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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - २६ सेवाभावी विद्याधर

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    ०१०१-२०१६

    अतिशय क्षेत्र चन्द्रगिरि

    सावर (केकड़ी-राजः)

     

    जीवनभर मुनियों की सेवा करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु...

    हे वैयावृत्य निपुण गुरुवर! आज मैं विद्याधर के सेवाभावी व्यक्तित्व के बारे में प्रकाश डाल रहा हूँ। उसकी हर क्रिया को सदा देखने वाले बड़े भाई महावीर जी ने बताया-

     

    सेवाभावी विद्याधर

    “सदलगा में दिगम्बर मुनि-आचार्य आते रहते थे। जिनमें सर्व प्रथम आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ससंघ, फिर आचार्य श्री अनन्तकीर्ति जी महाराज ससंघ, मुनि श्री महाबल जी महाराज, मुनि श्री सुबलसागर जी महाराज, मुनि श्री पिहिताश्रव जी महाराज, मुनि श्री पायसागर जी महाराज का ससंघ प्रवास सदलगा में होता रहा। सर्वप्रथम सन् १९५९ (सम्भावित) आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने ६ पिच्छीधारी मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक के साथ चातुर्मास किया था। तब विद्याधर १३ वर्ष का था और वह आचार्य महाराज देशभूषण जी के पास ही ज्यादा समय रहता था। चातुर्मास में संघ की सेवा में पूरे गाँव में सबसे आगे था। आचार्य देशभूषण जी महाराज विद्याधर को बहुत वात्सल्य देते थे। कभी-कभी आचार्य महाराज विद्याधर के कंधे पर अपना हाथ रखकर चलते थे। यदि विद्याधर कभी नहीं दिखा तो किसी को बोलकर उसे बुलाते थे। विद्याधर पूरे चातुर्मास में आचार्य महाराज को आहार कराने जाता था। संघ के किसी भी साधु के अस्वस्थ होने पर आचार्य महाराज विद्याधर को ही वैयावृत्य करने के लिए बोलते थे। विद्याधर की रुचि को देखते हुए उन्होंने विद्याधर को वैराग्य मार्ग में बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उस चातुर्मास में विद्याधर अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करता था और दसलक्षण पर्व में दस दिन एकासन व्रत किए थे। इस चातुर्मास में साधु समागम से उसका वैराग्य बढ़ता गया और तब से विद्याधर ने प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी का व्रत करना शुरु कर दिया था। फिर उनके बाद आचार्य श्री अनन्तकीर्ति जी महाराज ने तीन पिच्छीधारी आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक के साथ चातुर्मास किया था। उनके बाद मुनि श्री महाबल जी महाराज ने चातुर्मास किया था।

     

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    आचार्य देशभूषण जी के दो चातुर्मास हुए थे। तब घर पर चौका लगा करता था और विद्याधर बावड़ी से चौके का पानी भरकर लाया करता था एवं चौके में माँ के साथ काम भी करता था।पड़गाहन करके मुनियों की पूजा करता था और आहार शोधन करके सभी को पकड़ाता था। बड़े ही सावधानी से आहार करता था। फिर कमण्डलु लेकर मुनियों को मंदिर छोड़ने जाता था। जब तक मुनिगण सामायिक में नहीं बैठा करते तब तक पिताजी के साथ महाराज से धर्म चर्चा करता-सुनता था और रविवार को दोपहर में प्रवचन सुनने जाता था। प्रतिदिन रात्रि में वैयावृत्य करने जाता था  तथा सुबह साधुओं के कमण्डलु में पानी भरकर उनके साथ कमण्डलु पकड़कर शौच क्रिया के लिए जंगल जाता था।

     

    साधुओं की सेवा में सदा अग्रणी रहता था। कोई भी साधु सदलगा में आते तो उन्हें लेने जाता और सदलगा से विहार करने पर छोड़ने भी जाता था। ये सब उसकी सहज प्रवृत्ति थी। हर सेवा-कार्य बड़े उत्साह एवं रुचि के साथ करता था। साधुओं के साथ ही ध्यान सामायिक की साधना करता था। साधुओं के जाने के बाद आस-पास के गाँव में साधु होते तो मित्रों के साथ वहाँ दर्शन करने जाता था।”

     

    इस प्रकार विद्याधर की रुचि शुरु से ही महाव्रती साधुओं की सेवा में एवं उनके जैसे बनने की साधना करने में थी। सत्संगति का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस अनुभूति को विद्याधर ने आचार्य विद्यासागर बनने के बाद जब महाकाव्य मूकमाटी का सृजन किया तो उसमें लिखा है-सन्त समागम की/यही तो सार्थकता है/कि संसार का अन्त दिखने लगता है, भले समागम करने वाला पुरुष/संत-संयत बने या न बने/किन्तु संतोषी अवश्य बनता है। उनकी यह कविता उनके जीवन की अनुभूति है। सन्तों के समागम से उनके भाव सन्त बनने  के हो गए और वो सन्त बनने के लिए सन्त स्वरूप का ज्ञान करने के लिए सन्तों की संहिता-नियम-कायदे कानून का संविधान पढ़ने लगे थे। इस सम्बन्ध में विद्याधर के अग्रज भ्राता महावीर जी ने बताया-

     

    ‘अन्ना साहब जो पण्डित जी थे मंदिर के पास रहते थे। वो मंदिर जी में अपने स्वाध्याय में विद्याधर को बैठा लेते थे। उनको अच्छा ज्ञान था वो मंदिर जी में भरतेश वैभव पर प्रवचन करते वृद्ध पुरुष वर्ग सुनते। उन पण्डित जी का स्नेह पाकर विद्याधर रोज उनका शास्त्र प्रवचन सुनने लगा और उनसे अपनी जिज्ञासा का समाधान पाने लगा। धीरे-धीरे विद्याधर के ज्ञान को देखकर पण्डित जी अन्ना साहेब कहीं बाहर जाते तो शास्त्र गादी पर विद्याधर को बैठा जाते और शास्त्र अलमारी की चाबी विद्याधर को दे जाते। विद्याधर गादी पर बैठकर जहाँ से उन्होंने छोड़ा उससे आगे पढ़ता था एवं अलमारी में शास्त्र जी जमाता था। अलमारी में मूलाचार ग्रन्थ हाथ लग गया तो निकालकर  उसको पढ़ने लगा। फिर पण्डित जी से पूँछकर घर ले आया। मंदिर से स्वाध्याय सुनकर आता फिर हिन्दी में मूलाचार पढ़ता।" इस तरह हे गुरुवर! आपकी कृपा से विद्याधर को साधुओं की सेवा का सच्चा फल मिल गया। वह भी उन जैसे ही बन गया। उन संतों को प्रणाम करता हुआ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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