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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. शान्त-रस किसी बहाव में बहता नहीं कभी जमाना पलटने पर भी जमा रहता अपने स्थान पर। इससे यह भी ध्वनि निकलती है कि करुणा में वात्सल्य का मिश्रण सम्भव नहीं है। और वात्सल्य को हम पोल नहीं कह सकते न ही कपोल-कल्पित। महासत्ता माँ के गोल-गोल कपोल-तल पर पुलकित होता है यह वात्सल्य। करुणा-सम वात्सल्य भी द्वैत-भोजी तो होता है। पर, ममता-समेत मौजी होता है, इसमें बाहरी आदान-प्रदान की प्रमुखता रहती है, भीतरी उपादान गौण होता है यही कारण है, इसमें अद्वैत मौन होता है। सहधर्मी-सम आचार-विचारों पर ही इसका प्रयोग होता है इसकी अभिव्यक्ति मृदु मुस्कान के बिना सम्भव ही नहीं है। वात्सल्यरस के आस्वादन में The Sentiment of Quietism Doesn’t flow under any drive Even when the era alters It stands firm on its very spot. It also implies that The admixture of Parental Affection Is not possible with Compassion And The Parental Affection Can neither be declared as baseless Nor can it be asserted as mere imaginary. Upon the surface of the circular cheeks Of the grand existence of Mother-Nature This Sentiment of Parental Affection rejoices. The Sentiment of Parental Affection, like Compassion, Is bipartite indeed But, along with fondness, it is merry-making, With it The external give and take plays an important role, The internal factors are subsidiary That is why the sense of non-duality Remains inert in it. Like an associate member of a religion It is applied only On behaviour and thoughts The expression of it Is surely not possible Without a sweet smile. In the tasting of the Sentiment of Affection,
  2. १९-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) स्व-व्यवसायी आत्मावलम्बी स्वाभिमानी गुरुवर ज्ञानसागरजी महाराज के पावन चरणों में आत्मावलम्बी बनने हेतु त्रिकाल, त्रियोगपूर्वक, त्रिभक्तिमयी नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे भारतीय संस्कृति मर्मज्ञ गुरुवर! आप सोच रहे होंगे कि पहले भौगोलिक स्थिती बतायी अब व्यवसाय के बारे में बता रहे हो आखिर इन सब से क्या लेना देना। सच तो यह है कि आपके बहाने जगत् का उपकार किया जा रहा है दूसरी बात यह है कि विद्याधर की धमनियों में जो रक्त प्रवाहित है वह आखिर किस भोजन से बना है जो समस्त विश्व के पालनहार बन गए। इस सम्बन्ध में बड़े भाई महावीरजी ने बताया- पैतृक व्यवसाय ने दी ऊँची सोच ‘‘सदलगा मूलत: कृषि आधारित क्षेत्र है। यहाँ खेती एवं पशु पालन जीवन का आधार है। यहाँ की मुख्य फसल गन्ना है जो बिना कीटनाशक के अहिंसक तरीके से उत्पन्न किया जाता था। इसके सिवा तम्बाकू, मिर्ची, मूंगफली, गेहूँ एवं ज्वार की फसल प्रचुर मात्रा में होती है। पानी प्रचुर मात्रा में होने से एक एकड़ में १०० टन गन्ने की पैदावार होती है। ५ फीट ऊँचाई तक घास पैदा होती हैं। एक ही जिले में ३० शक्कर की फैक्ट्रियाँ हैं। यहाँ पर गेहूँ छिल्का सहित बोया जाता है इससे अत्यन्त पौष्टिक गुणकारी गेहूँ पैदा होता है, जो लाल रंग का होता, जिसकी खीर बहुत स्वादिष्ट बनती है। यहाँ के निवासी गाय, बैल, भैंस आदि पशुओं को बड़े ही प्यार से पालते हैं और खेतों में गोबर, गौमूत्र से निर्मित खाद डाला जाता है। पौष्टिक आहार खिलाने के कारण सभी पशु शक्तिशाली होते हैं। हमारे घर में आठ बैलों से चलने वाला हल था। यहाँ पर आज भी ४, ६ और ८ बैलों से चलने वाले हल हुआ करते हैं क्योंकि गन्ने में बहुत गहराई तक जुताई होती है जिसमें ज्यादा ताकत की जरुरत पड़ती है। पिताजी (मल्लप्पाजी) कभी भी नौकरी के पक्षधर नहीं रहे। एक बार मेरी नौकरी करने की इच्छा होते हुए भी उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया था कि हम मालिक से नौकर बनेंगे क्या? इसलिए हमने पिता के निर्देश पर कृषि कार्य को अपनाया किन्तु जब विद्याधर ८-९ वर्ष का था तब कोई उससे पूँछता बड़े होकर क्या बनोगे? तो बड़ेगर्व के साथ बोलता था कि मैं नौकर नहीं बनूंगा कोई नौकरी नहीं करूँगा और कृषि कार्य भी नहीं करूँगा, मैं तो बड़ा बिजनेसमैन बनूंगा जिसमें मोल भाव नहीं किया जाता, ऐसी एजेन्सी लूँगा।” इस तरह भगवान ऋषभदेव के द्वारा बताई गई कर्मयुगी अहिंसक कृषि व्यवस्था अष्टगे परिवार की आजीविका थी। कठिन परिश्रमी पिता के पूर्ण संस्कार विद्याधर के रक्त में घुले हुए थे। यही कारण है कि विद्याधर नौकरी को अच्छा नहीं मानता था किन्तु नया कुछ करने की ऊँची सोच थी। मैं भी स्वावलम्बी बनूँ इस भावना के साथ... कृपाकाँक्षी शिष्यानुशिष्य
  3. १८-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) जिनवाणी के मौन साधक महान् तत्त्ववेत्ता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में तत्त्वजिज्ञासु का नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे जिनवच भाषक गुरुवर! यद्यपि विद्याधर पूर्व संस्कारों के प्रभाव से अलौकिक क्रियाकर्म में नियोजित था, किन्तु नियति ने नौ वर्ष की उम्र में ऐसा मणिकांचन संयोग मिलाया कि विद्याधर का मन लौकिक पढाई से उचट गया और वह आत्म कल्याण की बातें सोचने लगा। उस संयोग के बारे में बड़े भाई महावीर जी ने बताया- आचार्य श्री शान्तिसागर जी की कथा ने बनाया कथानायक "शेडवाल (जिला-बेलगाँव) में परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज का चातुर्मास चल रहा था तब हम लोग अक्का-अन्ना (माता-पिता) के साथ उनके दर्शनार्थ गए थे उस वक्त विद्याधर नौ वर्ष का था। संघस्थ मुनिराज वर्धमानसागर जी (आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के गृहस्थ अवस्था के बड़े भाई) का केशलोंच चल रहा था और चारित्र चक्रवर्ती महाराज प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन के मध्य उन्होंने दो कहानियाँ सुनाईं । प्रथम कहानी - एक बाप-बेटे चोर थे। चोर पिता ने बेटे को दिगम्बर मुनि के प्रवचन सुनने को मना किया, किन्तु चोरी कर भागते समय पैर में काँटा लगा और उसी समय एक मुनि महाराज के प्रवचन के शब्द कानों में पड़े "सत्यमेव जयते" सत्यवान की जीत होती है, इसलिए सदा सत्य बोलना चाहिए। दूसरे दिन उस चोर ने सत्य बोलते हुए राजा के महल में चोरी कर ली, किन्तु उसे किसी ने भी चोर नहीं माना। उसके दूसरे दिन राज्यसभा में जाकर उसने सारा रहस्य खोल दिया और दिगम्बर मुनि के ऊपर विश्वास करते हुए कि दिगम्बर मुनि सत्य बोलते हैं और उन मुनि के पास पहुँच गया एवं सच्ची राह पर चल पड़ा। दूसरी कहानी - एक गड़रिया था उसने एक ब्राह्मण व्यक्ति को नदी में डुबकी लगाकर भगवान् को नमस्कार करते हुए देखा। उसने उससे पूछा कि आप ऐसा क्यों करते हैं? तो उसने कहा कि मुझे पानी के तल में भगवान् दिखते हैं। गड़रिये ने भी बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ उसके जैसा ही किया। किसी देवता ने उसकी श्रद्धा भक्ति को देखकर उसे दर्शन दिए। इन कहानियों से यह शिक्षा मिलती है कि हमें भगवान् पर, गुरु पर सच्ची श्रद्धा-भक्ति रखनी चाहिए और गुरु की शिक्षा को अपने जीवन में उतारना चाहिए। इसी से ही अपना आत्मकल्याण हो सकता है। प्रवचन के उपरान्त हम लोग घर वापस आ गए। तब विद्याधर ने मुझसे कहा था कि ‘जीवन जीने के लिए गृहस्थाश्रम में कुछ भी सार नहीं है। वह महाराज के प्रवचन सुनकर बड़ा प्रभावित हुआ और तभी से उसमें परिवर्तन आने लगा था |” इस तरह विद्याधर की होनहारता का परिचय मिल जाता है कि उसने प्रवचन में छिपे अन्तस्तत्त्व को पहचान लिया और लक्ष्य निर्धारित कर लिया, तभी से आया विद्याधर के जीवन में नया मोड़। उस गूढदृष्टि को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. दाह को मिटा कर सूख पाती है, और नदी सागर को जाती है राह को मिटा कर सुख पाती है। इस विषय को और उघाड़ना चाहूँगा कि धूल में पड़ते ही जल वह दल-दल में बदल जाता है किन्तु, हिम की डली वो धूली में पड़ी भी हो बदलाहट सम्भव नहीं ग्रहण-भाव का अभाव है उसमें और जल को अनल का योग मिलते ही उसकी शीतलता मिटती है और वह जलता है, औरों को जलाता भी! परन्तु, हिम की डली को अनल पर रखने पर भी उसकी शीतलता मिटती नहीं है और वह जलती नहीं, न जलाती औरों को। लगभग यही स्थिति है करुणा और शान्त-रस की। करुणा तरल है, बहती है पर से प्रभावित होती झट-सी। Having effaced the inflammation It gets dried up, and The river flows towards the sea Having erased the way It attains happiness. I would like to go into more details of the topic - That As soon as the water drops down upon the dust It changes into the marsh But, That fragment of snow Even if it is confined within the dust There is no probability of change in it The receptive-sense doesn't exist therein. And As soon as the water comes in contact with fire Its coolness disappears And it Not only burns itself but also inflames others ! But, The piece of snow On being placed upon fire Doesn't lose its coolness And Neither it burns itself, nor scorches others. Almost this is the state Of compassion and the Sentiment of Quietism. The compassion is fluid, flows on It gets influenced instantly by external factors.
  5. बहिर्मुखी अवश्य होता है। और जिस पर करुणा की जा रही है, वह अधोमुखी...तो नहीं, ऊर्ध्वमुखी अवश्य होता है। तथापि, ऊर्ध्वगामी होने का कोई नियम नहीं है। करुणा की दो स्थितियाँ होती हैं- एक विषय-लोलुपिनी दूसरी विषय-लोपिनी, दिशा-बोधिनी। पहली की चर्चा यहाँ नहीं है ! चर्चा-अर्चा दूसरी की है! ‘‘इस करुणा का स्वाद किन शब्दों में कहूँ! गर यकीन हो नमकीन आँसूओं का स्वाद है वह!" इसीलिए करुणा रस में शान्त-रस का अन्तर्भाव मानना बड़ी भूल है उछलती हुई उपयोग की परिणति वह करुणा है नहर की भाँति! और उजली-सी उपयोग की परिणति वह शान्त रस है नदी की भाँति! नहर खेत में जाती है - He is certainly an extrovert. And The one on whom the mercy is being shown, ...Isn't really a downcast man, - Is definitely the one with his face upcast. Nevertheless, There is no set rule about attaining the higher self”. There are two states of compassion - The one which is greedy towards sensuousness The other which eliminates sensuousness, indicates the right way. The first one is not under mention here The second one is being referred to and adored ! "In what words should I describe The flavour of this compassion ! If you believe It is the taste Of the saline tears !” That is why It is erroneous To recognize the inclusion of the Sentiment of peace Within the Sentiment of Compassion. The earnest inclination leaping forward for promoting its application Like a canal Is compassion ! And The bright bent of mind devoted to ‘Self" Like a silent river ! Is the Sentiment of Quietism ! A canal enters a field,
  6. करुणा हेय नहीं है, करुणा की अपनी उपादेयता है अपनी सीमा...! फिर भी, करुणा की सही स्थिति समझना है। करुणा करने वाला अहं का पोषक भले ही न बने, परन्तु स्वयं को गुरु-शिष्य अवश्य समझता है और जिस पर करुणा की जा रही है वह स्वयं को शिशु-शिष्य अवश्य समझता है। दोनों का मन द्रवीभूत होता है शिष्य शरण लेकर गुरु शरण देकर कुछ अपूर्व अनुभव करते हैं पर इसे सही सुख नहीं कह सकते हम। दुःख मिटने का और सुख मिलने का द्वार खुला अवश्य, फिर भी ये दोनों दुःख को भूल जाते हैं इस घड़ी में! करुणा करने वाला अधोगामी तो नहीं होता, किन्तु अधोमुखी यानी- Compassion is not worthless, Compassion has its own beneficence Its own limits...! Even then, The true place of compassion has to be Understood. The one who shows mercy May not well be a cherisher of self-conceit, But He takes himself to be Surely an eminent disciple And The one who is being favoured for compassion Thinks himself to be Certainly a younger disciple. The heart of the both of them is compassionate The disciple by obtaining shelter The spiritual guide by granting shelter Experience something unique. But We can't say it to be the true happiness. The door of the cessation of sufferings And The attainment of happiness was surely opened, Even then the both of these two Forget the woes at this occasion ! The one who is compassionate Is not indeed a lower man But The one, with a downcast face, that is –
  7. १७-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) ज्ञानेन्दु अमृत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पुनीत चरण युगलों की वंदना करके उस विराट महापुरुष के व्यक्तित्व में जड़ित चातुर्य गुण के दो संस्मरण आपको बता रहा हूँ-जो मैंने बड़े भाई महावीर जी से सुने हैं- खेलों के खिलाड़ी 'विद्याधर जब ८-९ वर्ष का था तब सूरफलंग नामक खेल खेलता था जिसमें बच्चे पेड़ों पर चढ़ जाते थे और एक बच्चा जमीन पर गोला बनाकर बीच में लकड़ी गड़ाकर रख देता था और चारों तरफ से बच्चे पेड़ पर से उतरते उस लकड़ी को छूते और भागकर पुनः चढ़ते थे, नीचे वाला बच्चा उनको पकड़ता था। जिसको भी पकड़ लिया वह हार जाता था और फिर उसे नीचे रहना पड़ता था। यह खेल सदलगा में गुफा के चारों ओर जहाँ वट वृक्ष लगे हैं, वहाँ खेलते थे। उनकी लटकती हुई जड़ों को पकड़कर पेड़ पर चढ़ते-उतरते थे। कभी मित्रों के साथ गिल्ली-डंडा खेलता था। जब और बड़ा हुआ तो कैरम एवं शतरंज खेलने लगा था। कैरम एवं चैस में इतना अभ्यस्त हो गया था कि बड़ों को भी हरा देता था, किन्तु जब कभी चैस में हार जाता तो अकेले बैठकर उन चालों पर विचार करता था। फिर दोबारा जीतकर ही मानता था। मैं कभी भी चैस में विद्याधर से नहीं जीता। हाई स्कूल में पढ़ते वक्त स्कूल की बालीबॉल टीम में, खो-खो टीम में एवं कबड्डी टीम में खेला करता था।” इस तरह वह खेलों में सावधानी से खेला करता था। आज वह चातुर्य गुण युवा पीढी को जीवन की कला सिखा रहा है। इसी प्रकार चातुर्यगुण का दूसरा संस्मरण- घुड़सवार विद्याधर ‘‘विद्याधर जब १३-१४ वर्ष का था तब खेत पर मेरे साथ जाता था। तो वहाँ पर खेत पर काम करने वाला एक व्यक्ति घोड़ा लेकर आता था। उसका घोड़ा देखकर विद्याधर उस पर बैठकर धीरे-धीरे दौड़ाना सीख गया था। उसको किसी ने ट्रेनिंग नहीं दी। स्वतः ही सीख गया था।’’ इस तरह विद्याधर ने साहस एवं चतुराई से अश्व को अपने नियंत्रण में लेकर घुड़दौड़ की कला को भी हस्तगत कर लिया था। जीवन के सर्वकला विज्ञ को प्रणाम करता हुआ.... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. इस पर शिल्पी कहता है : ‘रोना करुणा का स्वभाव नहीं है, बिना रोये करुणा का प्रयोग भी सम्भव नहीं। करुणा का होना और करुणा का करना इन दोनों में अन्तर है, तथापि इतनी अति अच्छी नहीं लगती। इस बात को मानता हूँ, कि बिना खाद-डली खेत की अपेक्षा खाद-डली खेत की वह फसल लहलहाती है, परन्तु खाद में बीज बोने पर तो... फसल जलती-दहदहाती है। हाँ, हाँ !! अनुपात से खाद-जल दे दिया खेत को बीज बिखेर दिये खेत में फिर भी बीज वे अंकुरित नहीं होते माटी का हाथ उन पर नहीं होने से। इतना ही नहीं, जिन बीजों पर माटी का भार-दबाव बहुत पड़ा हो वे भी अंकुरित हो नहीं आ सकते भू-पर दम घुट जाता है उनका, भीतर ही भीतर। At this, the Artisan Says: “Bewailing is not the nature of Compassion, Without weeping, the application too Of compassion is not possible. The compassion in feeling And The compassion in action - There is difference between both of them, Nevertheless So much of excess doesn't seem befitting! I acknowledge the point, That In comparison to an unmanured field The harvest of the manured field Is more flourishing, But On sowing the seeds into the manure… The crop gets scorched and emits flames. Yes, o yes !! The field is filled with manure and water in due Proportion The seeds are scattered over the farm Even then they don’t get sprouted Without the hand of the Soil caressing them. Not only this much, Those seeds, Upon which the pressure-weight of the Soil is too heavy Don't appear out of the soil – On getting sprouted – Inside the very layers, they get themselves suffocated.
  9. १६-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) सर्वविद्या पारंगत प्रज्ञाचक्षु गुरुवर के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे प्रज्ञाश्रमण गुरुवर! आज मैं आपको विद्याधर की प्राथमिक शिक्षा का वर्णन लिख रहा हूँ। आपको यह तो विदित ही है कि वे जन्म से ही होनहार थे और परिवार के उच्च संस्कारों ने उनको और अधिक संवार दिया था। जिस तरह प्रत्येक पिता अपनी संतान के प्रति उसके अबोधकाल में अपने दायित्व का निर्वाहन करते हैं इसी तरह मल्लप्पाजी ने भी किया। इस बात को बड़े भाई महावीर जी से पूछने पर जो ज्ञात हुआ सो उन्हीं के शब्दों में लिख रहा हूँ- विद्याधर के कालखण्ड की शिक्षा व्यवस्था और पिता का कर्तव्य ‘‘जब विद्याधर पाँच वर्ष का हुआ तब अन्नाजी (पिताजी) ने विद्याधर को प्राथमिक विद्यालय में दाखिल कराया था उस विद्यालय का नाम-‘कन्नड़ गन्डु मक्कड़शालेय', सदलगा (कन्नड़ बालक प्राथमिक शाला, सदलगा) था। जो घर से आधा कि.मी. दूर था। प्रारम्भ में अन्नाजी विद्याधर को स्कूल छोड़ने जाते थे और वापस वह मेरे साथ आता था। कुछ समय बाद मेरे साथ ही जाता-आता था। वैसे वह स्कूल जाने में रोया नहीं। यह क्रम पहली से चौथी कक्षा तक चला। उस समय विद्यालय में पढ़ाई सुबह-शाम दो भागों में हुआ करती थी। सुबह सात बजे विद्यालय जाते और ११ बजे वापस आते थे और पुन: भोजन करके जाते और शाम को पाँच बजे लौटते थे हम लोग अपनी-अपनी कॉपी-किताबें बड़े से कपड़े में लपेटकर ले जाते थे और बैठने के लिए अपनी-अपनी टाटपट्टी भी ले जाते थे। विद्यालय में प्रतिदिन सुबह ७ बजे से प्रार्थना हुआ करती थी उसमें जो बच्चे उपस्थित होते थे, उन बच्चों को पाँच अंक दिए जाते थे। प्रतिदिन शिक्षक द्वारा दिया गया पाठ याद करके सुनाना होता था, उसके अनुसार भी अंक मिलते थे और शिक्षक वे अंक तुरन्त बच्चों को बता दिया करते थे। शाम को विद्यार्थियों को अपने घर जाने से पहले दिनभर में प्राप्त अपने अंक शिक्षक के पास लिखवाने होते थे। कोई भी बच्चा इस प्रक्रिया में बेईमानी नहीं करता था। सभी ईमानदारी से अपने अंक बताते थे। विद्यालय के प्रत्येक कक्षा के विद्यार्थियों को अपनी कक्षा में सफाई करना पड़ती थी। इसके लिए ३-३, ४-४ विद्यार्थियों की टोलियाँ बनी हुई थीं जो बारी-बारी से कक्षा को गोबर से लीपा करती थीं। विद्याधर ने भी अपनी कक्षा की टोली बना रखी थी और इस कार्य में वह कभी भी प्रमाद नहीं करता था। उस समय सभी विद्यार्थी विद्यालय को विद्यामन्दिर मानकर विनय किया करते थे। शिक्षकगण प्रत्येक कक्षा के विद्यार्थियों की टोली को सफाई के अंक देते थे और सप्ताह के अन्त में हर क्रिया के अंकों को जोड़कर परिणाम निकाला जाता था उसी के अनुसार प्रथम, द्वितीय, तृतीय स्थान बताया जाता था और उन बच्चों को उसी क्रम से कक्षा में आगे बैठने मिलता था। प्रथम स्थान प्राप्त बच्चे को कक्षा की हाजिरी लगाने को भी मिलती थी। विद्याधर जब भी द्वितीय, तृतीय स्थान पर आता, तब उदास होकर घर आता था। उसकी उदासी देखकर अक्का (माँ) समझ जाती थी, फिर उसे बड़े प्यार से समझाती थी और आगे के लिए सावधान करती थी। मैं और विद्याधर कन्नड़ माध्यम से पढ़ते थे किन्तु उसी विद्यालय में मराठी माध्यम से भी पढ़ाई होती थी। आगे चलकर छोटे भाई अनन्तनाथ और शान्तिनाथ मराठी माध्यम से पढ़े थे एवं बहिन शान्ता बाई ने कन्नड़ माध्यम से पढ़ाई की तथा बहिन सुवर्णा बाई ने मराठी माध्यम से पढ़ाई की।” इस तरह उस कालखण्ड में शिक्षा की व्यवस्था अनुशासनमय थी और विद्यालयों को ज्ञान मन्दिर का दर्जा था ।आपश्री के चरणों में नमन... जिज्ञासु शिष्यानुशिष्य
  10. दूब उग आई है खूब! वर्षा के कारण नहीं; चारित्र से दूर रह कर केवल कथनी में करुणा रस घोल धर्मामृत-वर्षा करने वालों की भीड़ के कारण! आज पथ दिखाने वालों को पथ दिख नहीं रहा है, माँ! कारण विदित ही है- जिसे पथ दिखाया जा रहा है वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं, औरों को चलाना चाहता है और इन चालाक चालकों की संख्या अनगिन है। क्या करूँ ? जो कुछ घट रहा है लिखती हूँ...उसे उसका रस चखती हूँ फिर...बिलखती...हूँ… लिखती...हूँ...माँ! लेखनी...जो...रही...!'' शिल्पी को स्तब्ध देख कर क्या करुणा की पालड़ी भी हलकी पड़ी ? इतनी बाल की खाल तो मत निकालो- कहती-कहती करुणा रो पड़ी ! The grass has sprung up in abundance ! Not due to rains, But due to the crowds of those Who, showing indifference towards right conduct, Cause the nectar of religion to rain Only by melting the essence of compassion into their speeches ! Today, the guides themselves Have lost the vision of the true path, Mother! The reason is well-known - The one, for whom the true path is being shown, Doesn't want to tread the path himself, He wants to make others follow the track And The number of these cunning conductor is Countless. What should I do ? I put into black and white... Whatever is happening, I taste the flavour thereof Then...I go on...bewailing... Try to transcribe it...Mother ! I...do am a pen.... .” On seeing the Artisan motionless Did the pan of Compassion weaken ? Don't indulge in so much of hair-splitting-Uttering such words, the Compassion started shedding tears !
  11. इससे इस लेखनी का गला भी भर आता है, माँ का समर्थन करता हुआ- ‘‘कभी किसी दशा पर इसकी आँखों में करुणाई छलक आती है और कभी किसी दशा पर इसकी आँखों में अरुणाई झलक आती है क्या करूँ ? विश्व की विचित्रता पर रोऊँ...क्या हँसूं...? बिलखती इस लेखनी को विश्व लखता तो है इसे भरसक परखता भी है ईश्वर पर विश्वास भी रखता है और ईश्वर का इस पर गहरा असर भी है पर, इतनी ही कसर है कि वह असर सर तक ही रहा है, अन्यथा सर के बल पर क्यों चल रहा है, आज का मानव ? इसके चरण अचल हो चुके हैं माँ! आदिम ब्रह्मा आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का आज अभाव नहीं है माँ! परन्तु, उस पावन पथ पर Hence, it blocks up with emotion the throat of this writing pen While supporting the Mother – “At times, for some condition Compassion overbrims into her eyes And At times, for some condition Rosiness sparkles into her eyes What should I do ? Should I...weep...or laugh… On the strangeness of the world ? The world does look at This bewailing pen Puts it to test to the best of its ability Keeps faith too in God And It carries also a deep imprint of God on itself. But, the only shortcoming remains That the impression has been limited merely upto the head, Otherwise Why does the man of to-day Is proceeding with his ‘head up-side-down' ? His feet have become stand-still, O Mother ! The holy path showed by the Prime Brahmā, The very first Tirthankara, Ādinātha, Is not non-existent today, O Mother ! But, On that sacred path
  12. जीवन-जगत् क्या ? आशय समझो, आशा जीतो! आशा ही को पाशा समझो !” फिर, गम्भीर हो कुछ और कहती माँ : करुणा “मेरे रोने से यदि तुम्हारा मुख खिलता हो सुख मिलता हो तुम्हें लो! मैं...रो...रही...हूँ और रो सकती हूँ और मेरे होने से यदि तुम्हारा दिल धुक्-धुक् करता हो हिलता हो, घबराहट से दुखता हो लो, इस होने को खोना चाहूँगी, चिरकाल तक सोना चाहूँगी, प्रार्थना करती हूँ प्रभु से, कि शीघ्रातिशीघ्र मेरा होना मिट जाय मेरा अस्तित्व अशेष-रूप से शून्य में मिल जाय, बस!" इस पर प्रभु फर्माते हैं कि ‘‘होने का मिटना सम्भव नहीं है, बेटा! होना ही संघर्ष-समर का मीत है होना ही हर्ष का अमर गीत है।’’ ‘‘मैं क्षमा चाहती हूँ तुमसे तुम्हारी कामना पूरी नहीं हो सकी हे भोक्ता-पुरुष!" What is the life and the world ? Grasp the purpose, win over the wishes ! Realize the desire to be the snare !” Then, something more is added gravely By the Mother-Compassion- “ If my tears Cause your face to bloom May confer happiness upon you Lo! I..am...weeping... And may go on bewailing, And Due to my presence If your heart quivers with timidity Palpitates, is pained with perplexity Lo, I would like to lose my presence, Would wish to go to eternal sleep, I pray to God, that, As soon as possible, I should cease to exist My existence should get itself merged Entirely with the void, that's all !" At this, the Lord rejoins that The annulment of the‘Being' is not possible,dear child! ‘To exist' indeed is an ally in the struggling battle ! ‘To be' is the everlasting song of joy. I beg your pardon Your wish remained unfulfilled O thou pleasure-seeking man !
  13. करुणा कह रही है कण-कण को कुछ : ‘‘परस्पर कलह हुआ तुम लोगों में बहुत हुआ, वह गलत हुआ। मिटाने-मिटने को क्यों तुले हो इतने सयाने हो ! जुटे हो प्रलय कराने विष से धुले हो तुम! इस घटना से बुरी तरह माँ घायल हो चुकी है जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का व्रण सुखाओ! सदय बनो! अदय पर दया करो अभय बनो ! सभय पर किया करो अभय की अमृत-मय वृष्टि सदा सदा सदाशय दृष्टि रे जिया, समष्टि जिया करो ! जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ ! अपना ही न अंकन हो पर का भी मूल्यांकन हो, पर, इस बात पर भी ध्यान रहे पर की कभी न वांछन हो पर पर कभी न लांछन हो। जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का न मन दुखाओ ! The compassion addresses Something to each and every particle : “A strife broke out amongst you It transgressed the limits, it was wrong. Why have you poised yourself to destroy and to be destroyed You are so wise ! You have sharply engaged yourself in bringing extensive destruction You are washed with poison ! The mother has been deeply injured By this incident Don't make life a battle Get the wound of the Mother-Nature healed up! Be kind-hearted ! Take pity on the hard-hearted Be fearless ! Let a nectarial drizzle of humane amnesty Be dropped upon the terror-stricken, Always keep up a well-intentioned viewpoint, O my heart, make thyself live in sociability ! Don't make life a battle Pay off the debt of the Mother-Nature ! Only your ‘own self’ shouldn't get recorded The others should also be evaluated, But, keep this point too in your mind The alien should never be desired The alien should never be blamed ! Don't make life a battle Don't agonize the heart of the Mother-Nature !
  14. जिसे देख कर श्रृंगार की अज्ञता पर सब रसों की मूल-जनिका स्रोतस्विनी प्रकृति माँ कुपित हो आई और श्रृंगार के गालों पर दो-चार चाँटे दिये, बाल-लाल के गाल ये प्रवाल-सम लाल हो आये। सुत को प्रसूत कर विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने मात्र से माँ का सतीत्व वह विश्रुत-सार्थक नहीं होता प्रत्युत, सुत-सन्तान की सुसुप्त शक्ति को सचेत और शत-प्रतिशत सशक्त- साकार करना होता है, सत्-संस्कारों से। सन्तों से यही श्रुति सुनी है। सन्तान की अवनति में निग्रह का हाथ उठता है माँ का और सन्तान की उन्नति में अनुग्रह का माथ उठता है माँ का और यही हुआ- प्रकृति माँ की आँखों में रोती हुई, करुणा ! बिन्दु-बिन्दु करके दृग-बिन्दु के रूप में On seeing which The original mother- river of all the sentiments The Mother-Nature fretted and fumed Over the ignorance of the Sentiment of Love, And Struck the cheeks of the love-sentiment With a few slaps, The cheeks of the hero of the youngsters Appeared reddish like coral. Having given birth to a son By barely presenting him before the world, The chastity of the mother Doesn't become renowned and fruitful Contrary to it, The latent power of sons or offspring Has to be awakened, and Has to be rendered cent-per-cent capable And concrete, through the true refinements.These very holy words have been heard from the sages. In the downfall of the offspring Mother's hand of restraint is raised And In the progress of the offspring Mother's head of favour is held high – And that is what happened – In the eyes of the Mother-Nature The tearful compassion, Drop-by-drop, In the form of eye-drops...
  15. १५-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) सूक्ष्मातिसूक्ष्म सम्बोधनात्मक कल्पना शक्ति के धनी महाकवि गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में सीमातीत नमोस्तु.... हे गुरुवर! दक्षिण के त्यौहार हों या सामाजिक कोई कार्यक्रम या लोक संस्कृति का कोई उत्सव परिवार की सहभागिता में बालक विद्याधर सदा उत्साह के साथ बालोचित कार्य करके सभी की शाबासी लेता था। इस सम्बन्ध में एक स्मृति आपकी लिख रहा हूँ, जो विद्याधर के अग्रज भाई महावीर जी ने बतलाई- लोक संस्कृति शरद पूर्णिमा का उत्सव "दक्षिण के सभी लोग शरद पूर्णिमा के दिन अपने-अपने खेतों पर जाते हैं और भूमि-पूजन करते हैं। हम लोग भी प्रति वर्ष जाते हैं। उस दिन घर से भोजन पकवान आदि बनाकर ले जाते हैं और वहाँ जाकर १०-११ बजे खेत पर पेड़ के नीचे बैठते हैं और भूमि-पूजन करते हैं। विद्याधर ४-५ वर्ष की अवस्था से ही खेत पर चूहों के लिए, पक्षियों के लिए, गिलहरियों के लिए भोजन खिलाता था और सभी के लिए केले के पत्ते धोकर के देता था। उस पर रखकर हम सभी लोग भोजन करते थे। शाम को हम घर वापस आ जाते थे। उसकी इस क्रिया को देख माँ उसे शाबासी देती थी।" इस तरह विद्याधर अपनी प्रत्येक अवस्था में अपनी भूमिका के अनुसार कर्तव्य का पालन करके सभी का मन जीत लेता था। ऐसे लोक एवं धर्म संस्कृति के ज्ञाता गुरुवर के चरणों में नमोस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  16. मेरा संगी संगीत है स्वस्थ जंगी जीत है।’’ स्वर की नश्वरता और सारहीनता सुन कर श्रृंगार के बहाव में बहने वाली नासा बहने लगी प्रकृति की। कुछ गाढ़ा, कुछ पतला- कुछ हरा, पीला मिला- मल निकला, देखते ही हो घृणा! जिस पर मक्षिकाएँ जो राग की जनिकाएँ हैं विषय की रसिकाएँ हैं भिनभिनाने लगीं...सो... ऐसा लगता है कि बीभत्स रस ने भी श्रृंगार को नकारा है चुना नहीं उसे ! अन्यथा सबकी नासिका से अनुनासिक... नकारात्मक ही वर्ण क्यों निकलता है? उपरिल-अधर पर चिपकता हुआ निचले अधर पर भी उतरता आया वह मल ! और श्रृंगार की रसना ने उसका स्वाद लिया, ...बड़े ही चाव से My companion is the music Which is a healthy brave triumph." On hearing about the mortality And worthlessness of the ‘voice’ Started flowing the nose of nature, Which gushes out under the spill of the Sentiment of love. A bit dense, and somewhat flimsy Some greenish with yellowish mingled- Secretion was issued forth Which looked hateful at its very sight ! Over it, the flies Which are mothers of passions, Which are the admirers of sensuousness Started making a buzzing sound...so… It appears that even the Sentiment of Disgust Has dishonoured the Sentiment of Love - Hasn't selected it ! Otherwise Why does a nasal... Only a negative syllable Turns out from everybody's nose ? Having clung to the upper lip Came descending to the lower lip too That filthy secretion ! And The tongue of the Sentiment of Love tasted it ...With too much of eagerness,
  17. १४-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) सरल-सहज-शान्त स्वभावी, यथाजातरूपधारी गुरुवर ज्ञानसागरजी मुनि महाराज के श्री चरणों में त्रिकाल त्रियोग शुद्धिपूर्वक त्रिभक्तिमय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु… हे ज्ञानकला कुंज गुरुवर! आज बड़े भाई महावीर अष्टगे ने बताया कि कैसे विद्याधर का नाम ‘पिल्लू’ या 'गिनी' पड़ा और दक्षिण की भाषागत विशेषताएँ भी बतलाईं। विद्याधर माता-पिता को जो सम्बोधन करता था, वह मैं आपको बता रहा हूँ- विद्याधर बनाम 'पिल्लू गिनी' “जब विद्याधर छोटा-सा था और हाथों के बल घिसटने लगा तब अक्का (माँ) उसको प्यार से पिल्लू कहकर बुलाती थी। दक्षिण प्रान्त में छोटे बच्चों को लाड़ प्यार से पिल्लू कहते हैं। वह जन्म से ही परिवारजनों का और पड़ोसियों का लाड़ला था। उसको जो भी देखता। वो विद्याधर को खिलाये बिना नहीं रहता। दिन-भर कोई न कोई उसे गोदी में उठाकर प्यार करता ही रहता था और वह भी सबके पास चला जाता था। न तो किसी से डरता था और न ही रोता था। इस कारण सभी उसे लेने की कोशिश करते थे। पड़ोसियों का समय भी उसके बिना नहीं करता था। माँ को जब उसकी याद आती तो हम लोगों को कहती पिल्लू कहाँ है उसे लेकर आओ। तब उसे ढूँढते कि वो किसके घर है। पड़ोसियों ने प्यार-प्यार में उसे ‘गिनी' कहना प्रारम्भ कर दिया था। ‘गिनी' शब्द कन्नड़ भाषा का है जिसे हिन्दी में ‘तोता' कहते हैं। जब विद्याधर थोड़ा बड़ा हुआ तो बोलना शुरू हो गया, तो मेरी और बड़ी बहन सुमन की तरह पिताजी को ‘अन्नाजी' और माँ को 'अक्काजी' कहने लगा था। वैसे कर्नाटक में पिताजी को 'अप्पा' और माँ को 'औवा' बोलते हैं किन्तु हम लोगों का 'अन्ना' व 'अक्का' बोलने का कारण यह था कि पिताजी के एक छोटे भाई और दो बहिनें थीं। वे पिताजी (मल्लप्पा) को 'अन्ना’ कहते थे एवं माँ (श्रीमन्तीजी) को 'अक्का' बोलते थे क्योंकि कन्नड़ में बड़े भाई को ‘अन्ना' और बड़ी बहन या भाभी को 'अक्का' बोलते हैं इस कारण हम भाई-बहिन भी उनके जैसे ही माँ एवं पिताजी को 'अक्का' एवं 'अन्ना' कहने लगे किन्तु कन्नड़ भाषा में लिखने में पिताजी को 'तन्दे' एवं माँ को 'ताई' लिखते हैं। विद्याधर आदि हम सभी बच्चे सुबह उठकर माता-पिता को प्रणाम बोलते थे और त्योहार आदि विशेष दिनों में चरण स्पर्श भी करते थे। अड़ोस-पड़ोस के बड़े बुजुर्गों को अन्ना जी प्रणाम अक्का जी प्रणाम बोलते थे।" भारतीय भाषा में कितना अपनत्व और प्यार होता है, इस बारे में आप अच्छी तरह परिचित हैं ही, साथ ही राजस्थानी भाषागत वैशिष्ट्य से भी। आपका कृपाकांक्षी शिष्यानुशिष्य
  18. अगर सागर की ओर दृष्टि जाती है, गुरु-गारव-सा कल्प-काल वाला लगता है सागर, अगर लहर की ओर दृष्टि जाती है, अल्प-काल वाला लगता है सागर। एक ही वस्तु । अनेक भंगों में भंगायित है अनेक रंगों में रंगायित है, तरंगायित ! मेरा संगी संगीत है। सप्त-भंगी रीत है। सुख के बिन्दु से ऊब गया था यह दु:ख के सिन्धु में डूब गया था यह, कभी हार से सम्मान हुआ इसका, कभी हार से अपमान हुआ इसका। कहीं कुछ मिलने का लोभ मिला इसे, कहीं कुछ मिटने का क्षोभ मिला इसे, कहीं सगा मिला, कहीं दगा भटकता रहा अभागा यह! परन्तु आज, यह सब वैषम्य मिट-से गये हैं जब से...मिला...यह If we deploy our insight Towards an ocean, The ocean seems grave and grim-looking With a time-span extending upto universal destruction; If we keep our eye Upon a wave, The ocean seems to bear a short time-span. The one and the same object Is interpreted in various modes of thinking Is multi-coloured and wavy ! My companion is the music - ‘The usage of seven-moded deliberations’. He was fed up With the drop of delight, He was drowned Into the sea of sufferings, At times, with garlands He was honoured, At times, by defeats He was insulted. He was lured For obtaining something somewhere He felt agitated Over the destroying of something somewhere, Somewhere he met with his Kinsman Elsewhere with deception ! This unfortunate one went on roaming about ! But today, All these miseries have almost faded away Since...when it was found...
  19. १३-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) महाभाग्यवान् महापुरुषार्थी गुरुवर श्री १०८ ज्ञानसागरजी महाराज के पावन चरण कमलों में त्रिकाल त्रिभक्तिपूर्वक नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे दयानिधे! जैसे कोई कोई भाग्यवान् व्यक्ति अपने भाग्य को जन्म से ही साथ लाता हैं ऐसे ही विद्याधर भी अपने भाग्य को साथ लेकर आये थे। यह बात बड़े भाई महावीर जी की इस बात से ज्ञात होती है- महापुरुषत्व के लक्षण "विद्याधर बड़ा ही भाग्यवान् था। माँ बताती थी कि विद्याधर जब गर्भ में था तब तीर्थयात्रा पर गए थे और जन्म लेने के बाद लगभग डेढ़ वर्ष का हुआ तब भी सपरिवार भारत वर्ष के प्रसिद्ध तीर्थ गोम्मटेश्वर बाहुबली श्रवण बेलगोला जिला हासन (कर्नाटक) की यात्रा पर गए थे। उस वक्त एक घटना घटी। माता-पिता पूजा करने बैठ गए तब नटखट विद्याधर घुटने के बल हाथों को टेककर गोम्मटेश्वर के चरणों की तरफ बढ़ा एवं चरणों के पास जाकर लुढ़क गया मानो साष्टांग नमस्कार कर रहा हो और स्वयं ही उठकर बैठ गया और ऊपर देखकर हाथ उठाता, तो पास में बैठे लोग बोले यह बच्चा कितना होनहार है।” इस तरह अनेकों ऐसी बातें विद्याधर के महापुरुषत्व के लक्षण को द्योतित करती हैं। इसी तरह मल्लप्पाजी की सुपुत्रियाँ ब्रह्मचारिणी शान्ताजी एवं सुवर्णाजी ने भी इस प्रसंग में संस्मरण लिखकर भेजा जो इस प्रकार है- महापुरुष बाहुबली के संस्कारों ने पैदा किया महापुरुषत्व “भगवान् की भक्ति पूजा के भाव परिणामों की निर्मलता एवं शुभ क्रियाओं की उत्सुकता आदि आश्चर्यजनक परिणाम देती है तभी तो 'भावना भव नाशिनी होती है' यह कहा गया है। एक बार सदलगा गाँव के लोगों ने आकर माँ से कहा कि विद्याधर सभी भाई-बहनों में सबसे सुन्दर है ऐसा क्यों? तब माँ ने जवाब दिया कि जब बालक विद्याधर गर्भ में आया था तब मेरे मन में श्रवण बेलगोल के भगवान् बाहुबली के दर्शन करने की तीव्र इच्छा हुई और पूजन-भक्ति करके आए तभी जो पुण्य संचय हुआ उसके परिणाम स्वरूप सुन्दर बालक उत्पन्न हुआ। जिसके पास जो होता है उसकी आराधना से हम वही प्राप्त कर सकते हैं। चूँकि बाहुबली शरीर की अपेक्षा से कामदेव थे और साधना की अपेक्षा से कठोर तपस्या करने वाले थे। तभी तो अपने भाई और पिता से पहले लक्ष्य को प्राप्त किया। उसी प्रकार बाहुबली की आराधना से माँ को सुन्दर पुत्र एवं दृढ़ साधक जो कि पिता एवं भाई से पहले मानव जीवन के लक्ष्य को जानने-पाने वाला पुत्र प्राप्त हुआ।” इस तरह महापुरुषत्व के लक्षण बचपन से ही प्रकट होने लगे इस सम्बन्ध में ब्रत बहिन सुश्री शान्ताजी, सुवर्णाजी ने एक संस्मरण और लिखकर भेजा- पूत के लक्षण पालने में “जब विद्याधर डेढ़ वर्ष के थे तब माता-पिता के साथ श्रवणबेलगोला की यात्रा पर गए थे उस समय यात्रियों में से किसी ने कहा कि तुम्हारा बेटा भगवान् जैसा मनोज्ञ और सुन्दर दिखता है उसे भगवान् के पास बैठा दो और जब ७-८ वर्ष के हुए तो एक बार आचार्यश्री अनन्तकीर्ति महाराज के संघ की आर्यिका विमलमती जी के दर्शन करते समय उन्होंने कहा विद्याधर तुम सचमुच में भगवान् जैसे दिखते हो, भगवान् बनोगे? तब विद्याधर बोले-'हाँ'। घर आकर विद्याधर माँ से बोले-मुझे आर्यिका माताजी ने कहा-भगवान् जैसे लगते हो, भगवान् बनोगे? तो हमने कहा-‘हाँ’ मैं भगवान् बनूंगा। यह सुनकर घर के सभी लोग प्रसन्न हो गए।” इस तरह बचपन के मुँह बोले भगवान् सचमुच में आचार्य भगवान् बन गए। उच्च सिंहासन पर आरूढ़ होकर सभी को बोधि प्रदान कर रहे हैं। ऐसे आचार्य भगवान के निर्माता गुरु के चरणों में शत-शत नमोस्तु... आपका शिष्यानुशिष्य
  20. जो अंगातीत होती है मेरा संगी संगीत है सप्त-स्वरों से अतीत...! श्रृंगार के अंग-अंग ये खंग-उतार शीलवाले हैं युग छलता जा रहा है। और श्रृंगार के रंग-रंग ये अंगार-शीलवाले हैं, युग जलता जा रहा है, इस अपाय का निवारक उपाय ...मिला इसे आज अपूर्व पेय के रूप में ! तन का खेद टल कर चूर होता है पल में मन का भेद धुल कर दूर होता है पल में इसका पान करने से। मेरा संगी संगीत है समरस नारंगी-शीत है। किसी वय में बँध करके रह सकूँ! रहा नहीं जाता है और किसी लय में सध करके कह सकूँ! कहा नहीं जाता है। मेरा संगी संगीत है मुक्त नंगी रीत है। Which is beyond the bodily limits My companion is the music Which transgresses the limits of gamut...! All these organs of embellishment Are destructible by the sword The age is going on hoodwinking And All these hues of ornamentation Are inflammable, The age is going constantly on fire, A preventive measure to this injury ...Has been found by it to-day In the form of this uncommon drink ! The bodily afflictions, on being deferred, Are broken to pieces within seconds, On being cleansed, the riddles of mind, Are eliminated within seconds By taking it as a drink. My companion is the music Which is dispassionate, colourless-cool. It is not possible for me to live While binding myself within some age-limits ! And It is not possible for me to say While taming myself within some limited musical measure! My companion is the music Which is ‘a bondage-free naked observance'.
  21. १२-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) लोक के आधारभूत ज्ञान दिवाकर गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज ! आपश्री के पावन चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे मुमुक्षु गुरुवर! जिस प्रकार दिवानाथ का स्पर्श पाकर कमलकुंज खिल उठता है। उसी प्रकार ब्रह्मचारी विद्याधर आपको पाकर खिल उठा था और सर्वस्व समर्पण कर बैठा था। यह संस्कार पूर्व जन्मों की तपस्या का द्योतक है। विद्याधर बचपन से ही मुनियों को देखकर खिल उठता था, इस सम्बन्ध में श्रीमती कनक जी (दिल्ली) हॉल निवासी ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र, अजमेर ने बताया- जन्मान्तरों के संस्कारों की प्रतीति "पूज्य मुनि श्री मल्लिसागर जी महाराज (विद्याधर के गृहस्थ अवस्था के पिताजी) ने दिल्ली चातुर्मास में एक दिन बताया था कि 'विद्याधर बचपन से ही मुनियों को देखकर आकर्षित होता था। जब विद्याधर गर्भ में था तब उसकी माँ श्रीमन्ती मुनि श्री विद्यासागर जी की समाधि के दर्शन-पूजन करने अक्किवाट जाती थी और आस-पास मुनियों के दर्शन करने भी जाती थी। उसके ये भाव पुण्यवान् भव्यात्मा विद्याधर के गर्भ में आने से हुए थे। जन्म के बाद विद्याधर जब बोलने लगा तब किसी ने उसे सिखाया नहीं था स्वयं ही मुनियों को देखकर नमस्कार करता था और मुख से नमोस्तु बोलता था। मयूरपिच्छी सिर पर लगाने को इशारा करता था। मयूरपिच्छी से इतना लगाव था कि मुनियों की मयूरपिच्छी को उठा लेता था और तब उससे वापस लेते तो रोता था। मुनिगण पूछते पिच्छी चाहिए, तो 'हाँ' बोलकर दोनों हाथ फैला देता था।’ ऐसे अनेकों संस्मरण सुने और साक्षात् गुरुदेव आचार्य श्री को देखा अनुभूत किया कि कई जन्मों के संस्कारों का सुफल है आचार्य भगवन् का यह जीवन।” इस तरह होनहार महापुरुष के संस्कार जन्म जन्मान्तरों से विद्याधर को प्राप्त हुए हैं। सुसंस्कार हमें भी प्राप्त हों, हम भी आपके श्री चरणों की सेवा कर सकें इस भावना के साथ नमोस्तु.... आपका शिष्यानुशिष्य
  22. ११-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) सार्थक संज्ञा के धनी दादा गुरु ज्ञानसागरजी महाराज के पावन श्री चरणों में त्रिकाल त्रिकरण से त्रिभक्ति पूर्वक नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु… हे विशुद्धदृष्टि गुरुवर! जब पहली बार विद्याधर जी आपके पास गए थे जब आपने उनसे पूछा था कि कौन हो और कहाँ से आये हो? क्या नाम है तुम्हारा? आपको इन प्रश्नों का जवाब विद्याधर ब्रह्मचारी जी ने दिया और आप संतुष्ट हो गए। पर मेरे मन में इस नाम को लेकर जिज्ञासा बनी रही। काफी खोजबीन की किन्तु सही समाधान सदलगा से आये विद्याधर के बड़े भाई जी से चर्चा करने पर ही मिला।उन्होंने बताया कि इन्हें विद्याधर के नाम से क्यों पुकारा गया। यूँ तो संसार में हर जातक का कोई न कोई नाम रख दिया जाता है, परन्तु विद्याधर नामकरण के पीछे एक रहस्य का खुलासा अग्रज भाई महावीर ने इस प्रकार किया- मुनि विद्यासागर ने बनाया विद्याधर ‘विद्याधर विशेष पुण्यवान् और तेजस्वी था उसको ज्ञान का संस्कार पूर्व से ही था। मेरी अक्का (माँ) श्रीमन्तीजी कई बार बताती थी कि ‘‘जब विद्याधर मेरे पेट में था तब मुझे साधु-संतों के दर्शन करने की इच्छा होती थी। तब मैं या तो आस-पास कोई मुनिराज होते तो उनके दर्शन करने जाती थी या फिर अमावस्या के दिन अक्किवाट ग्राम जाती थी और वहाँ मुनिराज विद्यासागरजी की समाधि पर पूजा-आराधना करती थी। तभी मुझे संतोष मिलता था। विद्याधर का जन्म होने के बाद तुम्हारे अन्ना (पिताजी) ने विचार किया कि अक्किवाट के महामुनि विद्यासागरजी महाराज की समाधि स्थल पर वंदना दर्शन पूजन के प्रतिफल स्वरूप हमें यह बालक प्राप्त हुआ है अत: इसको हम विद्याधर नाम से पुकारेंगे जिससे मुनिराज की स्मृति बनी रहे और अच्छे संस्कार आएँ। इस तरह विद्याधर नामकरण हुआ।' अक्किवाट सांगली (महाराष्ट्र) सदलगा से २० कि.मी. की दूरी पर है। यहाँ पर अकबर के समकालीन महामुनिराज विद्यासागरजी की समाधि स्थली बनी हुई है। वो मुनिराज उच्चकोटि के साधक तपस्वी थे जिनको ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त थी। उनकी चर्चा बेलगाँव जिले में फैली हुई है। जैन-अजैन सभी लोग उनकी समाधि स्थल पर पूजा-अर्चना करने आते हैं। जब तक अन्नाजी (पिताजी) और अक्का (माँ) घर पर थी तब तक हम लोग सपरिवार अमावस्या के दूसरे दिन बैलगाड़ी में समाधि पर जाते थे और दर्शन पूजन करते थे।’’ बस इसी समाधिस्थल के दर्शन और महामुनि की पूजन से माँ श्रीमन्तीजी को तृप्ति मिलती थी। इसलिए उन्होंने अपनी चतुर्थ संतान को जन्म दिया तो उसका नाम विद्याधर रख दिया। ऐसा लगा मानो वे विद्यासागर ही विद्याधर बनकर आये किन्तु आपने तो उन्हें पुनः विद्यासागर के रूप में ही घड़ दिया। पुण्य योग से सोने में सुहागा का संयोग बन पड़ा। ऐसे ही संयोग की प्रतीक्षा में... चरण चंचरीक शिष्यानुशिष्य
  23. १2-११-२0१५ भीलवाड़ा (राजः) साहित्य अध्यात्म दर्शन की त्रिवेणी गुरुवर श्री १०८ श्री आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल त्रियोग त्रिभक्ति पूर्वक नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु.... हे ज्ञानमणि दीप गुरुवर! आज आपको आपके शिष्य, मेरे गुरुवर के जीवन की घटनाओं और उनके बारे में विस्तृत जानकारी देने के क्रम में चतुर्थ पत्र लिख रहा हूँ। आज भी कुछ लोगों को गुरुवर श्री विद्यासागर जी के जन्म समय को लेकर भ्रम बना हुआ है इसके समाधान की प्रामाणिक जानकारी के लिए विद्याधर के बड़े भाई श्री महावीर जी अष्टगे ने जो बताया, वह मैं आपको बता रहा हूँ- शरद पूर्णिमा के दिन जन्मा धरती का चाँद ‘‘मेरी माँ की बुआ (अक्काताई) ने बताया कि विद्याधर के जन्म के समय पर मैं उपस्थित थी।सदलगा की दरगाह में चार बजे नगाड़ा बजा था उससे कुछ समय पूर्व विद्याधर का जन्म हुआ था। तब श्रीमन्ती (मेरी माँ) का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया, तो चिक्कौड़ी समाचार किया गया, वहाँ से कार आई उसमें श्रीमन्ती एवं बच्चे को ले गये और अस्पताल में भर्ती कराया था। उस दिन शरद पूर्णिमा की तिथि शुरु हो गई थी जो दिन में २:११ बजे दोपहर तक थी। इसलिए शरद पूर्णिमा के दिन जन्म हुआ माना गया। इसी तरह माँ ने भी बताया था कि मुझे इतना याद था कि शरद पूर्णिमा को खेत के कार्यक्रम में जाना है। अत: विद्याधर का जन्म रात्रि के तीसरे प्रहर में हुआ यह सही है।" इस प्रकार विद्याधर का जन्म १०-१०-१९४६ शरद पूर्णिमा के दिन मनोहर प्रहर में हुआ। पूर्ण चन्द्र प्रकाश में अज्ञान अन्धकार दूर हुआ भ्रम का निवारण हो गया। मेरा अज्ञान अन्धकार दूर हो इस मंगल भावना के साथ नमोस्तु गुरुवर.... आपका जिज्ञासु शिष्यानुशिष्य
  24. ९-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) ज्ञान ध्यान तपोरक्त ज्ञानातिशयी गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महामुनिराज के चरणकमलों में त्रिकाल वियोगपूर्वक त्रिभक्तिमय नमोस्तु नमोस्तु-नमोस्तु.... हे ज्ञानवृद्ध गुरुवर! जब आप विद्याधर को मुनि दीक्षा देने वाले थे तब समय ने अनेकों प्रश्न विद्याधर को लेकर उठाये थे। कितना भ्रम फैला था कि ये जैन नहीं हैं, इनकी जाति का कुछ पता नहीं है इनके कुल परिवार वंश का कुछ पता नहीं है, कैसा? क्या है? हालाकि आप विद्याधर के उत्तरों से संतुष्ट थे और चतुराई से सारे विवाद भी हल कर दिए थे, लेकिन आपकी दृष्टि विशाल है, किन्तु निम्न दृष्टि रखने वाले लोगों को भी संतुष्टि मिले इस बाबत सदलगा से पधारे विद्याधर के ज्येष्ठ भाई महावीरजी अष्टगे से प्रामाणिक समाधान मिला- संस्कारवान् वंश में जन्मे महापुरुष आचार्य विद्यासागर “दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंचम, बोगार, सेतवाल आदि प्रसिद्ध दिगम्बर जैन उपजातियाँ हैं । गाँव के जमीदारों की चतुर्थ जाति होती है। सदलगा से ४० कि.मी. दूर अष्टा गाँव है हमारी तीन पीढ़ी पूर्वं वंशज अष्टा गाँव में निवास करते थे। वहाँ से शिवराया भरमगौड़ा चौगले कर्नाटक के बेलगाँव जिले की चिक्कौड़ी तहसील के सदलगाग्राम आये थे इसलिए हमारा गौत्र अष्टगे बन गया, अष्टागाँव के होने से। हमारे दादा पारिसप्पाजी (पार्श्वनाथ) बहु प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे सदलगा के कलबसदि (पाषाण निर्मित मंदिर) के मुखिया थे और प्रतिदिन घर पर स्वाध्याय किया करते थे। जो ग्रन्थ वो पढ़ते थे आज तक हमारे घर पर सुरक्षित रखे हैं। दादाजी के जाने के बाद अन्ना (पिता-मल्लप्पा जी) उनका स्वाध्याय किया करते थे, अब मैं करता हूँ। मेरे दादा पारिसप्पा ने दो विवाह किए थे। पहली पत्नि से एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुई थी लेकिन कम उम्र में ही पहली पत्नि का स्वर्गवास हो गया तब उन्होंने दूसरा विवाह काशीबाई से किया था। पहली पत्नि से उत्पन्न अप्पण्णा साहेब नाम के पुत्र से चार पुत्रियाँ और तीन पुत्र हुए थे। प्रथम पुत्र भरमप्पा (मल्लप्पा बदनिकाई को गोद गया) दूसरे अन्ना साहेब और तीसरे भूपाल नाम के हैं। चार पुत्रियों में से एक पुत्री ने आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी। दूसरी पत्नि काशीबाईजी से कुल चार संतानें उत्पन्न हुई थी। दो पुत्र और दो पुत्रियाँ। प्रथम संतान चन्द्राबाई नाम की पुत्री थी, फिर दूसरे नम्बर पर अन्नाजी (पिता-मल्लप्पाजी) का जन्म १२-०६-१९१६ को हुआ तीसरे नम्बर पर अक्काताई नाम की पुत्री हुई और चौथे नम्बर पर आदप्पा नाम के पुत्र हुए थे। मल्लप्पाजी (मल्लिनाथ) की शिक्षा मराठी स्कूल में कक्षा १-५वीं तक और कन्नड़ स्कूल में कक्षा ७ वीं तक हुई थी। मल्लप्पाजी शरीर से तंदुरुस्त थे, वे बचपन से ही पहलवानी एवं तैराकी किया करते थे। एक भैंस का दूध पूरा का पूरा अकेले ही पी लिया करते थे। आप पर दादा पारिसप्पाजी के संस्कारों का बड़ा प्रभाव था। दादा-दादी दानपरायण धर्मात्मा थे और घर पर चन्द्रप्रभु चैत्यालय में प्रतिदिन पूजा-प्रक्षाल किया करते थे तथा सदा अष्टमी-चतुर्दशी को उपवास किया करते थे। यही कारण है कि मल्लप्पाजी सांसारिक व्यामोह में उलझना नहीं चाहते थे । विवाह के छह माह पूर्व घर से भाग गए, मुनि दीक्षा लेने की चाह में, तब दादा पारिसप्पा ने किसी तरह उन्हें ढूंढा और विवाह करा दिया। मल्लप्पा जी का विवाह सदलगा से १८ कि.मी. दूर स्थित अक्कोळ ग्राम जिला बेलगाँव में पिता भाऊसाहेब माँ बैनाबाई की पुत्री १४ वर्षीय श्रीमन्ती जी से हुआ था। श्रीमन्तीजी का जन्म सन् १०-०२-१९१९ को हुआ था। जब वह छह माह की थी तभी उनके माता-पिता का प्लेग महारोग के कारण स्वर्गवास हो गया था। उनका लालन-पालन दादा-दादी के पास हुआ। श्रीमन्ती जी के दादा-दादी धार्मिक एवं बड़े वैभवशाली सम्पन्न गौड़ा जमींदार थे। आप माता-पिता की इकलौती संतान थीं। आपकी शिक्षा मराठी माध्यम से कक्षा ६ वीं तक हुई थी। माँ श्रीमन्तीजी ने विवाह उपरान्त व्यवहार कुशलता से गृहस्थी का पालन पोषण किया। घर में कुँआ था, पड़ोस में ही बावड़ी थी और थोड़ी ही दूरी पर नदी भी थी। वह अपने हाथ से चक्की (हाथ वाली) चलाकर आटा तैयार करती थीं, सिर पर घड़े रखकर पानी भरकर लाती थीं, गोबर से घर आँगन लीपती थीं, बच्चों को जहाँ अच्छे-अच्छे संस्कार देने में निपुण थी तो वहीं स्वादिष्ट व्यंजन जैसे-जलेबी, नुकती, रबा और बेसन के लड्डू, शक्कर- पारे, डोसा, कई तरह के नमकीन, चकली, गेहूँ की खीर, ज्वार की खीर, शांडगी (चावल की मगोड़ी की तरह व्यंजन), सिवईयाँ आदि बनाती थीं। दही मथकर मक्खन निकालती और तत्काल गर्म करके देशी घी बना देती थी। सभी बच्चों को छाछ पीना अनिवार्य था। घर और खेत के कर्मचारियों का भी पूरा ध्यान रखती थी। विशेषतया पूरणपोली, इडली, डोसा बनाती ही रहती थी क्योंकि विद्याधर को ये विशेष पसंद थे। मल्लप्पाजी की कुल दस संतानें हुईं। सन् १९३९ में प्रथम पुत्र हुआ जिसका श्रीकान्त नाम था, जो ६ माह बाद काल कवलित हो गया। सन् १९४१ में दूसरी संतान पुत्री हुई, जिसका नाम सुमन रखा गया, जो ६ वर्ष की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हो गई। तीसरी संतान के रूप में पुत्र महावीर ने १-६-१९४३ में जन्म लिया। चौथी संतान विद्याधर थे इनका जन्म १०-१०-१९४६ को हुआ था। इसके बाद पाँचवें नम्बर पर पुत्री शान्ता बाई का सन् १९४९ में जन्म हुआ था और तीन वर्ष पश्चात् सुवर्णा बाई पुत्री का सन् १९५२ में जन्म हुआ था, इसके बाद एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका धनपाल नाम रखा गया किन्तु पन्द्रह दिन बाद ही महाकाल ने ग्रस लिया। इनके बाद आठवें स्थान पर पुत्र अनंतनाथ का जन्म सन् १३-६-१९५६ को हुआ था और नवें स्थान पर शान्तिनाथ पुत्र को सन् २७-१०-१९५८ को जन्म हुआ । अन्तिम संतान का जन्म नहीं हो पाया और वह माँ के पेट में ही कर्मोदय से अपने नियत स्थान पर कालदूत के साथ चला गया। माता-पिता ने ५ फरवरी १९७६ को मुजफ्फरनगर उत्तरप्रदेश में परमपूज्य तृतीय पट्टाचार्य वात्सल्यमूर्ति श्री धर्मसागर जी महाराज के करकमलों से आर्यिका एवं मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। जिनका नामकरण हुआ आर्यिका समयमति एवं मुनि मल्लिसागर। साधना करते हुए आर्यिका समयमति जी की समाधि ०३-०६-१९८४ को ग्राम कोछोर जिला-सीकर में हो गई एवं मुनि मल्लिसागर जी की समाधि २२ दिसम्बर १९९४को कोल्हापुर महाराष्ट्र में हुई।” वंश परम्परा की जानकारी भाट से इस प्रकार प्राप्त हुई उसका चार्ट अवलोकनीय है-पृ.-१४ इस तरह संस्कारवान् लोकोत्तर पुरुष द्याधर के बारे में जो रहस्यमयी पर्दा था वह पूर्णतया उद्घाटित हो जाता हैं, उनकी जाति, गोत्र, कुल, वंश की पूर्ण जानकारी पाकर। इस सम्बन्ध में आगे विशद जानकारियाँ हासिल कर और लिखूँगा। मुझे आप पर गौरव हो रहा है कि आप आगम चक्षु ही नहीं अपितु लौकिक मुद्रिक शास्त्र, शकुन शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र के भी ज्ञाता महापुरुष थे। आज पूरी दुनिया आपकी कसौटी का लोहा मान रही है। आपके दिव्यज्ञान को नमन करता हुआ... चरणानुरंजित शिष्यानुशिष्य
  25. साधना 3 - साध्य/साधन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/saadhna-sadhya-saadhan/
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