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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. फिर वह मौन टूटता है, ॐकार के उच्च उच्चारण के साथ! शीतल जल करतल ले मन्त्रित करता है अन्तर्जल्प से मंगल-कुशलता को आमन्त्रित करता है अन्तःकल्प से, मूच्छित मन्त्रि-मण्डल के मुख पर मन्त्रित जल का सिंचन कर। फिर क्या कहना! पल में पलकों में हलचली हुई मुंदी आँखें खुलती हैं, जिस भाँति प्रभाकर के कर-परस पा कर अधरों पर मन्द-मुस्कान ले सरवर में सरोजिनी खिलती हैं। मूच्छ दूर होते ही मण्डली मुक्ता से दूर भाग खड़ी होती, राजा का भी स्थानान्तरण हुआ कहीं पुनरावृत्ति हो न जाय इस भीति से...! फिर, उत्कण्ठा नहीं कण्ठ में अवरुद्ध भरा-सा कण्ठ है दबी-दबी कँपती वाणी में। सजल लोचन लिये कर मुकुलित किये, विनयावनत कुम्भकार कहता है: “अपराध क्षम्य हो, स्वामिन्! Then, that Reticence gives way, With the loud pronunciation of Omkāra ! Having placed cool water on the folded palms. Consecrates with the internal utterings, The welfare and the well-being Is invited with the internal competence, After sprinkling the water consecrated by Mantras’ Upon the faces of the fainted council of Ministers. Then, how excellent ! Within seconds, the eyelids fluttered a bit The closed eyes were unfolded, In the same manner As a water-lily blossoms into a pond With a tender smile on its lips, On being touched by the sun-beams. The swoon being faded away The retinue stayed off at a distance from the pearls, The King too was taken somewhere else Due to the fear… Lest the recurrence should take place...! Then, No eagerness is there in the heart The throat seems somewhat choked Into the suppressed trembling speech. With wet eyes With folded hands, In all humility, the Potter-artisan says: “The offence be pardoned, O Lord !
  2. राज-मण्डली का मूच्छित होना, राजा का कीलित-स्तम्भित होना विषाद का कारण रहा, और स्त्री और श्री के चंगुल में फँसे दुस्सह दु:ख से दूर नहीं होते कभी- यह जो स्पष्ट दिखा विरति का कारण रहा। कुम्भकार को रोना आया इस दुर्घटना का घटक प्रांगण रहा, जो स्वर्ग और अपवर्ग का कारण था आज उपसर्ग का कारण बना, मंगलमय प्रांगण में दंगल क्यों हो रहा, प्रभो ? लगता है कि अपने पुण्य का परिपाक ही इस कार्य में निमित्त बना है। यूँ स्व-पर-संवेदन हेतु प्रभु से निवेदन करता है, कि जीवन का मुण्डन न हो सुख-शान्ति का मण्डन हो, इनकी मूच्र्छा दूर हो बाहरी भी, भीतरी भी इनमें ऊर्जा का पूर हो। कुछ पलों के लिए माहौल स्पन्दन-हीन होता है। वह बोल वन्दन-लीन होता है The fainting of the royal retinue, The nailing down and stunning of the king Remained the reason behind the sorrow; And Those who were caught into the snare of woman and wealth Never got rid of the unbearable agonies -This point clearly seen Was the cause of indifference to worldly pursuits. The Potter-artisan felt like weeping A component of this tragedy was the courtyard, That which was the cause of heaven and ‘liberation Provides the cause of calamity by evil spirits, today, Why such a noisy quarrel, O Lord, Inside the auspicious courtyard ? It seems, The ripeness of our own virtuous conduct Has acted as an efficient cause, in this happening Thus For experiencing the Selfand the 'Non-Self ’ Makes an entreaty before the Lord, that The life shouldn't be robbed Happiness and Peace be adorned, The internal as well as the external delirium Of these persons should be wiped off, They should be filled with vitality. For some moments A motionlessness prevails inside the surroundings. That uttering immerses into adoration –
  3. यह सब देख कर भयभीत हुआ राजा का मन भी, उसका मुख खुला नहीं मुख पर ताला पड़ गया हो कहीं, हाथ की नाड़ी ढीली पड़ गई। राजा को अनुभूत हुआ, कि किसी मन्त्र-शक्ति के द्वारा मुझे कीलित किया गया है हाथ हिल नहीं सकते, ...थम गये हैं। पाद चल नहीं सकते ...जम गये हैं। धुंधला-धुंधला-सा दिखने लगा, कान सुन नहीं सकते, ...गुम हो गये हैं। प्रतिकार का विचार मन में है पर, प्रतिकार कर नहीं सकता, किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ राजा! और माहौल का मन्तव्य गूढ़ हो गया! जमाने का जमघट आ गया इसी अवसर पर ! कुम्भकार का भी आना हुआ, देखते ही इस दृश्य को एक साथ शिल्पी की आँखों में तीन रेखाएँ खिंचती हैं विस्मय-विषाद-विरति की! विशाल जन-समूह वह विस्मय का कारण रहा, On seeing all these happenings The mind of the king too felt afraid, His lips did not move apart As if the mouth was somewhere locked-up, The throbbing in the hand-pulse was loosened, The king feels, that He has been nailed down By the influence of some incantations The hands have become motionless, ...Have Stiffened The feet can't move on ...Have become co-agulated. The sight has become dim and foggy, The ears have lost audibility, ... Have become distracted. The idea of retaliation lurks in the mind But, the revenge can't be taken, The king found himself into a fix And The aim and objective of the surroundings became obscure ! The crowds of the world thronged around On this very occasion ! The Potter-artisan too arrived, At the very sight of this scene The three lineations of wonder-sorrow desirelessness Spring up together Into the eyes of the Artisan ! That vast assemblage Was the cause of wonder;
  4. बाहुबल मिला है तुम्हें करो पुरुषार्थ सही पुरुष की पहचान करो सही, परिश्रम के बिना तुम नवनीत का गोला निगलो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह प्रत्युत, जीवन को खतरा है। पर-कामिनी, वह जननी हो, पर-धन कंचन की गिट्टी भी मिट्टी हो, सज्जन की दृष्टि में! हाय रे! समग्र संसार-सृष्टि में अब शिष्टता कहाँ है वह ? अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र!’’ यूँ, कर्ण-कटुक अप्रिय व्यंग्यात्मक वाणी सुन कर भी हाथ पसारती है मण्डली, और मुक्ता को छूते ही बिच्छू के डंक की वेदना, पापड़-सिकती-सी काया सबकी छटपटाने लगी करवटें बदलने लगी... अंग-अंग में तड़पन-पीड़ा एड़ी से ले चोटी तक विष व्याप्त हुआ हो सब में मुग्धा मण्डली मूर्च्छित हुई मोही मन्त्री समेत... सबको देह-यष्टि नीली पड़ गई। You have got the strength of arms Engage yourself in right endeavours Recognize the genuine person, You may well swallow a ball of butter, Without hard work, It shall never be digested On the contrary, the life is imperilled ! The other's better-half, be regarded as mother, The other's riches, even a piece of gold, Be merely a clod in the eyes of a virtuous man ! Alas ! In the whole of the world of creation Where is to be found that decorum ? Only the wickedness has prevailed !” Thus, in spite of even hearing The discordant, offensive, sarcastic utterings The company stretches out its hands, And As soon as the pearls are touched off, The agony of the sting of a scorpion, Like the thin crisp cakes of pulses being roasted The bodies of all of them start tossing and tumbling about And begin to change sides… It seems as if all of them Feeling agonizing pains in every limb Are poisoned from head to heel The enchanted party faints The slender bodies of all of them grow bluish ! A long with that of the infatuated counsellor...!
  5. कुम्भकार की अनुपस्थिति प्रांगण में मुक्ता की वर्षा… पूरा माहौल आश्चर्य में डूब गया अड़ोस-पड़ोस की आँखों में बाहर की ओर झाँकता हुआ लोभ! हाथों-हाथ हवा-सी उड़ी बात राजा के कानों तक पहुँचती है। फिर क्या कहना प्राणी! क्यों ना छूटे… राजा के मुख में पानी!! अपनी मण्डली ले राजा आता है मण्डली वह मोह-मुग्धा- लोभ-लुब्धा, मुधा-मण्डिता बनी... अदृष्ट-पूर्व दृश्य देख कर! मुक्ता की राशि को बोरियों में भरने का संकेत मिला मण्डली को। राजा के संकेत को आदेश-तुल्य समझती ज्यों ही...नीचे झुकती मण्डली राशि भरने को, त्यों ही... गगन में गुरु गम्भीर गर्जना : “अनर्थ...अनर्थ...अनर्थ..! पाप...पाप...पाप...! क्या कर रहे आप...? परिश्रम करो पसीना बहाओ The showers of pearls over the courtyard... In absence of the Potter-artisan The whole of the atmosphere is drowned into an Amazement, The sense of greed peeping through The eyes of the neighbourhood around ! Hastily catching the winds, the rumour Reaches the ears of the King. Then, o thou animate being! Why the King's mouth... Shouldn't begin to water !! The King approaches with his retinue- The band of attendants enamoured with allurement, Enchanted with temptations Having observed the spectacle previously unseen Feels as if deployed in vain...! The party gets a hint Of filling the heap of pearls Into the bags. Having taken the King's hint As a royal command, The party as soon as...stoops For picking up and packing the heaps, At once, comes from the blue… A heavily grave thundering : “A great misfortune...an offence...a smash ! A sin...a crime...an evil...! What are you undertaking...? Work hard Sweat your souls out,
  6. १२-०३–२०१६ तलवाड़ा (बाँसवाड़ा राजः) जन्मकल्याणक महोत्सव अनुभवी दूरदृष्टा श्रमण संस्कृति प्रहरी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में अनन्त नमस्कार... हे गुरुवर! दादिया में अजमेर के विद्वान् श्रीमान् पण्डित विद्याकुमार सेठी, धीमान् श्री छगनलाल जी पाटनी, सर सेठ साहब श्रीमान् भागचंद सोनी जी, कजौड़ीमल अजमेरा, कैलाश पाटनी आदि ने आपसे ब्रह्मचारी विद्याधर जी की मुनि दीक्षा को टालने के लिए निवेदन किया था। तब आपने जो भाव व्यक्त किए थे वो आज सत्य होते देख रहा हूँ। आपके वचनों को सुनने वाले दादिया के हरकचंद झांझरी जी ने हू-ब-हू १९९४ अजमेर में लिखकर दिए थे, वह स्मृति आपको करा रहा हूँ.... गुरु ने कहा ब्र. विद्याधर जैनधर्म की बड़ी भारी निधि "यहाँ दादिया में ब्रह्मचारी जी को सीधे मुनि दीक्षा देने का टायम निश्चित हो गया था। तो अजमेर से कई विद्वान् पण्डित जी, श्रीमान्-धीमान् सेठ साहब ने आकर ज्ञानसागर जी से निवेदन किया कि इतनी छोटी उम्र में सीधे मुनि दीक्षा देना उचित नहीं रहेगा। पहले क्षुल्लक दीक्षा देवें। तब गुरु महाराज ज्ञानसागर जी, सर सेठ साहब भागचंद जी सोनी से बोले- 'मेरी काफी उम्र हो गई है और ब्रह्मचारी जी को पूरा परख लिया है। मेरी उम्र संघ में ही गुजरी है। अत: अपने अनुभव से यह कार्य कर रहा हूँ। यह ब्रह्मचारी जी मुनि बनकर धर्म का बहुत नाम उजागर करेंगे। यह जैनधर्म की बहुत भारी निधि है, यह कोई साधारण त्यागी नहीं है इसलिए सीधे मुनि दीक्षा ही दी जायेगी।' यह गुरु महाराज का निर्णय सुनकर वो सभी लोग चले गए। गुरु महाराज दादिया से १४-१५ जून १९६८ को विहार कर तिहारी, श्रीनगर, बीर ग्राम होते हुए अजमेर २० जून १९६८ को पहुँचे।" इस तरह आप अजमेर शहर में दीक्षा देने के लिए पहुँचे। आपकी दृढ़ता को मैं नमन् करता हूँ और आपकी वचन सिद्धि का चमत्कार साक्षात् देख रहा हूँ। आपको क्या कहूँ-ज्योतिषाचार्य या निमित्तज्ञानी, सिद्धवक्ता या महासाधक आप जो भी हैं, आपश्री के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. ज्यों ही.. क्षेत्र की दूरी सिमट गई सघन-कणों का पिघलन-कणों से मिलन हुआ। परस्पर गले से गले मिल गये ! शेष बचा संस्कार के रूप में छल का दिल छिल गया सब कुछ निश्छल हो गये और जल को मुक्ति मिली। लो! यूँ मेघ से मेघ मुक्ता का अवतार! यह किसकी योग्यता वह कौन उपादान है ? यह किसकी सहयोगता वह कौन अवदान है ? यहाँ वेदना किसकी वह कौन प्राण है ? यहाँ प्रेरणा किसकी वह कौन त्राण है ? वे सब शंकाएँ स्वयं निःशंका हुई अब सब कुछ रहस्य खुल गया पूरा का पूरा, मुक्ता की वर्षा होती अपक्व कुम्भों पर कुम्भकार के प्रांगण में...! पूजक का अवतरण! पूज्य पदों में प्रणिपात। As soon as... The distance of the zone shrinks The dense atoms Mingled up with the liquefying atoms Which embrace each other closely ! In the form of the remaining purificatory rites The inner core of deception is worn away, Everything appears to be guileless And The watery portion is emancipated. Lo! Thus The procreation of the cloud-pearl like the cloud! Whose capacity is this - What is that eminent cause ? Whose co-operation is this What is that meritorious work? Whose agony is hereat What are those vital breaths ? Whose inspiration is herewith What are those means of protection ? All these doubts Feel themselves doubtless, Now all the mystery Is fully unravelled, The pearls rain down Upon the unripened jars Within the courtyard of the Potter-artisan...! The advent of the adorer ! Stoopings upon the revered feet.
  8. जिनमें सहन-शीलता आ ठनी हनन-शीलता सो हनी, जिनमें... सन्तों-महन्तों के प्रति नति नमन-शीलता जगी यति यजन-शीलता जगी पक्षपात से रीता हो कर न्यायपक्ष की गीता-समीता बनी...! भावी भोगों की अभिलाषा को अभिशाप देती-सी शुक्ला-पद्मा-पीता-लेश्या-धरी भीगे भावों, भीगी आँखों वाली विनय-अनुनय से भरी प्रभाकर को परिक्रमा देती पुनः पुण्य में पलटाने पाप के पाक को। घटती इस घटना का अवलोकन किया धरती की आँखों ने, उपरिल देहिलता झिलमिलाई निचली स्नेहिलता से मिल आई। धरती के अनगिन कर ये अनगिन कणों के बहाने अधर में उठते अविलम्ब! और, घटना-स्थल तक पहुँचते बदली की आँखों से छूट कर गालों पर, कुछ पल ठहरे, चमकते सात्विक जीवन के सूचक शित-शुभ्र विशुद्ध टपकते जल-कणों को सहलाने। In whom Forbearance made a resolve The killingness was beaten out, In whom... Modesty and a sense of salutation For the saints and sages awakened The sense of holy offerings for the ascetics was aroused Being devoid of partiality The verses of righteous thinking became opportune...! As if cursing The longings for future worldly pleasures The white, red, yellow ‘fairies' of coloured emotions, Filled with a sense of humility and courtesy Having moisted feelings and damp eyes Were circumambulating the Sun For converting the ripeness of sins into moral merits. The eyes of the Earth beheld The occurrence of this event, The external corporeal existence glimmered And paid a visit to the internal affection. These countless hands of the earth In the guise of innumerable atoms, Would raise themselves up into the sky soon! And, Would reach the spot of occurrence To rub gently the trickling water-drops Rolling down from the eyes of the cloudlet And resting on the cheeks for a while, – - The symbols of bright pious life, White, graceful and refined.
  9. ११-०३–२०१६ तलवाड़ा (बाँसवाड़ा-राजः) गर्भकल्याणक महोत्सव निज आन्तर साम्राज्य को विस्तारित करने वाली विद्याओं कलाओं के ज्ञाता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण को नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु... हे प्रशस्त ज्ञानी गुरुवर ! नसीराबाद से आप पुनः दादिया ग्राम गए तब वहाँ पर विद्याधर जी के विधानपूजा करने के भाव हुए। इस सम्बन्ध में आपके भक्त हरकचंद जी झाँझरी ने १९९४ में मुझे एक संस्मरण लिखकर दिया। जो मैं आपको लिख रहा हूँ ब्रः विद्याधर जी ने की सिद्धचक्र महामण्डल विधान-पूजा "हमारे गाँव दादिया में गुरु महाराज ज्ञानसागर जी दूसरी दफा २० मई १९६८ को पधारे और लगभग १५ जून १९६८ तक रहे। तब ब्रह्मचारी विद्याधर जी के भाव हुए और उन्होंने मुझसे कहा सिद्धचक्र मण्डल विधान-पूजा करना चाहता हूँ। तब गुरु महाराज से समाज ने आशीर्वाद लिया और सिद्धचक्र महामण्डल विधान पूजा का कार्यक्रम आयोजित किया गया। ब्रह्मचारी विद्याधर जी स्वयं उस विधान में सम्मिलित हुए और दादिया के सभी लोग उसमें बैठे। सवा लाख जाप हुआ। ब्रह्मचारी जी मधुर वाणी में पूजा पढ़ते और अर्घ चढ़ाते थे। सभी को उनके साथ पूजा करने में बहुत आनन्द आया। ब्रह्मचारी जी उस समय भी अपना अध्ययन-मनन बराबर समय पर करते रहते थे। टायम(टाईम) के बड़े दृढ़ थे। सब कार्य टायम पर ही करते थे। और पूरी पूजा करने के बाद आहार करने जाते थे। उनकी शुद्धि-विशुद्धि-उत्साह-भक्ति-विवेक पूर्ण पूजा अनुष्ठान देखकर हम लोगों को लगने लगा था कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी महान् ज्ञानी मुनि बनेंगे। पूजा के बाद ब्रह्मचारी जी के साथ गुरु महाराज के पास जाकर अर्घ चढ़ाते थे। गुरु महाराज आशीर्वाद देते थे।" इस प्रकार ब्रह्मचारी विद्याधर जी एक सच्चे श्रावक की क्रियाओं का पालन करते थे। उनकी चर्या क्रिया ज्ञान को देखकर वहाँ की समाज प्रभावित होती थी। ऐसे त्यागी को घर पर आहार कराने के लिए लोग तरसते थे, आहार कराकर गौरव का अनुभव करते थे। ऐसे आदर्शों को नमस्कार करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  10. अपने पति सागर का पक्ष प्रतिकूल भासित हुआ इन्हें जगत्पति प्रभाकर का पक्ष अनुकूल प्रकाशित हुआ इन्हें अपनी उज्वल परम्परा सुन घटित अपराध के प्रति और अपने प्रति, घृणा का भाव भावुक हुआ, सो...तुरन्त कह उठी : ‘‘भूल क्षम्य हो, स्वामिन्! सेविका सेवा चाहती हैं वह दृश्य-छवि दृष्ट कब हो इन आँखों से ? धूल शम्य हो, स्वामिन्! अपरिचित आहार रहा जो , अपरिमित आधार रहा जो आनन्द-तत्त्व का स्रोत मूल-गम्य हो स्वामिन्!” कार्य क्या, अकार्य क्या, क्षीर-नीर-विवेक जागृत हुआ सेव्य की सेविका बनी...! समता की आँखों से लखने वाली, जिन की लीला तन की, मन की और वचन-प्रणाली मृदुता-मुदिता-शीला बनी दान-कर्म में लीना दया-धर्म-प्रवीणा वीणा-विनीता-सी बनी...! राग-रंग-त्यागिनी विराग-संग-भाविनी सरला-तरला मराली-सी बनी...! The favour of their own lord – the ocean Seemed to be contrary to them The side of the lord of universe – the Sun Appeared to be agreeable to them. On hearing about their bright heritage The sense of repugnance was reflected For the offence that was chanced And for themselves, as well, Hence...they instantly added : “ The error should be pardoned, O Lord ! The female devotees wish to offer their services, When that manifested beauty Be visible to these eyes ? The dust should be pacified, O Lord ! That which had been an unacquainted nourishment, That which had been an enormous base – The source of the element of joy Should, fundamentally, be understood, o lord !” What ought to be done, what ought not to be done ? The discretion to recognize milk-and-water was aroused, We became the lady-attendants of the divine one…The observers with the eyes of equanimity, Whose playful performance was imbibed with The mildness and delight of the body and the mind, And the manner of speech, as well… Who were absorbed in the acts of charity Who were skilled in the virtue of mercifulness Who looked like an humble Indian lute...! Who renounced passions and pleasures, Who were devoted to non-attachment Who looked like an innocent lovely she-goose...!
  11. सदियों से सदुपदेश देती आ रही है पुरुष-समाज को यह अनंग के संग से अंगारित होने वालो! सुनो, जरा सुनो तो... ! स्वीकार करती हूँ...कि मैं अंगना' हूँ परन्तु, मात्र अंग ना हूँ... और भी कुछ हूँ मैं...! अंग के अन्दर भी कुछ झाँकने का प्रयास करो, अंग के सिवा भी कुछ माँगने का प्रयास करो, जो देना चाहती हूँ, लेना चाहते हो तुम! ‘सो' चिरन्तन शाश्वत है ‘सो' निरंजन भास्वत है भार-रहित आभा का आभार मानो तुम!" प्रभाकर का प्रवचन वह हृदय में जा छू गया छूमन्तर हो गया, भाव का वैपरीत्य, वाद-विवाद की बात भुला दी गई चन्द पलों के बाद ही संवाद की बात भी सुला दी गई बाहर के अनुरूप बदलाहट भीतर भी तीनों बदली ये बदलीं। She has been preaching the mankind For many centuries bygone – O those, who get fired with the attachment to Cupid, Hark! listen to me, indeed a bit...! I admit...that am a woman But, I am not a bodily organ only… I am something much more...! Try to peep a bit, Through the corporeal existence, Try to ask something Even beyond the limbs, Do you have the heart to accept What I wish to give ! ‘That thing is eternal and immortal ‘That gift is faultless and luminous – You should feel obliged for that weightless radiance !" This discourse of the Sun Went to the heart and touched it The contrariness of the sentiments vanished The point of debate was forgotten, After, some moments, indeed, The point of dialogue too was lulled In accordance with the external relevance The internal change was also affected By all those three cloudlets.
  12. उभय-कुल मंगल-वर्धिनी उभय-लोक-सुख-सर्जिनी स्व-पर-हित सम्पादिका कहीं रह कर किसी तरह भी हित का दोहन करती रहती सो... दुहिता' कहलाती है। हमें समझना है ‘मातृ' शब्द का महत्त्व भी। प्रमाण का अर्थ होता है ज्ञान प्रमेय यानी ज्ञेय और प्रमातृ को ज्ञाता कहते हैं सन्त। जानने की शक्ति वह मातृ-तत्त्व के सिवा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। यही कारण है, कि यहाँ कोई पिता-पितामह, पुरुष नहीं है जो सबकी आधार-शिला हो, सबकी जननी मात्र मातृतत्त्व है। मातृतत्त्व की अनुपलब्धि में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध ठप्! ऐसी स्थिति में तुम ही बताओ, सुख-शान्ति-मुक्ति वह किसे मिलेगी, क्यों मिलेगी किस-विध...? इसीलिए इस जीवन में उसी माता का मान-सम्मान हो, उसी का जय-गान हो सदा, धन्य...! The one, who is the bestower of bliss for both the families, The one, who is the creator of happiness for both the worlds The one, who, accomplishes the well-being of her own and that of the others The one, who, staying anywhere, somehow Continues the milking of the welfare- She, therefore, is called... Duhitā - the married daughter. We should understand The significance of the word “Mātr' too. Valid 'Testimony'– Pramāna- implies 'Right Knowledge A demonstrated conclusion -Prameya' - implies ‘the object fit to be known And The Pramātr is described as the perfect Knower' by sages. That 'Power of Right Knowing' Is nowhere available, indeed, Except with the "Mātr-tattva', i.e., the ‘Mother element' - That is the reason why, here, There is none as Father-Grandfather, Man Who is the foundation-stone of all, Only the ‘Mother-element’ Is the actual procreator. In the unavailability of the Mother-element The 'Knowable- Knower' relation ceases to exist ! Under such a situation, you please tell yourself, Who can attain that Happiness, peace, deliverance Why and how can it be attained...? Hence, during this life-span That very mother should be honoured and respected, Only her songs of triumph should resound always, How blissful...!
  13. १०-०३-२०१६ तलवाड़ा (बाँसवाड़ा राजः) ध्वजारोहण (पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव) निरन्तर तप श्रम से श्रान्त देह से परमतत्त्व में विश्रान्त करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल नमोस्तु... हे आत्ममानिन् गुरुवर ! आपका ज्ञान प्रकाश पाकर ब्रह्मचारी विद्याधर का अन्तरंग रोशन हो उठा और उनके क्रिया कलापों में भी आपकी चमक दृष्टिगोचर होने लगी। इससे सम्बन्धित एक संस्मरण नसीराबाद के प्रकाशचंद जी बाकलीवाल ने सुनाया। वह मैं आप तक भेज रहा हूँ अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी विद्याधर जी "नसीराबाद में ब्रह्मचारी विद्याधर जी को हमने सफेद धोती-दुपट्टा पहने सौम्य-हँसमुख मुद्रा में देखा था। वो सतत् पढ़ते रहते थे। रात में गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य करते थे तब भी मुख से संस्कृत के सूत्र, श्लोक और प्राकृत की गाथाओं का पाठ करते रहते थे। अप्रैल-मई की गर्मी में भी वे कभी ख़ाली बैठे नजर नहीं आये। न ही उनको दिन में कभी लेटे हुए देखा, दिन में प्रमेयरत्नमाला नामक न्याय ग्रन्थ की हिन्दी व्याख्या को कॉपी में लिखा करते थे। एक दिन हमने कॉपी उठाकर देखी तो उस पर लिखा था २४ अप्रैल १९६८ प्रारम्भ (आचार्य श्री माणिक्यनंदीकृत सूत्र ग्रन्थे परीक्षामुख पर आचार्य श्री अनन्तवीर्य लघु द्वारा संस्कृत भाषा में रचित न्याय विषयक टीका ग्रन्थ प्रमेयरत्नमाला की पण्डित हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री द्वारा संपादित अनुवादित चिन्तामणि नामक हिन्दी व्याख्या)। मैं कभी-कभी ब्रह्मचारी जी के साथ प्रातः काल शौच के लिए जंगल जाता था। तब भी रास्ते में वो कुछ-कुछ पढ़ते रहते थे। उनकी नजर नीचे ही रहती थी। तब मेरे मन में विचार आया कि भैया जी को पढ़ाई के लिए समय की कमी पड़ती है इसलिए हर कार्य करते हुए पाठ करते रहते हैं। तो मेरे मन में विचार आया कि वो संडास में शौच चले जाएँ तो समय बच जाएगा। मन की यह बात हमने उनसे कही कि आप संडास में शौच क्यों नहीं चले जाते ? आपका समय बच जायेगा। तो विद्याधर जी बोले- 'मैं समय बचाने के लिए ही तो जंगल जाता हूँ। गुरु महाराज ने बताया है कि समय यानि आत्मा।" इस तरह वो ज्ञान को आचरण में उतारते चले जा रहे थे। आज वो चारित्र शिखर पर ज्ञान की प्रतिमूर्ति ज्योतिर्मय निर्ग्रन्थ रूप में दैदीप्यमान हैं। ऐसे ज्ञानी महापुरुष को नमन करता हुआ.... आपका शिष्यानुशिष्य
  14. दान-पूजा-सेवा आदिक सत्कर्मों को, गृहस्थ धर्मों को सहयोग दे, पुरुष से करा कर धर्म-परम्परा की रक्षा करती है। यूं स्त्री शब्द ही स्वयं गुनगुना रहा है। कि ‘स्’ यानी सम-शील संयम है ‘बी’ यानी तीन अर्थ हैं धर्म, अर्थ, काम-पुरुषार्थों में पुरुष को कुशल-संयत बनाती है सो...स्त्री' कहलाती है। ओ, सुख चाहने वालो! सुनो, ‘सुता' शब्द स्वयं सुना रहा है, कि ‘सु' यानी सुहावनी अच्छाइयाँ और ‘ता' प्रत्यय वह भाव-धर्म, सार के अर्थ में होता है यानी, सुख-सुविधाओं का स्रोत...सो- ‘सुता' कहलाती है। यही कहती हैं श्रुत-सूक्तियाँ! दो हित जिसमें निहित हों वह ‘दुहिता' कहलाती है अपना हित स्वयं कर ही लेती है, पतित से पतित पति का जीवन भी हित से सहित होता है, जिससे वह ‘दुहिता' कहलाती है। With her co-operation, getting the holy deeds Of donation, worship, service etc. performed By the man, along with all the family-rites, She safeguards the religious traditions. Thus, the word ‘Strī is itself sounding the sense, that- 'S', that is, equanimity, good conduct and self discipline 'trī', that is, carries three senses. The one, who imparts wisdom and discipline to a man For the attainment of Dharma, Artha, Kāma- that is Religiousness, prosperity and fulfilment of desire - The super objectives of life, Is called hence a‘Stri'...', that is a ‘lady'. O, thou seekers of happiness ! listen, The word "Sutā’ is itself telling "Su', that is, heart-winning goodnesses And, that suffix ‘tā’ – Is used in the sense of ‘essence’ or ‘substance’ That is, The one, who is a fountain of joys and comforts, Is, therefore..., called ‘Sutā', 'the daughter’ - Thus preach us the sacred maxims ! The one, who is infixed with the twin-well-beings Is called Duhitā-i.e., ‘the daughter’ She is able to perform her own well-being herself, Even the life of a most wretched husband Is beneficially set aright, Hence, she is called ‘Duhitā’, ‘the married daughter'.
  15. 2९-०३-२०१६ तलवाड़ा (बाँसवाड़ा राजः) अयाचक वृत्ति के धनी स्वाभिमानी गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमस्कार-नमस्कार-नमस्कार, हे गुरुवर! ब्रह्मचारी विद्याधर जी आपको पूर्णत: समर्पित होकर, आपके समान बनने के लिए, आपकी हर क्रिया को अपने अन्दर आचरित करते जा रहे थे। सही मायने में वो आपकी पर्याय बन आप में मिलना चाह रहे थे। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के आपके भक्त प्रवीणचन्द गदिया ने एक स्मृति सुनायी स्वाभिमानी ब्रह्मचारी विद्याधर "नसीराबाद प्रवास में हमारे घर पर चौका लगा करता था। जब-जब परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के आहार हमारे यहाँ होते तब-तब आहार देने एवं औषधि देने के लिए ब्रह्मचारी विद्याधर जी पीछे से आते थे और गुरुजी को औषधि एवं आहार देकर धीरे से चले जाते थे। जब तक उनको आहार स्वयं ग्रहण करने के लिए नहीं कहते, तब तक वे नहीं रुकते थे। हम लोग उनसे भोजन में उनकी रुचि पूछते थे, तो कुछ नहीं बोलते थे। चुपचाप जो परोसा जाता वही खा लेते थे और भोजन करते हुए इधर-उधर नहीं देखते थे। अपनी थाली में ही देखते थे। उस समय वो अन्तराय का पालन करते थे, जैसे मुनि महाराज करते हैं। गर्मी के बावजूद भी भोजन करते समय पंखा चलाने के लिए न तो कहते थे और कोई चला दे तो सिर हिलाकर मना करते थे। एक ही वक्त भोजन करते थे, शाम को सिर्फ पानी लेते थे। भोजन करने के बाद एक मिनट भी नहीं रुकते थे। सभी से जयजिनेन्द्र करके चले जाते थे।" इस तरह विद्याधर जी जैन साधुवत् चर्या करते थे। जैसा आप करते थे वैसा ही। शायद ही आपको कोई शिकायत मिली हो। ऐसे अद्वितीय समर्पण को नमन करता हुआ, मैं भी आज्ञाकारी शिष्य बना रहूँ, इस भावना के साथ... आपका शिष्यानुशिष्य
  16. ०८-०३-२०१६ सेनावासा (बासवाड़ा-राजः) आत्मानुशासित चर्या में केन्द्रित गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु.. हे गुरुवर! ब्रह्मचारी विद्याधर आपकी हर आज्ञा को पूर्ण श्रद्धा भक्ति के साथ पालन करते थे, इसमें किसी भी प्रकार का प्रमाद नहीं करते थे, गुरु आज्ञा को दृढ़ता से पालन करने का यह संस्कार बचपन से ही आ गया था। बचपन में यह संस्कार कहाँ से मिला ? इसका समाधान चिन्तन में यह आता है कि पूर्व जन्म के संस्कार जागृत हुए हैं। आज्ञाकारिता के बारे में नसीराबाद के आपके परम भक्त श्री शान्तिलाल जी पाटनी ने ब्रह्मचारी विद्याधर जी का गुरु समर्पण का संस्मरण सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ- आज्ञाकारी ब्रह्मचारी "एक दिन नसीराबाद में हमने ब्रह्मचारी विद्याधर जी को कहा-आप धोती-दुपट्टा धोते हैं तो आपका समय खराब होता है। आप मुझे दे दिया करें मैं उनको धो दिया करूंगा। तो मना करते हुए बोले- 'गुरु जी की आज्ञा है खुद के कपड़े स्वयं धोना इसलिए मैं नहीं दे सकता।' तो मैंने कहा - मैं चुपचाप धो दिया करूँगा गुरु महाराज को पता नहीं चलेगा। तो ब्रह्मचारी जी बोले - "मुझे तो पता है ना आज्ञा क्या है?" यह सुनकर मेरे हर्षाश्रु आ गए हमने कहा-भैया जी आप धन्य हैं, गुरु आज्ञा को सदा ध्यान रखते हैं, तो ब्रह्मचारी विद्याधर जी बोले-धन्य तो आप हैं, आपने मुझे गुरु आज्ञा याद कराई..." इस तरह उन्होंने गुरु आज्ञा में पूर्ण आस्था रखते हुए। असंयमी श्रावक की बात नहीं मानी। ऐसी आस्था को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  17. ‘कु' यानी पृथिवी ‘मा' यानी लक्ष्मी और ‘री' यानी देने वाली.. इससे कुल मिला कर भाव निकलता है कि यह धरा सम्पदा-सम्पन्ना तब तक रहेगी जब तक यहाँ ‘कुमारी' रहेगी। यही कारण है कि सन्तों ने इन्हें प्राथमिक मंगल माना है लौकिक सब मंगलों में...! धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों से गृहस्थ जीवन शोभा पाता है। इन पुरुषार्थों के समय प्रायः पुरुष ही पाप का पात्र होता है, वह पाप, पुण्य में परिवर्तित हो इसी हेतु स्त्रियाँ प्रयत्नशीला रहती हैं सदा। पुरुष की वासना संयत हो, और पुरुष की उपासना संगत हो, यानी काम पुरुषार्थ निर्दोष हो, बस, इसी प्रयोजनवश वह गर्भ-धारण करती है। संग्रह-वृत्ति और अपव्यय-रोग से पुरुष को बचाती है सदा, अर्जित-अर्थ का समुचित वितरण करके। "Ku, that is, ‘earth' “Mā', that is, 'Lakşamī And ‘RI means giver' or bestower... It all carries the sense that This earth shall remain well off with prosperity So long as There remains a virgin, that is, Kumāri, here. That is why The saints have acknowledged them As the prime benediction...! Among all the conventional benedictions ! The house holder 's-life is glorified Through the supreme objects of life-i.e., Dharma, Artha , Kāma- The attainment of religiousness, prosperity and fulfilment of desire. In pursuit of these supermanly acts Generally the man, indeed, Owns the eligibility for sinning, That sin be converted into the goodness- The ladies always take pains With this object in view. The passional desires of man should be controlled, And The adoration of man should be consistent, That is, the exertions for the fulfilment of desire should be faultless, -Only with this very purpose in view She bears pregnancy. She always protects the mankind From the habit of hoarding and the disease of dissipation, Through the proper distribution of the earned ‘money’.
  18. जिसकी संयम की जठराग्नि मन्द पड़ी है, परिग्रह-संग्रह से पीड़ित पुरुष को मही यानी मा-महेरी पिलाती है, ‘महिला' कहलाती है वह...! जो अव यानी ‘अवगम'ज्ञानज्योति लाती है, तिमिर-तामसता मिटा कर जीवन को जागृत करती है ‘अबला' कहलाती है वह! अथवा, जो पुरुष-चित्त की वृत्ति को विगत की दशाओं से और अनागत की आशाओं से पूरी तरह हटा कर ‘अब' यानी आगत-वर्तमान में लाती है। ‘अबला' कहलाती है वह..! बला यानी समस्या संकट है न बला...सो अबला समस्या-शून्य-समाधान! अबला के अभाव में सबल पुरुष भी निर्बल बनता है समस्त संसार ही, फिर समस्या-समूह सिद्ध होता है, इसलिए स्त्रियों का यह ‘अबला' नाम सार्थक है ! Whose digestive power of temperance has Diminished Who is sick of possession and accumulation To that man, she makes drink ‘Mahi' That is, a dish of sour butter-milk, Hence she is called 'Mahilā’...'a lady' ! The one who brings Ava', that is, ‘ Avagama’ - i.e., the flame of knowledge', Having effaced the darkness-ignorance Brings awakening to life - She is called ‘Abalā’ 59b_ the fragile woman' ! Or, the one, who Having fully removed The inclinations of man's heart From the conditions of the past And The expectations of the future Holds him over to the ‘aba', that is ‘now', The living present Is called ‘Abalā – ‘the fragile woman'...! "Balā", that is, ‘problem’, ‘hazard' – Not ‘balā’... therefore, ‘Abalā - - A solution without any problem ! In absence of an ‘Abalā, i.e., a ‘so-called fragile woman' Even a strong man becomes weak, All the wide world then, Proves to be a multitude of problems, Hence, consigned to ladies, This name ‘Abalā’ carries sense!
  19. कुपथ-सुपथ की परख करने में प्रतिष्ठा पाई है स्त्री-समाज ने। इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें मिलन-सारी मित्रता मुफ्त मिलती रहती इनसे। यही कारण है कि इनका सार्थक नाम है ‘नारी यानी- ‘न अरि’ नारी... अथवा ये आरी नहीं हैं ...सो...नारी…! जो मह यानी मंगलमय माहौल, महोत्सव जीवन में लाती है ‘महिला' कहलाती वह! जो निराधार हुआ, निरालम्ब, आधार का भूखा जीवन के प्रति उदासीन-हतोत्साही हुआ उस पुरुष में... मही यानी धरती धृति-धारणा जननी के प्रति अपूर्व आस्था जगाती है। और पुरुष को रास्ता बताती है सही-सही गन्तव्य का- ‘महिला' कहलाती वह! इतना ही नहीं, ओर सुनो! जो संग्रहणी व्याधि से ग्रसित हुआ है The fair sex has upheld her dignity In examining the fair or the foul ways. Their eyes are an aphorism of compassion Hostility can't even touch them Courteous friendliness Is a free gift from them. That is the reason why Their meaningful name is “Nārī Which means- "Not-a- foe' 'na' 'ari' Nāri… Or They aren't like a handsaw ...Hence... Nāri...! The one, who Brings a great festivity in life, “Maha, that is, an ‘auspicious’ atmosphere – ‘Mahotsava’- Is called a Mahilā’ – a lady ! The one who is groundless and helpless, Hungry for support Dejected and disheartened towards life In that man... Unprecedented faith is awakened For the ‘Mahī, that is, the earth- For the Mother-Earth possessing fortitude. And, who indicates to man the path Towards the genuine destination – Is called a “Mahilā’- a lady ! Not only so much, listen more ! The one who has suffered from the malady of chronic diarrhoea
  20. पृथ्वी पर प्रलय हुआ हो, सुना भी नहीं, देखा भी नहीं। प्रलय हेतु आगत बदलियाँ ये क्या अपनी संस्कृति को विकृत-छवि में बदलना चाहती हैं ? अपने हों या पराये, भूखे-प्यासे बच्चों को देख माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता बाहर आता ही है उमड़ कर, इसी अवसर की प्रतीक्षा रहती है- उस दूध को। क्या सदय-हृदय भी आज प्रलय का प्यासा बन गया ? क्या तन-संरक्षण हेतु धर्म ही बेचा जा रहा है ? क्या धन-संवर्धन हेतु शर्म ही बेची जा रही है ? स्त्री-जाति की कई विशेषताएँ हैं जो आदर्श रूप हैं पुरुष के सम्मुख। प्रतिपल परतन्त्र हो कर भी पाप की पालड़ी भारी नहीं पड़ती ...पल-भर भी! इनमें, पाप-भीरुता पलती रहती है अन्यथा, स्त्रियों का नाम 'भीरु' क्यों पड़ा ? प्रायः पुरुषों से बाध्य हो कर ही कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को परन्तु, That the universal destruction on the earth Is wrought by the woman-community. Do these cloudlets arriving for annihilation Wish to change their culture Into a distorted beauty ? Whether her own or those of the others, On seeing the children hungry or thirsty The milk can't tarry within the breasts of a mother It flows out with a gush That milk Remains in wait for this very occasion. Has even the kind-hearted Become thirsty of universal destruction ? Is the religiousness being sold For patronizing the body ? Is the self-respect being bartered away For the hoarding of wealth ? There are so many virtues of the fair sex Which hold forth an ideal before the manhood. In spite of being subjugated every moment The pan of the sins doesn't get heavier ...Even for a moment ! Sin-awareness remains latent within them Otherwise, Why is the adjective timid' assigned to them? Generally, on being compelled by the man-tribe The women have to take to a wrong path But,
  21. इससे पिछली, बिचली बदली पलाश की हँसी-सी साड़ी पहनी गुलाब की आभा फीकी पड़ती जिससे लाल पगतली वाली लाली-रची पद्मिनी की शोभा सकुचाती है जिससे, इस बदली की साड़ी की आभा वह जहाँ-जहाँ गई चली फिसली-फिसली, बदली वहाँ की आभा भी। और, नकली नहीं, असली सुवर्ण वर्ण की साड़ी पहनी है सबसे पिछली बदली वह। इनका प्रयास चलता है सर्वप्रथम प्रभाकर की प्रभा को प्रभावित करने का ! प्रभाकर को बीच में लेकर परिक्रमा लगाने लगीं ! कुछ ही पलों में प्रभा तो प्रभावित हुई, परन्तु, प्रभाकर का पराक्रम वह प्रभावित-पराभूत नहीं हुआ, उसके कार्यक्रम में कुछ भी कमी नहीं आई। अपनी पत्नी को प्रभावित देख कर प्रभाकर का प्रवचन प्रारम्भ हुआ। प्रवचन प्रासंगिक है, पर है सरोष! ‘‘अतीत के असीम काल-प्रवाह में स्त्री-समाज द्वारा Which follows the first one, the middle cloudlet, Like the laughter of a Palāśa tree" wore a sādi Which diminishes the splendour of a rose, Which makes blush the loveliness of a lily Having ruddy feet-soles stained with myrtle; The splendour of the Sādi of this cloudlet Where-ever moves on, sliding and gliding, The brilliance of that spot too gets changed. And, Not a false, but genuine Gold-coloured sādi is wrapped By the rearmost cloudlet. Their first and foremost attempt is To thwart the radiance of the Sun ! Having taken the Sun amid themselves They start circumambulating it ! Within a few seconds The radiance gets affected indeed, But, The valour of the sun Isn't thwarted or defeated, No decline is observed in its movements. On seeing its better-half under the sway The preachings of the Sun start up. The discourse, though relevant, is really wrathful ! “In the limitless time-stream of the past It has neither been heard nor observed –
  22. ०७-०३-२०१६ घाटोल (बासवाड़ा राजः) मोक्षकल्याणक महोत्सव अविरल स्वभाव बोध में परिणमन कर असीमित रहस्यों के समाधान प्राप्त गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के श्री चरणों में सम्पूर्ण विनय अर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! आपने ब्रह्मचारी विद्याधर को जितना दिया वो लेते गए, कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते थे, इस कारण उन्होंने दृढ़ संकल्प कर रखा था कि रोज का होमवर्क रोज करके ही विश्राम करना एवं अपने संकल्प के पूरा करने में ऐसे दत्तचित्त रहते थे कि कोई भी बाधा उन्हें बाधा दे ही नहीं पाती थी। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के आपके भक्त कुन्तीलाल जी गदिया ने ब्रह्मचारी विद्याधर जी के बारे में बताया कि वो कैसे दृढसंकल्पी थे। उन्होंने उस समय का संस्मरण सुनाया दृढसंकल्प के धनी ब्रह्मचारी विद्याधर "अप्रैल-मई १९६८ नसीराबाद में ब्रह्मचारी विद्याधर जी ज्ञानसागर जी महाराज के साथ सेठ ताराचंद सेठी जी की नसियाँ में रुके हुए थे। जवान सुन्दर ब्रह्मचारी जी को देखकर हम सभी लोग बड़े प्रभावित होते थे। हम सुबह दोपहर शाम तीनों वक्त नसियाँ जी जाते थे। गुरु ज्ञानसागर जी महाराज ब्रह्मचारी जी को सुबह, दोपहर में संस्कृत व प्राकृत के धर्म-ग्रन्थ पढ़ाते थे और नसीराबाद के विद्वान् भी उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत पढ़ाने आते थे। वो सदा पढ़ते ही रहते थे और दीवार की ओर मुख करके स्वाध्याय करते थे, वो भी गुरु महाराज के कक्ष में सदा उनके सामने ही बैठते थे। समाज के लोग ज्ञानसागर जी महाराज से चर्चा करते तब भी विद्याधर जी स्वाध्याय में लीन रहते थे, उन्हें बाधा नहीं होती थी, वो किसी को भी नजर उठाकर नहीं देखते थे। रात्रि में ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य के बाद हम लोग उनसे कहते-भैया जी बहुत पढ़ाई हो गई अब तो बंद करो। तो वे कहते थे- ‘गुरुजी ने जो पढ़ाया है उसे पूरा याद करके ही विश्राम करूँगा। 'एक भी दिन उन्हें सोते हुए नहीं देखा, कारण कि हम लोग रात को १० बजे चले जाते थे।" इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी ज्ञानोपजीवी बनकर ज्ञान को अपना भोजन बना बैठे थे। वह कण्ठगत ज्ञान आज उनके मन-वचन-काय से प्रकट हो रहा है। उस ज्ञानपुरुषार्थ को मैं नमन करता हूँ और भावना भाता हूँ कि मैं भी ज्ञानोपजीवी बनकर आत्मरस चढूँ ... आपका शिष्यानुशिष्य
  23. ०६-०३-२०१६ घाटोल (बासवाड़ा-राजः) ज्ञानकल्याणक महोत्सव ज्ञानरथ के सार्थवाह गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को कोटिशः प्रणाम करता हूँ... हे गुरुवर! आपके लाड़ले शिष्य ब्रह्मचारी विद्याधर जी आपको तो जवाब नहीं देते थे किन्तु अज्ञानियों के अज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए कम शब्दों में, टू द पॉइन्ट बोलकर सन्तुष्ट करके निरुत्तर कर देते थे। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के आपके अनन्य भक्त रतनलाल पाटनी ने विद्याधर जी की हाजिर जवाबी का संस्मरण सुनाया हाजिरजवाबी ब्रह्मचारी विद्याधर "१९६८ ग्रीष्मकालीन प्रवास के दौरान नसीराबाद में ज्ञानसागर मुनिराज ने अपने प्रिय, मनोज्ञ शिष्य, ब्रह्मचारी विद्याधर जी को हिन्दी भाषा में पारंगत बनाने हेतु राजकीय व्यापारिक स्कूल नसीराबाद के प्रधानाध्यापक श्री मनोहरलाल जी जैन को कहा- ‘आप विद्याधर जी को हिन्दी-भाषा, लिपी, छन्द, व्याकरण सिखायें। तब मनोहरलाल जी उन्हें हिन्दी का अध्ययन कराने लगे। इसके साथ ही विद्याधर जी की मनोभावना अंग्रेजी सीखने की भी हुई। तो मनोहरलाल जी ने अपने ही राजकीय व्यापारिक स्कूल नसीराबाद के अंग्रेजी के अध्यापक श्रीमान् रामप्रसाद जी बंसल को अंग्रेजी पढ़ाने का पुण्यार्जन दिया। इसके अतिरिक्त ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ने छगनलाल जी पाटनी अजमेर को विद्याधर जी से धर्म-चर्चा के लिए समय दिया। साथ ही नसीराबाद के पण्डित चम्पालाल जी शास्त्री भी विद्याधर जी से धर्म-चर्चा करते थे। सुबह से लेकर रात्रि १० बजे तक विद्याधर जी ज्ञानाराधना में लीन रहते। एक दिन हमने मजाक में कहा-भैया जी! आप इतना पढ़कर क्या करोगे? कोई नौकरी करना है क्या ? तो हँसते हुए बोले-‘क्या करना है-क्या नहीं करना है? इसको जानने के लिए अध्ययन कर रहा हूँ।' यह जवाब सुनकर फिर कभी कोई प्रश्न करने की हिम्मत नहीं हुई।" इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी अपनी तार्किक बातों से संक्षिप्त में ही संतुष्ट कर देते थे। यह बुद्धिमत्ता बचपन से ही उनके व्यक्तित्व में झलकती हैं। सतत ज्ञानाराधना से प्रज्ञा को पैनापन प्रदान करने में पुरुषार्थ करते रहते थे। उनका यह वैशिष्ट्य आज भी देखने को मिलता है कि कम शब्दों में संतोषपूर्ण, आनन्ददायक समाधान देते हैं। ऐसी प्रज्ञा को नमन करता हूँ... आप सम ज्ञानसागर में गोता लगाना चाहता हूँ जिसमें अज्ञानता की श्वाँसे रुंध जाएँ...। आपका शिष्यानुशिष्य
  24. ०५-०३-२०१६ घाटोल (बासवाड़ा-राजः) तपकल्याणक महोत्सव आत्माहुति के यज्ञकर्ता ऋषि गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में भावार्घ समर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! यह तो आपको ज्ञात ही है कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी को भजन सुनना-सुनाना पसंद था, किन्तु मैं तो यह बता रहा हूँ कि नसीराबाद में जब आपका प्रवास हुआ तो ब्रह्मचारी विद्याधर जी की मधुर वाणी में भजन सुनकर लोगों ने आज तक उन भजनों को अपने मन मस्तिष्क के कोष में संग्रहित करके रखे हुए हैं, कारण कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी सुनाया करते थे और आज वो विश्ववन्दनीय महान् श्रमण शिरोमणी महाकवि ऊँचाईयों पर विद्यमान हैं, ऐसे गुरु के मुख से सुना था इसलिए वह भजन सुनाकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के प्रवीण गदिया जी ने उस समय का संस्मरण सुनाया "विद्याधर जी का प्रिय भजन" "अप्रैल १९६८ नसीराबाद में हम लोग ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य के लिए रात में जाते थे। तब समाज के कुछ लोग भजन सुनाते थे। विद्याधर जी को एक भजन बहुत अच्छा लगा। वो मेरे पिताजी नेमिचंद जी गदिया से प्रतिदिन वही भजन सुनाने के लिए कहते थे और स्वयं भी साथ-साथ मधुर वाणी में बोलते थे। उनकी मधुर वाणी में भजन सुनकर हम युवा बड़े प्रभावित हुए, वह भजन हम लोगों ने तैयार कर लिया। फिर मुनिदीक्षा के बाद सन् १९७२ में आए और जून १९७३ तक रहे तब कई बार वह भजन हम लोगों ने उन्हें सुनाया। वह भजन इस प्रकार है तर्ज-रिमझिम बरसे बादरवा, चित्र-रतन मनहर तेरी मूरतिया, मस्त हुआ मन मेरा। तेरा दरश पाया, पाया, तेरा दश पाया ॥२॥ प्यारा प्यारा सिंहासन, अति भा रहा, भा रहा। उस पर रूप अनूप, तिहारा छा रहा, छा रहा॥ पद्मासन अति सोहे रे, नयना उमगे हैं मेरे। चित्त ललचाया आया, तेरा दरश पाया॥ मनहर...॥१॥ तव भक्ति से भव के दुःख मिट जाते हैं, जाते हैं। पापी तक भी भव सागर तिर जाते हैं, जाते हैं॥ शिव पद वह ही पावे रे, शरणा-गत में है तेरी। जो जीव आया-पाया, तेरा दरश पाया॥ मनहर...॥२॥ साँच कहूँ खोई निधि मुझको मिल गई, मिल गई। जिसको पाकर मन की कलियाँ ख़िल गई, खिल गई॥ आशा पूरी होगी रे, आश लगा के 'वृद्धि'। तेरे द्वारा आया - पाया, तेरा दरश पाया ॥ मनहर...॥३॥ " इस तरह विद्याधर जी भजन सुनकरके अपना हिन्दी का ज्ञान प्रगाढ़ करते रहते थे। युवा सोचते थे कि मुनि श्री भजन में आनन्द ले रहे हैं, किन्तु वास्तविकता यह थी कि वे हर क्षण ज्ञानवृद्धि में लगे रहते थे। धन्य हैं, ऐसी ज्ञानपिपासा को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  25. 0४–०३–२०१६ घाटोल (बासवाड़ा राजः) जन्मकल्याणक महोत्सव भवभव के नीरंध्र अज्ञान अंधकार को ज्ञानप्रभा से भेदने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में त्रिकाल प्रणति अर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! अब मैं नसीराबाद के कुछ संस्मरण आपको प्रेषित कर रहा हूँ| ब्र. विद्याधर जी आपके साथ-साथ जहाँ भी जा रहे थे वहाँ के लोग उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होते और उनकी मधुर बातों से शिक्षा लेते। विद्याधर की साधना ऐसी साधना थी जिसको देखकर हर कोई अचम्भित हुए बिना नहीं रहता था। आज जब नसीराबाद के किसी भी समाज जन से उस समय की बात करते हैं तो वो ब्र. विद्याधर के अनेकों संस्मरण सुनाते हुए नहीं थकते। कुछ एक प्रसंग आपको लिख रहा हूँ। नसीराबाद के प्रवीण गदिया जी ने बताया - ब्र. विद्याधर जी ने पाप-पुण्य की समझाइस दी "अप्रैल-मई दो माह नसीराबाद में मुनि ज्ञानसागर जी महाराज ने संघ सहित प्रवास किया। उनके साथ में बहुत सुन्दर ब्रह्मचारी विद्याधर भैया जी भी थे। नसीराबाद वालों को जब यह पता चला कि भैया जी कर्नाटक के हैं तो समाज के लोग और युवा लोग जो कभी मंदिर नहीं जाया करते थे। वे भी उनके दर्शन के लिए मंदिर जाने लगे थे, लेकिन ब्रह्मचारी जी अपनी क्रियाओं में दत्तचित्त रहते थे। किसी को भी मिलने का समय नहीं दिया करते थे। एक बार हम कुछ युवा लोग सामायिक के समय पर गए। तो वो कमरा बंद करके सामायिक कर रहे थे। हम लोगों ने खिड़की से झाँक कर देखा तो वो पूर्ण दिगम्बरावस्था में खड़े होकर सामायिक कर रहे थे। तब हमारे एक साथी ने जयकारा किया मुनि विद्याधर महाराज की जय और हम लोग वहाँ से चले गए। शाम को पुनः गए तो ब्रह्मचारी विद्याधर जी बोले-'दोपहर में आप लोगों ने ऐसा... जय बोला था। ऐसा बोलने में पाप लगेगा और मुनि ज्ञानसागर जी महाराज की जय बोलोगे तो पुण्य लगेगा।" इस प्रकार उनकी ज्ञान और साधना दोनों ही आगम के अनुसार चल रही थी। प्रवीण गदिया जी ने विद्याधर जी की एक और विशेषता बतलाई- अधिक वस्तु परिग्रह का रूप "नसीराबाद प्रवास में हम कुछ युवा विद्याधर जी से बहुत अधिक प्रभावित हो गए थे। तो रोज उनको देखने जाते थे। वो युवा, जवान, आकर्षक, मीठी बोली, प्रसन्न मुद्रा, गोरा-चिट्टा वदन, काले-घुंघराले बाल और उनकी मोहक मुस्कान आज तक याद है। उनसे हम लोग बोलते थे आपको किसी चीज की आवश्यकता हो तो हम लोगों को कह देना किन्तु उन्होंने बस एक बार स्लेट-पैंसिल का इशारा किया। उसके अलावा और कुछ नहीं लिया। हम लोगों ने बहुत निवेदन किया कि आप २-४ पैंसिल रख लो। तो बोले न बाबा न अधिक तो परिग्रह का रूप बन जायगा | "इस तरह विद्याधर जी का परिग्रह का दृष्टिकोण साफ-साफ समझ में आता है और वो परिग्रह से बचकर अपरिग्रह की साधना कर रहे थे। ऐसे त्यागी मेरे गुरुदेव को सदा प्रणाम करता हुआ.... आपका शिष्यानुशिष्य
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