचार्यश्री - उस समय घी का त्याग था। हम लोग - आपने घी का त्याग कब किया था ? क्या आप उस समय मुनि बन गए थे ? और गुरु महाराज ने आपको मना नहीं किया ? आचार्यश्री - हाँ, गुरु महाराज जी के सामने नौ माह का त्याग किया था। उसको आजीवन त्याग करने का भाव था, परन्तु... मैंने दीक्षा के समय कुछ बड़े त्याग करने की भावना बना ली और घी का त्याग कर दिया था। उस समय उन्होंने आचार्य पद दे दिया था, इस कारण वे कुछ भी नहीं कह सकते थे, परन्तु उन्होंने गम्भीरता तो दिखाई थी। चातुर्मास ब्यावर, अजमेर, फिरोजाबाद, कुण्डलपुर, नैनागिरि, थूबौन जी इस प्रकार लगभग सात चातुर्मास तक घी का त्याग रहा और चलता रहा। जिसमें ज्ञानसागर जी गुरु महाराज के साथ नौ माह तक त्याग चला। पर... हम लोग - पर क्या आचार्यश्री? आचार्यश्री - मैं घी नहीं लेता था, इस कारण से पूरे ही संघ को रूखा-सूखा भोजन मिलता था तब मैंने घी के स्थान पर हरी का त्याग कर दिया और घी लेना प्रारम्भ कर दिया। हम लोग - तेल तो ले सकते थे ? आचार्यश्री - पहले ही हटा देते थे। पता नहीं तेल है या नहीं। हम लोग - आचार्य श्री जी, घी एक रस है, इसके लिए एक-दो हरी का त्याग कर देते, आपने तो पूरीहरी का त्याग कर दिया। आचार्यश्री - पहले पूरी हरी का त्याग नहीं किया, गिनती की हरी लेता था, बाद में पूरी हरी का त्याग किया। हम लोग - आचार्यश्री जी! जब आप ही का त्याग का नियम हम लोगों को देते हैं तब आप हरी में नींबू एवं मिर्ची की छूट रखने की बात करते हैं, तो आप भी नींबू एवं मिर्च की छूट रखें तो ठीक रहेगा। (सब मुनियों ने इसकी अनुमोदना की और स्वास्थ्य को देखते हुए प्रार्थना भी की परन्तु आचार्यश्री जी नीचे मुँह करते हुए मुस्कुराते रहे एवं हम लोगों की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। हम लोगों ने पुन: कहा) आचार्यश्री जी ! आप हमेशा कहा करते हैं कि देखो, सोचते हैं, देखेंगे परन्तु आज आप कुछ भी नहीं कह रहे हैं क्या कारण है? हम लोगों का जीवन धन्य हो जायेगा यदि आप हमारी प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे तो ? आचार्यश्री - (हँसते हुए) पहले बहुत ही खायी है। स्टॉक में है, वह चल रहा है। चलो-चलो बहुत टाइम हो गया। हम लोग - आप को घी का त्याग करते समय महाराज जी ने कुछ नहीं कहा ? आचार्यश्री - (सोचकर बोले) समझ लो उस समय मैं आचार्य बन गया था। (नीचे मुख करके बोले) वे क्या कहते ? सभी जोर से हँसने लगे। हम लोग - जैसा सामूहिक प्रत्याख्यान अभी होता है, वैसे ही पहले भी होता था क्या? आचार्यश्री - हाँ सामूहिक होता था। हम लोग - दीक्षा के बाद आपको और कुछ परेशानियाँ हुई होंगी ? आचार्यश्री - हाँ, एक बार नाक से खून आया, जिस समय विवेक सागर मुनि महाराज की दीक्षा हुई थी। हम लोग - उसका क्या इलाज हुआ था ? आचार्यश्री - १00 बरस पुराना घी फेफड़ो में मलने से ठीक हो गया था पर दो दिन तक बोल नहीं पाया था। हम लोग - अभी तक आपको कितनी बार बुखार आ चुका है ? आचार्यश्री - बीस बार। कटनी कुण्डलपुर, थूबौनजी, छिंदवाड़ा, नैनागिरि आदि। एक बार तो १०७ डिग्री से ऊपर आ गया था। हम लोग - जब आपको इतना बुखार आता है तो संघ की चिन्ता तो होती होगी ? आचार्यश्री - (गम्भीर हो गए) फिर विषय बदलकर बोले एक बार आहार के पहले बहुत बुखार आया। आहार को गए, पहले ग्रास में ही अन्तराय हो गया। अब तो संभलना ही मुश्किल हो गया। सभी घबरा गए। (फिर मौन हो गए, आशीर्वाद रूप में हाथ उठा दिया) हम सब समझ गए और उठ गए।' इस तरह सरल स्वभावी, भोले-भाले लौकिक व्यवस्थाओं के ज्ञान से परे अलौकिक ब्रह्मचारी विद्याधर ने अलौकिक यात्रा कर अलौकिक गुरु की अलौकिक शरण प्राप्त की। उस अलौकिकता की प्राप्ति हेतु सतत गुरु उपासना करता रहूँ इस भावना के साथ... आपका शिष्यानुशिष्य
  14. दो वर्ष पूर्व गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की सूक्ष्म दृष्टि ने पूरे देश को असमानता, गरीबी से निजात पाने के लिए एक समाधान दिया, स्वालम्बन के साथ रोजगार और इससे शुरू हुयी बदलाव की एक दास्ताँ... यह प्रकल्प है हथकरघा। कुछ उच्च शिक्षित ब्रहमचारी भाईयों के एक समूह के माध्यम से प्रारंभ हुआ यह प्रकल्प म.प्र. के लोकप्रिय तीर्थ बीना बारह एवं कुण्डलपुर में मुख्य रुप से स्थित हैं। गुरुदेव ने इन पवित्र विचारों को नाम दिया है श्रमदान। प्रस्तुत है हथकरघा अपने नए और आशावान रूप मे "श्रमदान" के नाम। 7 फरवरी 2018 को भट्टारक श्री चारूकीर्ति जी ने राष्ट्रपति महोदय को श्रमदान का प्रशस्ति पत्र देकर जहाँ श्रमदान का आग़ाज किया वहीं श्री अशोक जी पाटनी के मुख्य आतिथ्य में श्रमदान के प्रथम उत्पाद प्रदर्शनी का उद्घाटन कल 17 फरवरी 2018 की प्रातः वेला में हुआ। बहुत ही जल्दी ये उत्पाद www.shramdaan.in पर उपलब्ध होंगे। कृप्या www.shramdaan.in पर अपने आप को रजिस्टर करें। आप श्रम दान से निम्न लिंक से जुड़ सकते है : http://www.shramdaan.in/ https://www.instagram.com/shramdaann/ https://twitter.com/hathkargha https://www.facebook.com/Shramdaann https://www.youtube.com/c/shramdaan चारूकीर्ति जी राट्रपति राम नाथ कोविन्द जी को श्रम दान प्रशस्ति पत्र भेट करते हुए श्रवण बेलगोला में लगी श्रम दान प्रदर्शनी के चित्र
  15. १४–०२-२०१६ टेकण (उदयपुर-राजः) भीतरी यात्रा में अतियात्रित अरिहंतों का अनुगमन करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु.... हे गुरुवर! आज मैं चेतना के अनोखे उल्लास में उन्मेषित विद्याधर के उस रहस्य का पर्दा उठा रहा हूँ। जब उनका मन घर में नहीं लग रहा था। चराचर को देखते हुए भी उसको अन्देखा कर कुछ खोजते से प्रतीत हो रहे थे। अपने आप में ही बात करते रहते थे। अन्तरंग की गुफा में घंटों-घंटों बैठकर भी अतृप्त सा अनुभव करते। इस कारण घर के लोगों से भी मौन संवाद करते थे। आखिर एक दिन वो घर से अचानक गायब हो गए। तब फिर क्या हुआ? इस सम्बन्ध में विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया- विद्याधर के गायब होने का रहस्य "जिनगोंड़ा एक कृषक थे जो विद्याधर से चार-पाँच साल बड़े थे वे रात में लालटेन लेकर आते और विद्याधर को मन्दिर ले जाते थे, मन्दिर में जाकर विद्याधर स्वाध्याय सुनाता था, इस कारण दोनों स्वाध्यायी मित्र बन गए थे। दोनों ही घण्टों-घण्टों स्वाध्याय करते और धर्म चर्चा करते रहते थे। इन दोनों ने ही घर छोड़कर मोक्षमार्ग में बढ़ने का विचार बना लिया था किन्तु दोनों ने अपने परिवार को भनक भी नहीं लगने दिया। एक दिन जुलाई १९६६ में दोनों ही सदलगा से बिना बताये चुपचाप दोपहर में तीन बजे निकल गए। शाम को जब विद्याधर भोजन करने घर नहीं आया तो सोचा कि मन्दिर में होगा। अक्का ने मुझे बसदि (मंदिर) में देखने भेजा, किन्तु मुझे वहाँ पर नहीं मिला तो मैंने शेष दोनों मन्दिर जाकर देखा तो वहाँ पर भी नहीं मिला। घर पर आकर बताया तो माँ को चिन्ता लग गई, आधी रात निकल गई पिताजी बोले सो जाओ सुबह आ जायेगा। सुबह भी हो गई पर विद्याधर नहीं आया। सभी मित्रों से जाकर पता किया किसी को नहीं मालूम कहाँ गया, किन्तु जिनगोंड़ा घर पर नहीं मिला तब विचार आया कि जिनगोंड़ा के साथ किसी मुनि महाराज के पास गया होगा। राह देखते-देखते कुछ दिन निकल गए एक दिन परमपूज्य आचार्य देशभूषण महाराज का पत्र मिला, जो चूलगिरि जयपुर से भेजा गया अन्तरदेशी पत्र था। पत्र आते ही पिताजी ने पढ़ा और मुस्कुराते हुए माँ से बोले-लो तुम्हारा बेटा बहुत बड़ा हो गया है, इतनी दूर चला गया है जहाँ से जल्दी लौट पाना सम्भव नहीं होगा, अब चार माह विद्याधर की राह देखना बेकार है, वह राजस्थान प्रान्त की राजधानी जयपुर में चूलगिरि तीर्थक्षेत्र पर चातुर्मास कर रहे आचार्य देशभूषण जी महाराज के पास अध्ययन करने के लिए गया है। अब उसको वापिस लाने के लिए जाना बेकार है क्योंकि पूरा अध्ययन करके ही चार माह बाद वापस आयेगा। तब अक्का (माँ) बोली-उसे वापस लाना चाहिए, तो पिताजी बोले उसका मन पढ़ने में लगा है तो उसे वापस लाना बेकार है, यह तो अच्छी बात है वह धर्म का अध्ययन कर रहा है करने दो, चार माह ही है फिर आ जायेगा और इधर उसका कोई काम भी नहीं है। और पत्र अक्का को पकड़ा दिया। फिर मेरे से पूछा तुमसे उसने पैसे माँगे थे? मैंने कहा नहीं, अक्का ने भी कहा मुझसे भी नहीं माँगे, तब मैंने कहा कुछ पैसे उसके पास जुड़े हुए थे और जिनगोंड़ा के साथ में होगा तब पिताजी बोले वही लेकर गया है पत्र में दोनों का जिक्र है। मैंने भी वह पत्र माँ से लेकर पढा उसमें ये लिखा था- ‘मल्लप्पा जी आपका बेटा हमारे पास आया हुआ है कोई बात की चिन्ता नहीं करना, वह बहुत होशियार है, होनहार है, हम उसको अच्छा बना देंगे। उसने अभी अच्छी तरह हिन्दी पढ़ना शुरु किया है, उसको पढ़ाने के लिए एक पण्डितजी को नियुक्त किया गया है। उसका विचार पूरा चौमासा तक पढ़ने का है, देखो! आगे उसका विचार क्या है? जिनगोंड़ा उसके साथ में आया है। यह पत्र हिन्दी भाषा में था सम्भवतः आचार्य देशभूषण जी महाराज ने स्वयं ही लिखा था अथवा लिखवाया था। दादी माँ को विद्याधर से अत्यधिक प्रेम था। विद्याधर के जाने के बाद उन्हें पता चला तो वो पिताजी को बार-बार बोलने लगीं गिनी (विद्याधर का एक नाम) को जाकर लेकर आओ। तब पिताजी उनको सांत्वना देते वो चातुर्मास के बाद आ जायेगा पढ़ने के लिए गया है। विद्याधर के जाने के बाद दूसरे दिन ही मारुति आया तब पिताजी ने मारुति को डांटा था कि तुमको सब पता है विद्याधर कहाँ गया है? किन्तु तुम बता नहीं रहे हो। जब पाँच दिन बाद उसको हमने बताया तब उसे यह बात पता चली। घर पर उसके कपड़ों में दो पायजामा, दो कुर्ता, दो चड्डी-बनियान, एक गमछा (तौलिया) और एक थैली के अभाव को देखकर हम लोग समझ गए थे कि एक पायजामा, कुर्ता, चड्डी बनियान पहनकर और एक-एक रखकर ले गया है।शुरु से ही मितव्ययी एवं अपरिग्रह का भाव रहता था। चातुर्मास के बाद भी वह नहीं आया तब दादी माँ ने और बहिनों ने अन्ना को कहा आप जाकर लाओ या दादा (बड़े भैया) को भेजो। कुछ दिन बाद कोथली से समाचार मिला कि आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज का संघ गोम्मटेश्वर महामस्तकाभिषेक महोत्सव में जा रहा है।३० मार्च सन् १९६७ को गोम्मटेश्वर बाहुवली भगवान् का महामस्तकाभिषेक प्रारम्भ हुआ और महोत्सव के बाद मई माह में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ससंघ सदलगा से पच्चीस किलोमीटर दूर स्तवनिधि तीर्थक्षेत्र पर आये। समाचार मिलते ही प्रथम दिन ही मैं विद्याधर को लेने गया। वहाँ पर आचार्य देशभूषण जी महाराज के दर्शन किए तब उन्होंने हमको देखकर कहा- ‘क्यों महावीर विद्याधर को लेने आये हो तब हमने कहा हाँ। तो बोले ले जाओ, पर उसका मन नहीं लगेगा, वो वैरागी है और साधु सेवा में उसका बहुत मन लगता है। जब से हमारे पास आया है तब से लगभग एक वर्ष होने को है, उसकी सेवा वैयावृत्य में लग्नशीलता और समर्पण अलौकिक है। चूलगिरि जयपुर चातुर्मास में एक दिन मुझे अर्ध रात्रि में बिच्छू ने ढंक मार दिया था, तब ऊपर पहाड़ पर कोई श्रावकगण नहीं थे और संघस्थ लोग नीचे जाने से डर रहे थे। कारण कि वहाँ जंगल है और शेर बगैरह आते रहते हैं। ऐसी स्थिति में ब्रह्मचारी विद्याधर अकेला ही पहाड़ी से नीचे चला गया, वहाँ से दवा लेकर आया और मुझको लगाई, उससे हमारा दर्द ठीक हो गया। उसकी निडरता और बहादुरी देखकर मैं समझ गया यह बहुत बड़ा साधक महापुरुष बनेगा। विद्याधर बलवान् भी है, जयपुर से श्रवणबेलगोला तक पैदल आया, रास्ते में कई बार मेरी डोली लेकर भी चला, पर वह थकता नहीं था, कठोर परिश्रमी है और उसकी मोक्षमार्ग में बढ़ने की इच्छा है। इसलिए जयपुर चूलगिरि में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है और श्रवणबेलगोला में महामस्तकाभिषेक करके बहुत आनंदित उत्साहित हुआ उसी दिन सात प्रतिमा के व्रतों के भी संकल्प उसने ले लिए हैं। इसलिए हम उसे घर जाने की आज्ञा नहीं देंगे। आप ले जाना चाहते हैं और वो जाना चाहता है तो ले जाओ। तब मैं, विद्याधर के पास गया, देखा तो वह लट्ठा के सफेद धोती-दुपट्टा पहने हुए था। सिर के बड़ेबड़े बाल-दाढ़ी-मूछ देखकर मैं अचम्भित रह गया। तब हमारी बात हुई उसने बताया जिनगोंड़ा एवं हमने आचार्य श्री देशभूषण जी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है और गोम्मटेश्वर बाहुबली भगवान् का ३० मार्च को महामस्तकाभिषेक किया तो अत्यधिक विशुद्धि बढ़ी तो उस दिन हम दोनों ने आचार्य महाराज से सात प्रतिमा के संकल्प ले लिए हैं। यह सुनकर हमने कहा घर चलो, ८ माह बहुत पढ़ लिया है। दादी माँ, अक्का, अन्ना सभी याद कर रहे हैं। तो बोला ४-६ वर्ष लग जायेंगे पढ़ाई करने में तब भी अध्ययन पूरा नहीं हो पायेगा यह कहकर अपने कार्य में लग गया। यह सुनकर मैं घर आ गया। दूसरे दिन पिताजी एवं मित्र मारुति उसे लेने गए तो विद्याधर उन्हें नहीं मिला तब अन्ना ने आचार्य देशभूषण जी महाराज को पूछा विद्याधर नहीं दिख रहा है वो कहाँ है? तो आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज बोले कल उसका बड़ा भाई लेने आया था तो वह समझ गया कि पिताजी भी आयेंगे और मुझको जबरदस्ती पकड़कर ले जायेंगे। मुझे संसार में नहीं फँसना। है इसलिए मैं उत्तर भारत जाता हूँ, ऐसा कहकर आशीर्वाद लेकर चला गया, लेकिन आप चिन्ता न करें वो लौटकर आ जायेगा, कहाँ जायेगा, उसे हिन्दी भी सही नहीं आती है अतः लौटकर आ जायेगा, ऐसा आश्वासन पाकर पिताजी घर वापस आ गए और घर पर आकर बताया। ४-५ माह तक पिताजी गुस्से में रहे घर का वातावरण अशान्त रहा, बस शान्त था कोई, तो वह थी माँ।" इस प्रकार शरद की पूर्णिमा के चन्द्रमा की ज्योत्स्ना में जन्मा विद्याधर शुभ्र ज्योत्स्ना के भाव लेकर अनन्त की सीमा में ना जाने कहाँ पुनः खो गया, किन्तु माँ को विश्वास था शुक्लप्रकाश में जन्मी मेरे अन्तस् की ऊर्जा, दिव्य स्वप्नों का प्रतीक, मेरा विद्या अज्ञान अन्धकार में नहीं भटक सकता। तो फिर विद्याधर गया कहाँ... इस रहस्य को मैं आगे पत्र में खोलूँगा...। उस दिव्य ज्योति को प्रणाम करता हूँ... जो जीवात्मा में जाज्वल्यमान है। आपका शिष्यानुशिष्य
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