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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ६५ हाजिरजवाबी ब्रह्मचारी विद्याधर

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    ०६-०३-२०१६

    घाटोल (बासवाड़ा-राजः)

    ज्ञानकल्याणक महोत्सव

     

    ज्ञानरथ के सार्थवाह गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को कोटिशः प्रणाम करता हूँ...

    हे गुरुवर! आपके लाड़ले शिष्य ब्रह्मचारी विद्याधर जी आपको तो जवाब नहीं देते थे किन्तु अज्ञानियों के अज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए कम शब्दों में, टू द पॉइन्ट बोलकर सन्तुष्ट करके निरुत्तर कर देते थे। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के आपके अनन्य भक्त रतनलाल पाटनी ने विद्याधर जी की हाजिर जवाबी का संस्मरण सुनाया

     

    हाजिरजवाबी ब्रह्मचारी विद्याधर

    "१९६८ ग्रीष्मकालीन प्रवास के दौरान नसीराबाद में ज्ञानसागर मुनिराज ने अपने प्रिय, मनोज्ञ शिष्य, ब्रह्मचारी विद्याधर जी को हिन्दी भाषा में पारंगत बनाने हेतु राजकीय व्यापारिक स्कूल नसीराबाद के प्रधानाध्यापक श्री मनोहरलाल जी जैन को कहा- ‘आप विद्याधर जी को हिन्दी-भाषा, लिपी, छन्द, व्याकरण सिखायें। तब मनोहरलाल जी उन्हें हिन्दी का अध्ययन कराने लगे। इसके साथ ही विद्याधर जी की मनोभावना अंग्रेजी सीखने की भी हुई। तो मनोहरलाल जी ने अपने ही राजकीय व्यापारिक स्कूल नसीराबाद के अंग्रेजी के अध्यापक श्रीमान् रामप्रसाद जी बंसल को अंग्रेजी पढ़ाने का पुण्यार्जन दिया। इसके अतिरिक्त ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ने छगनलाल जी पाटनी अजमेर को विद्याधर जी से धर्म-चर्चा के लिए समय दिया। साथ ही नसीराबाद के पण्डित चम्पालाल जी शास्त्री भी विद्याधर जी से धर्म-चर्चा करते थे। सुबह से लेकर रात्रि १० बजे तक विद्याधर जी ज्ञानाराधना में लीन रहते। एक दिन हमने मजाक में कहा-भैया जी! आप इतना पढ़कर क्या करोगे? कोई नौकरी करना है क्या ? तो हँसते हुए बोले-‘क्या करना है-क्या नहीं करना है? इसको जानने के लिए अध्ययन कर रहा हूँ।' यह जवाब सुनकर फिर कभी कोई प्रश्न करने की हिम्मत नहीं हुई।" इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी अपनी तार्किक बातों से संक्षिप्त में ही संतुष्ट कर देते थे। यह बुद्धिमत्ता बचपन से ही उनके व्यक्तित्व में झलकती हैं। सतत ज्ञानाराधना से प्रज्ञा को पैनापन प्रदान करने में पुरुषार्थ करते रहते थे। उनका यह वैशिष्ट्य आज भी देखने को मिलता है कि कम शब्दों में संतोषपूर्ण, आनन्ददायक समाधान देते हैं। ऐसी प्रज्ञा को नमन करता हूँ... आप सम ज्ञानसागर में गोता लगाना चाहता हूँ जिसमें अज्ञानता की श्वाँसे रुंध जाएँ...।

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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