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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - २४ बारह वर्षीय विद्याधर ने शुरु किए एकासन, पारिवारिक परम्परा का निर्वहन किया विद्याधर ने एवं माँ के व्रतोद्यापन के कनिष्ठ प्रबंधक विद्याधर

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    २७-१२-२०१५

    गुलगाँव (केकड़ी राजः)

     

    निजत्व अनुभव की, अपनत्व की प्रतिमा गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में निज में अपनत्व जगाने हेतु नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे गुरुवर! आज मैं आपको विद्याधर के श्रावक तप संस्कारों के जागरण के बारे में लिख रहा हूँ जैसा कि विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया-

     

    बारह वर्षीय विद्याधर ने शुरु किए एकासन

    "पर्युषण पर्व में माता-पिता पूजा-अनुष्ठान करके जब घर आते थे तो साथ में गन्धोदक लेकर घर आते थे। तब मैं और विद्याधर गन्धोदक लगाकर ही माता-पिता के साथ भोजन ग्रहण करते थे और एकासन करते थे। विद्याधर ने १२ वर्ष की अवस्था से एकासन करना शुरु कर दिया था और जब तक घर पर रहा तब तक प्रतिवर्ष पर्युषण पर्व में एकासन करता था।" इसी प्रकार कर्नाटक की परम्परा के अनुसार भी एक बार विद्याधर ने मंदिर जी में परिवार की ओर से व्रत अनुष्ठान किया था। इस सम्बन्ध में विद्याधर के ज्येष्ठ भ्राता ने बताया-

     

    पारिवारिक परम्परा का निर्वहन किया विद्याधर ने

    "कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में दसलक्षण पर्व में नोंपी (व्रत) रखते हैं, जिसमें सोलहकारण व्रत सोलह वर्ष तक करते हैं। दसलक्षण व्रत दस वर्ष तक करते हैं। रत्नत्रय व्रत तीन वर्ष तक करते हैं, किन्तु अनन्त व्रत तीन दिन का होता है। जिसको परिवार की ओर से जीवन भर करते हैं। पिताजी के स्वर्गवास होने पर पुत्र उनको चालू रखते हैं। इसीलिए उसे अनन्त व्रत कहते हैं। ये सभी व्रत करने वाले मंदिरजी में सुबह सामूहिक अभिषेक-पूजन करते हैं, इस क्रिया में ५-६ घंटे लग जाते हैं। यदि किसी का स्वास्थ्य खराब हो जाता है तो परिवार का कोई दूसरा सदस्य सम्मिलित होता है। एक बार पिताजी का स्वास्थ्य खराब हो गया था तो विद्याधर ने उस व्रत को चालू रखने के लिए उत्साह दिखाया तो उसे माँ की आज्ञा मिल गई तो वह उस अभिषेक-पूजन की क्रिया में गया था। मंदिर से जब ५-६ घण्टे बाद पूजा करके घर आया तो हमने बोला-तुम थक गए होगे, कल से मैं चला जाऊँगा। तो बोला-थकने की बात ही कहाँ, वहाँ तो बहुत अच्छा लगता है। मैं तो बैठ ही गया हूँ, छोड़ेंगा नहीं।’’

     

    इस प्रकार विद्याधर कुल परम्परा की रीति रस्मों को उत्साह के साथ पालन करता था और माँ (श्रीमन्तीजी) जो भी व्रत पूर्ण करती थीं, उनके उद्यापन के कार्यक्रम में बड़ी तत्परता से प्रबन्धन करता था। इस सम्बन्ध में अग्रज भाई महावीर जी ने बताया- 

     

    माँ के व्रतोद्यापन के कनिष्ठ प्रबंधक विद्याधर

    ‘माँ सदा व्रत वगैरह करती रहती थी। अष्टमी-चतुर्दशी के दिन माँ-पिताजी उपवास करते थे, यह मैंने बचपन से ही देखा है। माँ ने रोहणी व्रत, णमोकार व्रत, दसलक्षण व्रत, सोलहकारण व्रत, रविव्रत,  चौबस तीर्थंकरों के पंचकल्याणक व्रत, रत्नत्रय व्रत, अनन्त व्रत आदि किए थे और पिताजी ने उद्यापन कराया था। तब विद्याधर उद्यापन के लिए दिए जाने वाले 'बागिना' (केले के पत्ते में बादाम, खजूर, जनेऊ,अक्षत, गंध, नारियल, फल, नैवेद्य, मिश्री, गन्ने का टुकड़ा, पुष्प आदि वस्तुएँ रखकर) तैयार करते थे और साधर्मी भाईयों, रिश्तेदारों एवं परिचितों को निमंत्रण देने के लिए बहिन को लेकर जाते थे एवं अक्षत देकर भोजन के लिए निमंत्रित करते थे। सभी अतिथियों को पंगत में बैठाकर भोजन परोसते थे और भोजन के  पश्चात् ‘बागिना' तथा बर्तन सप्रेम भेंट करते थे। इसके साथ ही रिश्तेदारों को वस्त्रादि विशेष भेंट दिए जाते हैं, तो वह भी अपने हाथों से देता था। इस काम को करने में विद्याधर विशेष रुचि लेता था।” इस प्रकार घर में श्रावकोचित तप साधना का प्रभाव विद्याधर पर भी पड़ा और व्रतों से अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने में बचपन से ही संलग्न हो गया था। साथ ही माँ के व्रतों के उद्यापन के प्रभावनापूर्ण कार्यक्रम में बढ़चढ़कर भाग लेता। ऐसे सम्यक्त्वाचरण को नमन करता हुआ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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