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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - २९ संस्कारित घर की सच्ची पाठशाला : वसीयत का दस्तावेज

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    ०८-०१-२०१६

    अतिशय तीर्थक्षेत्र

    चंबलेश्वर पार्श्वनाथ (राजः)

     

    ज्ञानोदधि गुरुवर के श्रीचरणों में ज्ञानाह्वानन हेतु त्रिकाल त्रिभक्तिपूर्वक नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु...

    हे ज्ञानवारिधि! ये तो आप जानते ही हैं कि माता-पिता ही बच्चे के प्रथम गुरु होते हैं जो कुल परम्परा के संस्कारों की वसीयत तो देते ही हैं साथ ही धर्मनिष्ठ माता-पिता हैं तो वो धर्म की वसीयत के संस्कार भी देते हैं। ऐसे ही माता-पिता थे श्रीमन्ती जी व मल्लप्पा जी, जिन्होंने कुल संस्कारों के साथ-साथ धर्म संस्कार भी अपनी सन्तानों को दिए। विद्याधर के अग्रज भाई से इस सम्बन्ध में हमने पूछा तो उन्होंने बताया-

     

    संस्कारित घर की सच्ची पाठशाला : वसीयत का दस्तावेज

    ‘‘मेरे माता-पिता धार्मिक विचार के थे क्योंकि मेरे दादाजी बड़े ही धार्मिक एवं स्वाध्यायशील थे। संस्कारों की वसीयत पिताजी को मिली। पिताजी (मल्लप्पाजी) प्रतिदिन घर पर स्वाध्याय करते थे। उस स्वाध्याय में आस-पास के बुजुर्ग पुरुष हमारे घर पर स्वाध्याय सुनने के लिए आते थे। यह स्वाध्याय रोज शाम को हुआ करता था उनके स्वाध्याय में पुराणशास्त्र (बिना जिल्द वाले) हुआ करते थे। पिताजी को हिन्दी आती थी वो पढ़कर उन कहानियों को कन्नड़ में बड़े ही रोचक ढंग से सुनाते थे। हम सभी भाई-बहिन भी उन कहानियों को सुनकर खूब आनन्द लेते थे। विद्याधर को तो धर्म की बात या पुराणों की बात जल्दी याद हो जाया करती थी। इससे विद्याधर की रुचि धर्म में बढ़ती गई।

     

    एक बार पिताजी से हम लोगों ने मेले में जाने के लिए पैसे माँगे तो उन्होंने पैसे न देकर हम भाई-बहिनों को एक-एक धर्म की पुस्तक दे दी और बोले जो मुझे सहस्रनाम, भक्तामर सबसे पहले कण्ठस्थ करके सुनायेगा, उसे मेले में जाने के लिए पाँच रुपये इनाम में मिलेंगे और अन्ना जी (पिताजी) ने हम लोगों को उनका उच्चारण करना सिखाया। तब विद्याधर जितना सीखता उतना वह दूसरे दिन याद करके सुना देता था। तब विद्याधर १३-१४ वर्ष का था। सबसे पहले विद्याधर ने याद करके सुना दिया और वह प्रतियोगिता जीत ली तब पिताजी ने उसे पाँच रुपये इनाम में दिए तो विद्याधर बोला अन्ना सभी को आप पैसे दीजिए ना...तभी तो हम सभी मेले में जाएँगे, सभी को पैसे मिले और मेले में गए।

     

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    कुछ दिन बाद विद्याधर को मुनि महाबल महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र याद करने को कहा तब विद्याधर ने घर आकर अन्ना को कहा... तो पिताजी ने उसे उसका उच्चारण सिखाया। सात दिन में याद करके महाराज जी को जाकर सुना आया। आकर बताया महाराज ने सिर पर पिच्छी रखकर आशीर्वाद दिया-नित-नित आत्मविकास हो धर्ममार्ग में ऊँचाईयों पर पहुँचो।” इस तरह घर की पाठशाला में वसीयत में मिले धर्म के संस्कार जिसे विद्याधर ने पालन कर अपने गुरुवर की (आपकी) भावना "संघ को गुरुकुल बनाना" को पूर्णकर संघ को चलता फिरता विश्वविद्यालय बना दिया। उस विश्वविद्यालय के कनिष्ठ छात्र का गुरुनाम गुरु एवं गुरु चरणों में सादर नमोस्तु...

    कृपाकाँक्षी

    शिष्यानुशिष्य


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