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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ६६ दृढसंकल्प के धनी ब्रह्मचारी विद्याधर

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    ०७-०३-२०१६

    घाटोल (बासवाड़ा राजः)

    मोक्षकल्याणक महोत्सव

     

    अविरल स्वभाव बोध में परिणमन कर असीमित रहस्यों के समाधान प्राप्त गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के श्री चरणों में सम्पूर्ण विनय अर्पित करता हूँ...

     

    हे गुरुवर! आपने ब्रह्मचारी विद्याधर को जितना दिया वो लेते गए, कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते थे, इस कारण उन्होंने दृढ़ संकल्प कर रखा था कि रोज का होमवर्क रोज करके ही विश्राम करना एवं अपने संकल्प के पूरा करने में ऐसे दत्तचित्त रहते थे कि कोई भी बाधा उन्हें बाधा दे ही नहीं पाती थी। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के आपके भक्त कुन्तीलाल जी गदिया ने ब्रह्मचारी विद्याधर जी के बारे में बताया कि वो कैसे दृढसंकल्पी थे। उन्होंने उस समय का संस्मरण सुनाया

     

    दृढसंकल्प के धनी ब्रह्मचारी विद्याधर

    "अप्रैल-मई १९६८ नसीराबाद में ब्रह्मचारी विद्याधर जी ज्ञानसागर जी महाराज के साथ सेठ ताराचंद सेठी जी की नसियाँ में रुके हुए थे। जवान सुन्दर ब्रह्मचारी जी को देखकर हम सभी लोग बड़े प्रभावित होते थे। हम सुबह दोपहर शाम तीनों वक्त नसियाँ जी जाते थे। गुरु ज्ञानसागर जी महाराज ब्रह्मचारी जी को सुबह, दोपहर में संस्कृत व प्राकृत के धर्म-ग्रन्थ पढ़ाते थे और नसीराबाद के विद्वान् भी उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत पढ़ाने आते थे। वो सदा पढ़ते ही रहते थे और दीवार की ओर मुख करके स्वाध्याय करते थे, वो भी गुरु महाराज के कक्ष में सदा उनके सामने ही बैठते थे। समाज के लोग ज्ञानसागर जी महाराज से चर्चा करते तब भी विद्याधर जी स्वाध्याय में लीन रहते थे, उन्हें बाधा नहीं होती थी, वो किसी को भी नजर उठाकर नहीं देखते थे। रात्रि में ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य के बाद हम लोग उनसे कहते-भैया जी बहुत पढ़ाई हो गई अब तो बंद करो। तो वे कहते थे- ‘गुरुजी ने जो पढ़ाया है उसे पूरा याद करके ही विश्राम करूँगा। 'एक भी दिन उन्हें सोते हुए नहीं देखा, कारण कि हम लोग रात को १० बजे चले जाते थे।" इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी ज्ञानोपजीवी बनकर ज्ञान को अपना भोजन बना बैठे थे। वह कण्ठगत ज्ञान आज उनके मन-वचन-काय से प्रकट हो रहा है। उस ज्ञानपुरुषार्थ को मैं नमन करता हूँ और भावना भाता हूँ कि मैं भी ज्ञानोपजीवी बनकर आत्मरस चढूँ ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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