Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. पत्र क्रमांक-४१ ०६-०२-२०१६ चित्तौड़ (राजः) आत्मभू, सर्वगुण सम्पन्न गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को अन्तरंग विशुद्धि के साथ नमोस्तुनमोस्तु-नमोस्तु... । हे बुधेश गुरुवर! आपको यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता की अनुभूति होगी कि आपका सर्वप्रिय शिष्य विद्याधर घर पर स्वाध्याय सुनकर और शास्त्र पढ़कर कर्म सिद्धान्त का जानकार हो गया था। इस सम्बन्ध में विद्याधर के बड़े भाई ने बताया कर्म सिद्धान्त को जीवन में उतारा "एक बार विद्याधर मित्र मारुति के साथ खेत पर गया था। बाजू वाले खेत में ट्रेक्टर चल रहा था। तो उस खेत की मिट्टी का बड़ा डिगला हमारे खेत में आ गया यह विद्याधर ने देख लिया तो उसने जाकर उस डिगले को वापस बाजूवाले खेत में डाल दिया। उसी वक्त मैं पहुँच गया तब मारुति विद्याधर से पूछ रहा था तुमने ऐसा क्यों किया? विद्याधर बोला-‘बाद में उसको मिट्टी लेने के बदले अगले जन्म में जमीन देना पड़ेगी। जैसे-टेनेन्ट कानून के अन्दर कई लोगों की जिन्दगी निकल गई। ये सब कर्म का खेल है। 'तब मारुति बोला-ये तो मिट्टी है इससे क्या होने वाला है और फिर तुमने तो ली नहीं, वह स्वयं आई है, तो विद्याधर बोला-‘वस्तु की कीमत की बात नहीं हैं, उस वस्तु के ममत्व भाव से पाप होता है। वह मिट्टी तो हमने देख ली है ना... अपनी नहीं है फिर भी लेना तो पाप ही हुआ ना....'' इस प्रकार विद्याधर किसी की कोई कीमती वस्तु तो छोड़ो मिट्टी भी नहीं लेता था। ऐसे पवित्र भावों के प्रति किसका मस्तक नत न होगा...ऐसे गुरु को पाकर हृदय प्रफुल्लित है, नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. हरिता हरी वह किससे ? हरि की हरिता फिर किस काम की रही ? लचकती लतिका की मृदुता पक्व फलों की मधुता किधर गईं सब ये ? वह मन्द सुगन्ध पवन का बहाव, हलका-सा झोंका वह फल-दल दोलायन कहाँ ? फूलों की मुस्कान, पल-पल पत्रों की करतल-तालियाँ श्रुति-मधुर श्राव्य मधूपजीवी अलि-दल गुंजन कहाँ ? शीत-लता की छुवन छुपी पीत-लता की पलित-छवि भी पल भर भी पली नहीं जली, चली गई कहाँ, पता न चला, यहाँ पल रही है केवल तपन...तपन...तपन...! वह राग कहाँ, पराग कहाँ चेतना का वह जाग कहाँ ? वह महक नहीं, वह चहक नहीं, वह ग्राह्य नहीं, वह गहक नहीं, वह वि' कहाँ, वह कवि कहाँ, मंजु किरणधर वह रवि कहाँ ? वह अंग कहाँ, वह रंग कहाँ अनंग का वह व्यंग कहाँ ? वह हाव नहीं, वह भाव नहीं, चेतना की छवि-छाँव नहीं, Whatfrom that ‘greenness’ is green ? Of what avail remained The Lord's jubilee, then ? The delicacy of a flexible creeper The relish of the ripened fruits Where have all these vanished ? The blowing of that slow fragrant wind, That light gust Where is that swinging of the bunches of fruits ? The smile of flowers, The clappings by the leaves every second Where is that melodious audible humming Of the row of the honey-charmed large black bees ? Of the yellow vine the grey-haired splendour too, Which, hidden from the touch of the creeper of coldness, Did not stay even for a moment; Was inflamed,vanished,without leaving a trace behind, Here is being nourished only Heat...heat...heat...! Where is that charm, where that pollen, Where is that awakening of the soul ? Neither that odour is there, nor that warbling, Neither that receptiveness, nor that cheerfulness, Where is that bird, where that poet, Where is that Sun radiant with lovely rays ? Where is that system, where that eminence Where is that sneer of the Cupid ? Neither, that gesture is there, nor that feeling, Nor the graceful shadow of the consciousness,
  3. यहाँ जल रही है केवल तपन...तपन...तपन...! नील नीर के झील नाली-नदियाँ ये अनन्त सलिला भी अन्तःसलिला हो अन्त-सलिला हुई हैं, इनका विलोम परिणमन हुआ है। यानी, न...दी...दी...न। जल से विहीन हो दीनता का अनुभव करती है नदी, और ना...ली..ली...ना… लीना हुई जा रही है धरती में लज्जा के कारण, यहाँ चल रही है केवल तपन...तपन...तपन...! अविलम्ब उदयाचल पर चढ़ कर भी विलम्ब से अस्ताचल को छू पाता है दिनकर को अपनी यात्रा पूर्ण करने में अधिक समय लग रहा है। लग रहा है, रवि की गति में शैथिल्य आया है, अन्यथा इन दिनों दिन बड़े क्यों ? यहाँ यही बल है केवल तपन...तपन...तपन...! Here, there is burning only Heat...heat...heat...! These lakes of blue waters – These drains-rivers Full of even endless water, Flowing as undercurrents Have become waterless, They have been transmuted reversely That is, Na...di...di...na. On being waterless The river suffers from inferiority, And Nā...li...li...nā... It is being immersed into the earth Due to bashfulness, Here is going on only Heat...heat...heat...! Despite having ascended the ‘Mount of Sunrise' even instantly, But approaching the ‘Mount of Sunset' with delay The Sun Is taking more time In accomplishing His journey. It seems, Some slackness has entered into the movement of the Sun, Otherwise, Why this enhancement in the day-time these days ? Here the force behind it is only Heat...heat...heat...!
  4. सन्त का अशान्त मन यूँ पूछता है : “ओ वासन्ती! मही माँ कहाँ गई.. ओ वसन्त की महिमा कहाँ गई?” इस पर कुछ शब्द मिलते सुनने सन्त को, कि “वसन्त का अन्त हो चुका है अनन्त में सान्त खो चुका है। और उसकी देह का अन्तिम दाह-संस्कार होना है। निदाघ आहूत था, सो आगत है प्रभाकर का प्रचण्ड रूप है चिलचिलाती धूप है बाहर-भीतर, दायें-बायें आगे-पीछे, ऊपर-नीचे धग-धगाहट-लपट चल रही है बस! बरस रही केवल तपन...तपन...तपन...! दशा बदल गई है दशों दिशाओं की धरा का उदारतर उर और उरु उदर ये गुरु-दारदार बने हैं जिनमें प्रवेश पाती हैं आग उगलती हवाएँ ये अपना परिचय देती-सीं रसातल-गत उबलते लावा को The restless heart of a saint, enquires thus: ‘O Thou Vernal-hearted ! Mother-Earth ! where hast Thou vanished… O the Majesty of Spring Season! where has thou gone?’ At this, Some words reach the ears of the Saint, That “ The spring season has come to an end The finite has lost itself into the infinite, And the last funeral ceremony of its body has to be performed. The summer season was called for, hence its arrival, There is violent countenance of the Sun The sun-shine is sparkling, The heat of the glowing flames is spreading Inside and outside, rightwards and leftwards, To and fro, Upwards and downwards, Lo! falling down all-around is only Heat...heat...heat...! The condition of all The ten directions has changed, The broader heart of the Earth And These thighs and stomach Have become full of heavy fissures – Wherein enter These extremely hot winds, As if extending their acquaintance With the boiling lava of the regions below the earth.
  5. ०२-०२-२०१६ वेदी प्रतिष्ठा बेगूं (चित्तौड़गढ़-राज) सादा जीवन उच्च विचार के धारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में प्रतिपल नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे सहज सरल गुरुवर! विद्याधर बचपन से ही सादगी पसंद करता था। इस सम्बन्ध में ब्रह्मचारिणी कनक जी (दिल्ली) ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र, अजमेर ने बताया- सादगी पसंद विद्याधर ‘‘पूज्य मल्लिसागर जी महाराज(विद्याधर के गृहस्थ अवस्था के पिताजी) ने दिल्ली चातुर्मास में एक दिन ऐसा बताया कि विद्याधर जब युवा हो गया था तब अपनी माँ के लिए बाजार से सादे छापेदार हल्के रंग की साड़ी खरीद के लाया। माँ को दी तो श्रीमती देखकर बोली-यह क्या लाया? तो विद्याधर बोला—'अक्का सादे, कम छापेदार, हल्के रंग के कपड़े पहनना चाहिए।’ उसकी माँ उसे बहुत प्रेम करती थी इसलिए तब से ही श्रीमन्ती ने गहरे रंग के कपड़े नहीं पहने थे।'' इस प्रकार विद्याधर की क्रियाकलाप एवं बातों से माता-पिता, बड़े भाई छोटे भाई-बहिन सभी बड़े प्रभावित हुए और अपना जीवन बदला और आज उनके गुणगान करते हैं। विद्याधर ने अपने आचार-विचारों से सभी को अपने रंग में रंग लिया था। मैं भी गुरु के रंग में रंग जाऊँ इस भावना के साथ नमोस्तु.... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. मैं... दो गला...! मैं...दोगला !! मैं...दो...गला !! कुम्भ में जलीय अंश शेष है अभी निश्शेष करना है उसे और तपी हुई खुली धरती पर कुम्भ को रखता है कुम्भकार। बिना तप के जलत्व का अज्ञान का, विलय हो नहीं सकता। और बिना तप के जलत्व का-वर्षा का, उदय हो नहीं सकता तप के अभाव में ही तपता रहा है अन्तर्मन यह अनल्प संकल्प-विकल्पों से, कल्प-कालों से। विफलता ही हाथ लगी है विकलता ही साथ चली है किसविध कहें, किसविध सहें ? और, किसविध रहें ?.. कोरी बस, सफलता की बात मिली है आज तक, इस जीवन में...। अनन्त की सुगन्ध में खो जाने को मचल रहा है, अन्त की सीमा से परे हो जाने को उछल रहा है, I'm...a wretch...! I...a betrayer !! I, the one to be freed from self-conceit !!! Some watery portion is still left into the pitcher It has to be fully absorbed And The Artisan places the pitcher Upon the basked open ground. Without penance, the wateriness-the ignorance, Can't be annulled And Without heat the rise of wateriness-of rains, Is never possible. In absence of austerities This inner heart has been feeling uneasy Since time immemorial with so many resolves and options. Only failure has been achieved, Only restlessness has accompanied all along, How to tell, how to bear And, how to live ?... Only, indeed, The tidings of success have been achieved, In this life, till today...! To be lost into the Fragrance of the Infinite Is constantly persisting, To go beyond the limits of the extremity Is leaping forward,
  7. २८-०१-२०१६ पंचकल्याण महोत्सव, चेची (राजः) धर्मरसायन विद्या के वैद्यराज गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे नमस्करणीय गुरुवर! आज मैं आपको आपके लाड़ले शिष्य विद्याधर की प्रिय वस्तु और आज्ञापालन तथा परिश्रम लीनता जैसे गुणों के बारे में बताता हूँ। जैसा विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया- प्यार की शक्ति “विद्याधर शुरु से ही माँ से बहुत प्यार करता था। इसलिए माँ की हर बात मानता था। माँ की कभी भी कोई आज्ञा नहीं डाली। वह माँ के कहने पर ज्वार पिसाने जाता, साग-सब्जी लाता, भैसों के लिए चारा डालता, भैसों के लिए भरडा (भूसा, मूंगफली की खल, नमक एवं पानी मिलाना) तैयार करता, भैसों को नदी ले जाता-नहलाता, भैसों के रहने के स्थान पर सफाई करता, भैसों को बाँधता-छोड़ता आदि।घर पर हम लोग बारी-बारी से सफाई करते थे और प्रतिदिन विद्याधर हमारे साथ नदी से पानी लाने के लिए जाता था। कभी भी 'जी' नहीं चुराता था। जो भी कार्य करता था उत्साह पूर्वक करता था और अपने काम स्वयं क्रिया करता था जैसे-अण्डरवियर-बनियान स्वयं धोता था और अपने कपड़ों पर स्त्री (प्रेस) करता था। अपनी सूत की चटाई जिस पर वह सोता था उस पर नाम लिखकर रखता था और चादर भी अलग पहचान बनाकर रखता था। यह सब ८ वर्ष से १७ वर्ष तक यथायोग्य करता रहा।" इस प्रकार विद्याधर ने व्यावहारिक जीवन के कार्य करके माँ से गृहस्थ जीवन की व्यवस्था भी अनायास सीख ली थी। अव्यावहारिक कर्म से बचें इस भावना के साथ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. २५७-०१-२०१६ पंचकल्याण महोत्सव, चेची (राजः) सुगमपथ वीतराग मार्गी आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे हितचिंतक गुरुवर! जन्म-जन्मान्तरों से प्राणी मित्र विद्याधर स्वयं किसी जीव की हिंसा नहीं करते और न ही परिवार जनों को करने देते थे। इस सम्बन्ध में विद्याधर के अग्रज भ्राता ने बताया- करुणा के अवतार ‘‘विद्याधर घर वालों को मच्छर भगाने के लिए धुआँ नहीं करने देता था और खटमल मारने की दवाई भी नहीं छिड़कने देता था कहता था कि इससे जीव हिंसा होगी, पाप लगेगा, वो भी तो जीना चाहते हैं। 'तब उसको हम लोग कहते वो अपने को काटेंगे, तो कहता' अपन मरेंगे नहीं।‘ इसी तरह मुझको फसल पर पंप से पाउडर छिड़कने के लिए मना करता था। कहता पाप लगता है, ऐसी खेती ही क्यों करो। केवल गन्ना की खेती करना चाहिए।' पिताजी उसकी भावनाओं को देखते हुए खेत पर नहीं भेजते थे या कम भेजते थे। उससे खेती का कोई कार्य नहीं कराते थे। जब भी खेत पर विद्याधर जाता था तो मात्र बैठा रहता था। साथ में धर्म की पुस्तक ले जाकर पढ़ता रहता था। एक बार हमने उसको खेत पर भेजा, तो वहाँ पर जाकर बैठ गया और कुछ देर बाद वापस आ गया। मैंने शाम को पूछा-खेत पर गये थे, क्या देखा? तो बोला-‘मजदूर काम कर रहे थे। हमने पूछा कितने लोग थे? तो बोला'१२ थे। हमने पूछा-कितनी महिलाएँ, कितने पुरुष थे? तो बोला ‘मुझे नहीं मालूम।' हमने कहा उनको अलग-अलग मजदूरी देना पड़ती है। तो विद्याधर बोला काम तो सभी बराबर करते हैं ना। तो मजदूरी भी सब को बराबर देना चाहिए।' तब मुझे गुस्सा आया उस पर तो नाराज होकर मौन से बाहर निकल गया। जवाब नहीं देता था।” इस तरह करुण हृदयी विद्याधर आज अहिंसा महाव्रत का पालन कर प्राणी मात्र के सच्चे मित्र बन गए हैं। अहिंसा महाव्रतियों के चरणों में नमोस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  9. उभरा इसमें आज! यह भी सुगमता का संकेत है इससे आगे पद बढ़ना सम्भव नहीं। हे! प्रभो! यही प्रार्थना है पतित पापी की, कि इस जीवन में न सही अगली पर्याय में ...तो मर, हम ‘मरहम' बनें...! चार अक्षरों की एक और कविता ‘‘मैं दो गला” इससे पहला भाव यह निकलता है, कि मैं द्विभाषी हूँ भीतर से कुछ बोलता हूँ बाहर से कुछ और.. पय में विष घोलता हूँ। अब इसका दूसरा भाव सामने आता है : मैं दोगला छली, धूर्त, मायावी हूँ अज्ञान-मान के कारण ही इस छद्म को छुपाता आया हूँ यूँ, इस कटु सत्य को, सब हितैषी तुम भी स्वीकारो अपना हित किसमें है? और इसका तीसरा भावे क्या है- पूछने की क्या आवश्यकता है? सब विभावों-विकारों की जड़ ‘मैं' यानी अहं को दो गला–समाप्त कर दो Took rise in it today! It also is an indication of good luck It is not possible to take some step ahead of it. O Lord ! the depraved sinner prays simply, That If not within this life-span At least in the next course of birth...indeed After death, we should become a “salve'...! One more verse of four syllables- “I’m double-throated" The first sense which it conveys is that I am bi-linguist I speak internally something different Some thing else externally… I mingle poison with the milk. Now its second sense seems to appear : I'm a bastard I’m deceitful, cunning and fraudulent Due to ignorance and arrogance indeed I have been concealing this perfidy Thus you too all the well-wishers Acknowledge this bitter truth, Where does your well-being lie ? And What is the third sense which it carries – Is there a need to ask about it ? Let the root of all the ill-wills and Passions ‘I', that is, egotism Be melted -, be eradicated
  10. २५-०१-२०१६ चेची (राजः) ब्रह्माण्डी ज्ञानऊर्जा धारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज आपके ज्ञानाचरण को नमन करता हूँ… हे गुरुवर! दया अहिंसा की माँ है, दया ही अहिंसा में परिणत होती हैं। विद्याधर सहज उत्पन्न दया के भण्डार थे। यही कारण है कि विद्याधर की शुद्ध दया ही अहिंसा महाव्रत में परिणत हुई। इस सम्बन्ध में मुनि योगसागर जी महाराज (विद्याधर के गृहस्थ अवस्था के छोटे भाई अनन्तनाथ) ने बताया- दयालु विद्याधर ने जीवों को बचाने का लिया संकल्प “जैसे दूध में घी तैरता है वैसे ही भव्य पुरुष के हृदय में दया स्वाभाविक रूप से तैरती हुई नजर आती है। दया-अहिंसा, परोपकार को जन्म देती है। योगियों की योग्यता का मापदण्ड दया है। बचपन की दया ने विद्याधर को दया का सागर विद्यासागर बना दिया। बचपन में एक बार विद्याधर ने घर के एक कोने में चूहे का एक बड़ा बिल देखा उसमें नवजात चूहे का बच्चा तड़प रहा था। उसके शरीर पर लाल चीटियाँ काट रहीं थीं। देखते ही विद्याधर ने शिशु चूहे को अपने हाथों में उठा लिया और एक-एक करके चीटियों को फूँक से उड़ा दिया। वह शिशु चूहा बच गया। उसी समय माँ ने देखा और पूछा-क्या कर रहे हो? विद्याधर ने बताया, तब माँ बोली यह तिर्यंच गति दुःख की गति है, इस प्रकार से तिर्यंच जीव संसार में सदा दुःख उठाते हैं। दु:खी जीवों पर दया करना अच्छी बात है, किन्तु शिक्षा भी लेना चाहिए, ऐसी गति में जाने से बचना चाहिए। विद्याधर ने माँ को कहा-‘मैं सदा दु:खी जीवों को बचाऊँगा और ऐसे कोई कार्य नहीं करूँगा जिससे तिर्यंच गति में जाना पड़े तथा उस शिशु चूहे को ऊँचे स्थान पर रख दिया जिससे अन्य जीव उसे पीड़ा न पहुँचा पायें।" इस प्रकार आज आपके दिव्य शिष्य की प्रेरणा से सैकड़ों गौ शालाएँ संचालित हो गईं हैं। जहाँ पर कत्लखानों से लक्षाधिक गौ वंश को बचाया गया है। बचपन की दया आज दया का सागर बन गई है। ऐसे अहिंसा के पुजारी गुरुवर को नमोस्तु.... आपका शिष्यानुशिष्य
  11. हमारे धवलिम भविष्य हेतु प्रभु की यह आज्ञा है कि : ‘‘कहाँ बैठे हो तुम श्वास खोते सही-सही उद्यम करो पाप-पाखण्ड से परे हो कर पर कर दो बच जाओगे। अन्यथा मेल में अन्ध हो जेल में बन्द हो पच पाओगे...!'' ‘‘मर हम मरहम बनें'' यह चार शब्दों की कविता भी मिलती है यहीं, कुम्भ पर! इसका आशय यही हो सकता है कि कितना कठिनतम पाषाण-जीवन रहा हमारा! कितने पथिक-जन ठोकर खा गये इससे रुक गये, गिर गये! पथ को छोड़ कर फिर गये कितने। फिर, कितने पद लहूलुहान हो गये, कितने गहरे घावदार बन गये वे! समुचित उपचार कहाँ हुआ उनका, होता भी कैसा पापी पाषाण से...! उपचार का विचार भर For our bright future The Lord commands that : ‘Where do you sit while losing your breaths Take up the genuinely true endeavour, Being free from sin and hypocrisy Adopt the posture of sainthood You shall be saved. Otherwise Being blinded by the jumble Being put into prison You shall be consumed...!’ “Having died, we should turn into a healing Ointment” This almost four-worded line of poetry too Is found here upon the holy pitcher ! It may convey only the sense that Bhī’ How hardest had been Our stone-like life ! We got stumbled upon it, We were taken aback, we fell down ! Having forsaken the right path How many of us turned back ! Then, How many feet got blood-stained, How deeply wounded they were found ! When were they provided with proper treatment, How it was possible by the sinful stone...! Merely an idea of treatment
  12. तुम भी हो सब कुछ! ‘ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, ‘ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है 'भी' वस्तु के भीतरी भाग को भी छूता है, ‘ही' पश्चिमी सभ्यता है ‘भी’ है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता । रावण था 'ही' का उपासक राम के भीतर 'भी' बैठा था यही कारण है कि राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी। 'भी' के आस-पास बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य, किन्तु भीड़ नहीं, 'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है। लोक में लोकतन्त्र की नीड़ तब तक सुरक्षित रहेगी जब तक 'भी' श्वास लेता रहेगा। 'भी' से स्वच्छन्दता-मदान्धता मिटती है स्वतन्त्रता के स्वप्न साकार होते हैं, सविचार सदाचार के बीज 'भी' में हैं, 'ही' में नहीं। प्रभु से प्रार्थना है, कि ‘ही' से हीन हो जगत् यह अभी हो या कभी भी हो ‘भी' से भेंट सभी की हो। ‘‘कर पर कर दो” कुम्भ पर लिखित पंक्ति से ज्ञात होता है, कि You do exist as well Every thing exists ! Hi, that is, only' beholds the other with an inferior viewpoint · ‘Bhī’, that is, ‘also' looks at all with a proper Insight, 'Hi, i.e., ‘only' seizes upon the shape of a thing 'Bhi’ , i.e., ‘ also' touches the inner core too of a thing, ‘Hi’ , i.e., ‘only' is the Western culture ‘Bhi’ i.e., also' is the Indian culture, the fortune-maker. Rāvana was the worshipper of “hi , i.e., ‘only’ ‘Bhi’ , i.e., also was seated within Rām. That is the reason, why Rām has been and shall be in future an object of adoration. Around the 'Bhi , i.e., also– A crowd certainly seems to be grown, But it is not really a crowd ‘Bhi’ , i.e., also' is the back-bone of democracy. The nest of democracy in the world Shall remain secure, so long as The ‘bhi, i.e., also' shall go on breathing. Wantonness and passion-blindness is pacified - Through the ‘bhi i.e., also' - The dreams of liberty are materialized, The seeds of right thinking and right conduct Pulsate within ‘bhī, i.e., also'; and not in ‘hī, i.e., only. We pray to God that This world should be freed from ‘hi,i.e., ‘only’ ‘Bhi’ , i.e., ‘also' should be embraced by all, It be so whether just now or in distant future. “Place the right upward palm upon the left one” - This line inscribed upon the pitcher shows that –
  13. न ही अपने सद्य:जात शिशु का भक्षण...! वहीं...कुम्भ पर कछुवा और खरगोश का चित्र साधक को साधना की विधि बता सचेत करा रहा है। कछुवा धीमी अपनी चाल चलता समय के भीतर लक्ष्य तक जा चुका है, और खरगोश धावमान होकर भी बहुत पीछे रह चुका है कारण विदित ही है- एक की गति अविरल थी एक ने पथ में निद्रा ली थी, प्रमाद पथिक का परम शत्रु है। अब दर्शक को दर्शन होता है- कुम्भ के मुखमण्डल पर ‘ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का। ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘ही' एकान्तवाद का समर्थक है 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक। हम ही सब कुछ हैं यूँ कहता है ‘ही' सदा, तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो! और, 'भी' का कहना है कि हम भी हैं Nor does he eat up His newly-born cub...! Exactly there...upon the pitcher The depiction of the tortoise and the hare Is serving a note of caution By telling the method of devotion to the devotee. The tortoise moving on with its slow gait Has attained its goal within time, And The hare – despite taking a run, Legged much behind; The reason is well-known indeed – The gait of the one was without any hindrance The other one had slumbered on its way, Negligence is the formidable foe of the wayfarer. Now the on-looker beholds- Upon the facial disc of the pitcher The two syllables- Hi, i. e., only’ and ‘bhi i.e., ‘also’ Both of these are the prime syllables or code characters They represent their own respective philosophies."Hi', that is, 'only' is the vindicator of the doctrine of Absolutism, Bhi, that is, ‘also' is symbolic of ‘Anekānta' and Syādvāda’- That is, Relative ‘Pluralism’ and ‘Assertion of Probability,’ Hi, that is, 'only' always advocates thus – We, and only we alone are all in all, You are insignificant, nothing ! And ‘bhī that is, ‘also' asserts that We, too, are there
  14. श्वान-सभ्यता-संस्कृति की इसीलिए निन्दा होती है कि वह अपनी जाति की देख कर धरती खोदता, गुर्रता है। सिंह अपनी जाति में मिल कर जीता है, राजा की वृत्ति ऐसी ही होती है, होना भी चाहिए। कोई-कोई श्वान पागल भी हुआ करते हैं और वह जिसे काटते हैं वह भी पागल हो श्वान-सम भौंकता हुआ नियम से कुछ ही दिनों में मरता है, परन्तु कभी भी यह नहीं सुना कि सिंह पागल हुआ हो। श्वान-जाति का एक और अति निन्द्य कर्म है, कि जब श्नुधा से पीड़ित हो, खाद्य नहीं मिलने से मल पर भी मुँह मारता है वह, और जब मल भी नहीं मिलता...तो… अपनी सन्तान को ही खा जाता है, किन्तु, सुनो! भूख मिटाने हेतु सिंह विष्ठा का सेवन नहीं करता है The dog-civilization and culture Is condemned due to the reason That On seeing his own tribe He paws the earth and growls. The lion loves cordially mixing himself with his clan, The tendency of a king is found similar indeed, It ought to be likewise. Some of the dogs Go mad also And the person too When they bite, Running amuck like a dog Dies barking as a rule Within some period, But It has never been heard That a lion went insane ! There is one more entirely absurd action Of the tribe of dogs, that At times, while suffering from hunger, When the eatables are not available, He feeds himself even upon the sewage, And When even the sewage is not found...then… Eats up really his own offspring, But, listen ! To pacify his hunger The lion doesn't treat the sewage as food
  15. २२-०१-२०१६ बेगूं (चित्तौड़ राजः) रत्नत्रय उपासक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के गुणों की उपासना करता हूँ… हे श्लाघनीय गुरुवर! आज मैं विद्याधर में एवं आपके कीर्ति स्तम्भ शिष्य मेरे गुरु विद्यासागर जी के स्वभाव, व्यवहार, ज्ञान, विचार, जीवन के हर पहलुओं के अनेकों गुणों के चमकने का कारण लिख रहा हूँ। इस सम्बन्ध में विद्याधर के अग्रज भाई ने बताया- विद्याधर के आदर्श महापुरुष "जब विद्याधर १५ वर्ष का था तब वाचनालय में जाकर महापुरुषों की आत्मकथा (बायोग्राफी) की पुस्तकें पढ़ता था। वह शिवाजी, कित्तूरचन्नम्मा (अंग्रेजों से लड़ने वाली), टीपू सुल्तान (मैसूर टाईगर), गाँधी जी, रविन्द्रनाथ टैगोर, विनोबा भावे, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि की पुस्तकें पढ़कर उसमें से अच्छी बातें लिखकर लाता था। फिर छोटे भाई-बहिनों को सुनाता था। माँ को भी सुनाता था। इसके अतिरिक्त पट्टमहादेवी शान्तला, दान चिन्तामणि, भद्रबाहु चरित्र पढ़कर फिर घर पर उसकी कहानियाँ सुनाता था और इन विषयों पर मित्रों से घण्टों-घण्टों चर्चा करता रहता था।” इस तरह विद्याधर के आदर्श महापुरुषों की कथाओं ने विद्याधर में आदर्शों के बीज बोये थे। वे आज पुष्पित पल्लवित होकर वट वृक्ष बन गए हैं और वे हो गए हैं लोक जीवन के आदर्श महापुरुष। उन आदर्शों को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  16. कभी नहीं करता सिंह! जब कि स्वामी के पीछे-पीछे पूँछ हिलाता श्वान फिरता है एक रोटी के लिए। सिंह के गले में पट्टा बँध नहीं सकता किसी कारण वश बन्धन को प्राप्त हुआ सिंह पिंजड़े में भी बिना पट्टा ही घूमता रहता है, उस समय उसकी पूँछ ऊपर उठी तनी रहती है अपनी स्वतन्त्रता-स्वाभिमान को कभी किसी भाँति आँच आने नहीं देता वह! और श्वान स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता, पराधीनता-दीनता वह श्वान को चुभती नहीं कभी, श्वान के गले में जंजीर भी आभरण का रूप धारण करती है। एक और विशेष बात है कि श्वान को पत्थर मारने से पत्थर को ही पकड़ कर काटता है मारक को नहीं ! परन्तु सिंह विवेक से काम लेता है। सही कारण की ओर ही सदा दृष्टि जाती है सिंह की, मारक के ऊपर मार करता है वह। Is never adopted by the lion ! When While swinging the tail behind his owner The dog trails for a loaf of bread. A belt can't be tied around a lion's neck, Due to some reason A lion, put behind the bars, Keeps loitering without a belt, indeed, Even inside the cage In that period, his tail Remains straightened up, backwards He never allows his liberty and self-respect To be injured In any way! And a dog Doesn't know the value of freedom, The slavery and humiliation Doesn't ever pinch a dog, Even the chain around the throat of the dog Holds the form of an embellishment. Moreover, the special point is that The dog when stoned at Bites the very stone on seizing upon it And not the stone-pelter ! But The lion applies his commonsense, The lion's insight always Catches at the genuine cause...indeed… He hits back upon the killer.
  17. फिर क्या बताना! ३६ के आगे एक और तीन की संख्या जुड़ जाती है, कुल मिलाकर तीन सौ त्रेसठ मतों का उद्भव होता है जो परस्पर एक-दूसरे के खून के प्यासे होते हैं जिनका दर्शन सुलभ है आज इस धरती पर ! कुम्भ पर हुआ वह सिंह और श्वान का चित्रण भी बिना बोले ही सन्देश दे रहा है- दोनों की जीवनचर्या-चाल परस्पर विपरीत है। पीछे से, कभी किसी पर धावा नहीं बोलता सिंह, गरज के बिना गरजता भी नहीं, और बिना गरजे किसी पर बरसता भी नहीं- यानी मायाचार से दूर रहता है सिंह। परन्तु, श्वान सदा पीठ-पीछे से जा काटता है, बिना प्रयोजन जब कभी भौंकता भी है। जीवन-सामग्री हेतु दीनता की उपासना What next is to be told ! Ahead of 36 One more digit of three is added, In sum total Three hundred and sixty three creeds are originated Which are at daggers drawn With each other, Whose views are commonplace Around this earth to-day! The depiction of lion and dog too Is marked upon that pitcher It is imparting its message without giving its tongue indeed – The life-style and daily routine of the both of them Is opposite to each other. The lion doesn't make an assault On anybody stealthily, He doesn't roar without his concern too, And Without a gnarl Doesn't browbeat too in anger upon anybody - That is The lion keeps himself away from any Fraudulence. But the dog often pounces upon To bite from behind, Every now and then, even barks uncalled-for. For life-stuff The adoration of poorliness
  18. २१-०१-२०१६ टुकराई (राजः) लोक-परलोक के ज्ञाता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों की वंदना करता हूँ… हे गुरुवर! आज मैं आपको विद्याधर के शौक के बारे में बताता हूँ। एक युवा-जवान को देखकर सहज ही उत्कण्ठा हो जाती है कि इसकी कैसी-क्या प्रवृत्ति होगी? आज विद्याधर की युवा अवस्था के बारे में हर किसी को जिज्ञासा बनी हुई है कि वे कैसा क्या करते थे? इसका समाधान जैसा विद्याधर के अग्रज ने बताया वह मैं बता रहा हूँ- रेडियो से जग को जानने का शौक ‘उस जमाने में दूरदर्शन तो नहीं था, किन्तु कर्ण से ज्ञानार्जन का साधन अवश्य था। तब नया-नया रेडियो का प्रचलन हुआ था। अन्नाजी एक रेडियो खरीद कर लाए थे। विद्याधर को उसको चलाने का और उसमें मराठी में समाचार एवं कहानी संवाद सुनने का शौक हो गया था। वह आकाशवाणी, ऑल इण्डिया रेडियो तथा बी. बी. सी. लंदन स्टेशन के समाचार प्रायः सुनता था, उसे दुनिया जानने की जिज्ञासा बनी रहती थी, किन्तु रेडियो सुनने की आदत नहीं पड़ी थी। इसलिए वह कब छूट गया पता ही नहीं चला।” इस तरह विद्याधर ज्ञान प्राप्ति के किसी भी साधन-उपाय को छोड़ता नहीं था। चाहे घर पर पिता का स्वाध्याय वाचन हो, विद्यालयीन पढाई हो, मंदिर जी में स्वाध्याय हो या रेडियो हो। विद्याधर की इस सुप्रवृत्ति से शिक्षा मिलती हैं कि वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग शिक्षा के लिए करो किन्तु आदी मत बनो। ज्ञान को जागृत करने की ललक मुझमें भी सतत बनी रहे इस भावना के साथ आशीर्वाद का पिपासु... आपका शिष्यानुशिष्य
  19. कुम्भ के कण्ठ पर एक संख्या और अंकित है, वह है ६३ जो पुराण-पुरुषों की समृति दिलाती है हमें। इसकी यह विशेषता है कि छह के मुख को तीन देख रहा है और तीन को सम्मुख दिख रहा छह! एक-दूसरे के सुख-दु:ख में परस्पर भाग लेना सज्जनता की पहचान है, और औरों के सुख को देख, जलना औरों के दुःख को देख, खिलना दुर्जनता का सही लक्षण है। जब आदर्श पुरुषों का विस्मरण होता है तब ६३ का विलोम परिणमन होता है यानी ३६ का आगमन होता है। तीन और छह इन दोनों की दिशा एक-दूसरे से विपरीत है। विचारों की विकृति ही आचारों की प्रकृति को उलटी करवट दिलाती है, कलह-संघर्ष छिड़ जाता है परस्पर। One more number is also marked, Upon the throat of the pitcher, That is 63 Which makes us remember The personages among the holy scriptures. It carries a speciality that The digit three Is facing the digit six And The digit six is in the frontal view of the digit three! The sharing of pleasures and pains Mutually with each other Is the recognition of gentility, And To be jealous of the happiness of others To feel delight in the sufferings of others Is the true symptom of wickedness. When The ideal personalities are forgotten Then The reverse of 63 holds ground That is The advent of 36 takes place. Three and six – the direction of the both of them Is contrary to each other. The perversion of thoughts Makes the true nature of our conduct Take an evil turn. A strife, a conflict starts with one another.
  20. २0-०१-२०१६ वेदीप्रतिष्ठा माण्डलगढ़ (राजः) स्फटिक के समान निर्मल, जौहरी के समान परीक्षक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे कर्तव्य परायण गुरुवर ! विद्याधर के जीवन की खुली किताब के कोई भी पन्ने को पढ़ो तो उसमें उसकी गुण विशिष्ट सुगन्धी से मन तरोताजा हो उठता है। महापुरुषत्व की विशेषताओं से उसके जीवन का हर अध्याय भरा पड़ा है। आज आपको विद्याधर की स्वर साधना के बारे में लिख रहा हूँ। एक दिन बड़े भाई महावीर जी ने अपनी स्मृति का एक अध्याय पढ़कर बताया- विद्याधर मधुर वाणी के गायक “विद्याधर का स्वर बहुत मधुर था। उसके मुख से हमने कभी भी फिल्मी गाने तो नहीं सुने किन्तु भगवान् के भजन, भक्तामर, सहस्रनामस्तोत्र, रत्नाकर वर्णी का रत्नाकर शतक, अपराजितेश्वर शतक एवं सोमेश्वर शतक; वह बड़े ही मधुर-सुरीली आवाज में गाता था। जिसकी प्रशंसा सभी लोग किया करते थे। इसी कारण माँ उसे अत्यधिक प्रेम भी करती थी। कलबसदि (मंदिर) में भी वह भजन एवं स्तोत्र गायन किया करता था और वहाँ पर जो हार्मोनियम बजाते थे उनसे हार्मोनियम बजाना सीख लिया। थोड़ा-थोड़ा बजाना आने लगा था। यह संस्कार उसे माँ से प्राप्त हुआ था। माँ को बचपन से ही सुरीली आवाज में भजन गाने का शौक था।" इस तरह एक महापुरुष के आकर्षक व्यक्तित्व में वाणी की मधुरता और गायन कला भी विशेष स्थान रखती हैं। जो विद्याधर के व्यक्तित्व में जन्म से ही जुड़ी हुई थी। ऐसे जिनगुण गायक को नमन करता हूँ और जब तक कण्ठ में स्वर हैं तब तक मैं भी जिनेन्द्र प्रभु के एवं गुरु के गुणगान करता रहूँ, इस आशीर्वाद का भिखारी... आपका शिष्यानुशिष्य
  21. परस्पर मिलाने पर ज्यों की त्यों ९ की संख्या ही शेष रहती है, यथाः ९x२= १८, १+८=९ ९x३= २७, २+७=९ ९x४= ३६, ३+६=९ इसी भाँति गुणन-क्रम ९ की संख्या तक ले जाइए और आएगी, रहेगी, दिखेगी केवल ९ यही कारण है कि ९९ वह विघन-माया छलना है, क्षय-स्वभाव वाली है और अनात्म-तत्त्व की उद्योतिनी है, और ९ की संख्या यह सघन छाया है पलना है, जीवन जिसमें पलता है अक्षय-स्वभाव वाली है अजर-अमर अविनाशी आत्म-तत्त्व की उद्बोधिनी है विस्तरेण अलम्...! संसार ९९ का चक्कर है यह कहावत चरितार्थ होती है इसीलिए भविक मुमुक्षुओं की दृष्टि में ९९ हेय हो और ध्येय हो ९ नव-जीवन का स्रोत! On being added with each other Precisely the same, the digit of only 9 remains, For example: 9 x 2 = 18, 1+8= 9 9 x 3 = 27, 2+7=9 9 x 4= 36, 3+6= 9 Thus, let the order of multiplication Be carried upto the figure of 9 And the number obtained, retained and sighted shall only be 9, That is the reason, why That 99 Is a hindrance, illusion, hoodwinking, Is a perishable by nature And Is the enhancer of the non-spiritual element; And this digit of 9 Is a dense shade Is a cradle, where in life is nourished Is imperishable by nature Ever-young, immortal, eternal – Is the awakener of the spiritual self Enough of details...! The world is ‘merry-go-round' of 99 This proverb has accomplished its sense Therefore In view of the fortunate ones, desirous of final Liberation, The 99 should be despicable and Attainable by meditation should be the 9– The source of a new life !
  22. १९-०१-२०१६ वेदीप्रतिष्ठा माण्डलगढ़ (राजः) पुण्यवान् नरप्रवर जग उद्धारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल वंदन करता हूँ.... हे तपोधन! चाहे तीर्थंकरों की माँ हो या महापुरुषों की माँ हो हर अच्छे व्यक्तित्व निर्माण में एक अच्छी माँ का हाथ हुआ करता है। उसी प्रकार विद्याधर के व्यक्तित्व निर्माण में भी माता श्रीमन्ती जी के अलौकिक स्नेहमयी हाथों की थपथपी थी। इस सम्बन्ध में मुझे विद्याधर के अग्रज भाई जी ने जो बताया वह लिख रहा हूँ- माँ से मिला खान-पान का विवेक “विद्याधर आदि हम सभी ने बचपन से ही जमीकंद-आलू, प्याज, लहसुन, शकरकंद आदि नहीं खाया। इस कारण कभी होटल नहीं जाते थे और न ही होटल का कुछ ख़ाते थे क्योंकि अक्का (माँ) ने हम लोगों को बचपन से ही ऐसे संस्कार दिए थे। वह कहती थी- 'बाजार में मिलने वाली वस्तु शुद्ध नहीं होती और बनाने वाले भी शुद्ध नहीं होते। इससे अपना शरीर और मन दोनों ही खराब होते हैं।’ अक्का ने ऐसे संस्कार दिए कि विद्याधर आदि हम सभी ने कभी भी रात्रि में कुछ नहीं खाया। यदि कभी पानी की आवश्यकता पड़ती थी तो मात्र पानी पीते थे। तब भी अक्का बोलती थी’ रात्रि में पानी पीना भी पाप है जल्दी पी लिया करो। जिससे रात्रि में प्यास न लगे'।” इस तरह विद्याधर ने भोजन की सात्विकता से जीवन की सात्विकता के संस्कार पाये थे। रसना इन्द्रिय को जो नहीं जीत पाता, वह कामेन्द्रिय पर भी विजय प्राप्त नहीं कर पाता। माता श्रीमन्ती ने प्रतिपल दिव्य अनोखे संस्कारों का बीजारोपण किया था। ऐसी माँ हर किसी को मिले इस शुभ भावना के साथ। नमोस्तु गुरुवर.... आपका शिष्यानुशिष्य
  23. कुछ तत्त्वोद्घाटक संख्याओं का अंकन विचित्र चित्रों का चित्रण और कविताओं का सृजन हुआ है कुम्भ पर! ९९ और ९ की संख्याएँ जो कुम्भ के कर्ण-स्थान पर आभरण सी लगती, अंकित है, अपने-अपने परिचय दे रही हैं। एक क्षार संसार की द्योतक है एक क्षीर-सार की। एक से मोह का विस्तार मिलता है, एक से मोक्ष का द्वार खुलता है ९९ संख्या को दो आदि संख्याओं से गुणित करने पर भले ही संख्या बढ़ती जाती उत्तरोत्तर, परन्तु लब्ध-संख्या को परस्पर मिलाने से ९ की संख्या ही शेष रह जाती है। यथा : ९९x२= १९८, १+९+८=१८, १+८=९ ९९x३= २९७, २+९+९७=१८, १+८=९ ९९x४= ३९६, ३+९+६=१८, १+८=९ इसी भाँति गुणन-क्रम ९ की संख्या तक ले जाइए और ९ की संख्या को दो आदि संख्याओं से गुणित करने पर संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती हुई भी The marking of some numbers Which exhibit the essential truth The depiction of some strange diagrams And The creation of some poems has been done upon the pitcher ! The digits of 99 and the 9 Which look like an embellishment Are marked upon the ear-spot of the pitcher, Are making themselves their acquaintance known. The one provides an indication of the salty world The other that of the milk-essence. The one provides the deepening of delusion, The other opens the door to final Liberation, The digits of 99 On being multiplied by the digit ‘two’ etc. The number may well grow successively, But The obtained digits, being summed up The digit, which remains is that of 9 only. For example: 99 x 2 = 198, 1+9+8 = 18, 1+8 = 9 99 x 3 = 297, 2+9+7= 18, 1+8 = 9 99 x 4 = 396, 3+9+6 = 18, 1+8 = 9 In the same way, the series of multiplication May be carried upto the digit of 9 And The digit of 9 On being multiplied by the digit ‘two’ etc. The number progressively growing too
  24. १४-०१-२०१६ मानपुरा ग्राम (भीलवाड़ा राजः) पूज्यपाद नरपति प्रधान गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के शिवगामिन् चरण कमलों की वंदना करता हूँ। हे जीवननिर्माण कलाविज्ञ गुरुवर! आज आपको वह बात लिख रहा हूँ जो लौकिक होकर भी अलौकिक है। चलचित्र को देखकर अचल चित्त करना और फिर उससे अपने जीवन का निर्माण करना। यह अनोखी कला तो कोई आपके इस शिष्य से सीखे। वो मित्रों के साथ क्या-क्या करते थे मुझे विद्याधर के बड़े भाई जी ने बताया- लौकिकता में भी अलौकिकता की खोज ‘‘विद्याधर अपने मित्र मारुति मडीवाल, पुण्डलीक मूतनाड़े, शिवकुमार हालप्पनवर आदि साथियों के साथ मेले देखने जाता था। पिताजी उसे पैसे देते थे, किन्तु वह वहाँ पर कोई चीज खरीदता नहीं था। सदलगा में या बेड़कीहाल में जब सर्कस आता था तब विद्याधर मित्रों के साथ देखने जाता था। फिर घर आकर सर्कस के समान साईकिल चलाने की कोशिश करता था। धीरे-धीरे वह संतुलन बना लेता था। दो बार घर से मित्रों के साथ साईकिल पर २१ कि.मी. चिक्कौड़ी (तहसील) गया था। वहाँ पर पाण्डालनुमा प्रभात टॉकीज (थियेटर) आते थे। उसमें फिल्म देखने गया था। पहली बार ‘झनक-झनक पायल बाजे' 'फिल्म देखी और दूसरी बार "नागिन (पुरानी)" फिल्म देखी थी।एक बार मित्रों के साथ बैठकर चर्चा कर रहा था तब और किसी अन्य समय मंदिर जी में स्वाध्याय के समय फिल्म की कहानी की शिक्षा को उदाहरण देकर समझा रहा था। उसकी इस कला को देखकर मुझे बड़ा गौरव होता था।” इस तरह विद्याधर खेल-खेल में भी जीवन का संतुलन बनाने लगा था। हर घटना, कथा - कहानी, नाटक या चलचित्रों (फिल्मों) से शिक्षा लेता और जीवन निर्माण की कला सीखता जा रहा था। ऐसे कलाविज्ञ को आपने पहचाना और तराशकर पारलौकिक कलाविज्ञ बनाया आपके श्रीचरणों में नमोस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  25. घृत से भरा घट-सा बड़ी सावधानी से शिल्पी ने चक्र पर से कुम्भ को उतारा, धरती पर दो-तीन दिन का अवकाश मिला सो...कुम्भका गीलापन मिट-सा गया... सो...कुम्भ का ढीलापन सिमट-सा गया। आज शिल्पी को बड़ी प्रसन्नता है कुम्भ को उठा लिया है हाथ में। एक हाथ में सोट लिया है एक हाथ की कुम्भ को ओट दिया और कुम्भ की खोट पर चोट किया। हाथ की ओट की ओर देखने से दया का दर्शन होता है, मात्र चोट की ओर देखने से निर्दयता उफनती-सी लगती है परन्तु, चोट खोट पर है ना! सावधानी बरत रही है; शिल्पी की आँखें पलकती नहीं है तभी...तो… इसने कुम्भ को सुन्दर रूप दे घोटम-घोट किया है कुम्भ का गला न घोट दिया! Like a pot filled with clarified butter, that is, Ghi, The Artisan, with utmost care, Brought the holy pitcher (Kumbha) down the wheel, Upon the ground ! An interval was found For two or three days So...the humidity of the pitcher Was almost withered away… Hence, the laxity of the pitcher... Was almost contracted. Today, the Artisan is highly delighted - The holy pitcher has been picked up in hand. He has taken up a wand in one hand Has provided a cover with the other one, And The flaw of the holy pitcher has been hit with it. On keeping in view the covering of hand The sense of compassion is perceived, While keeping an eye upon the strokes only The sense of cruelty seems to be boiling over, But, The strokes are really confined to the flaw! The precaution is being observed; The eyes of Artisan do not wink That is...why... Having bestowed an excellent form to the holy pitcher He has polished and smoothened it, The throat of the holy pitcher has not been choked!
×
×
  • Create New...