०५-०३-२०१६
घाटोल (बासवाड़ा-राजः)
तपकल्याणक महोत्सव
आत्माहुति के यज्ञकर्ता ऋषि गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में भावार्घ समर्पित करता हूँ...
हे गुरुवर! यह तो आपको ज्ञात ही है कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी को भजन सुनना-सुनाना पसंद था, किन्तु मैं तो यह बता रहा हूँ कि नसीराबाद में जब आपका प्रवास हुआ तो ब्रह्मचारी विद्याधर जी की मधुर वाणी में भजन सुनकर लोगों ने आज तक उन भजनों को अपने मन मस्तिष्क के कोष में संग्रहित करके रखे हुए हैं, कारण कि ब्रह्मचारी विद्याधर जी सुनाया करते थे और आज वो विश्ववन्दनीय महान् श्रमण शिरोमणी महाकवि ऊँचाईयों पर विद्यमान हैं, ऐसे गुरु के मुख से सुना था इसलिए वह भजन सुनाकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के प्रवीण गदिया जी ने उस समय का संस्मरण सुनाया
"विद्याधर जी का प्रिय भजन"
"अप्रैल १९६८ नसीराबाद में हम लोग ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य के लिए रात में जाते थे। तब समाज के कुछ लोग भजन सुनाते थे। विद्याधर जी को एक भजन बहुत अच्छा लगा। वो मेरे पिताजी नेमिचंद जी गदिया से प्रतिदिन वही भजन सुनाने के लिए कहते थे और स्वयं भी साथ-साथ मधुर वाणी में बोलते थे। उनकी मधुर वाणी में भजन सुनकर हम युवा बड़े प्रभावित हुए, वह भजन हम लोगों ने तैयार कर लिया। फिर मुनिदीक्षा के बाद सन् १९७२ में आए और जून १९७३ तक रहे तब कई बार वह भजन हम लोगों ने उन्हें सुनाया। वह भजन इस प्रकार है
तर्ज-रिमझिम बरसे बादरवा, चित्र-रतन
मनहर तेरी मूरतिया, मस्त हुआ मन मेरा।
तेरा दरश पाया, पाया, तेरा दश पाया ॥२॥
प्यारा प्यारा सिंहासन, अति भा रहा, भा रहा।
उस पर रूप अनूप, तिहारा छा रहा, छा रहा॥
पद्मासन अति सोहे रे, नयना उमगे हैं मेरे।
चित्त ललचाया आया, तेरा दरश पाया॥ मनहर...॥१॥
तव भक्ति से भव के दुःख मिट जाते हैं, जाते हैं।
पापी तक भी भव सागर तिर जाते हैं, जाते हैं॥
शिव पद वह ही पावे रे, शरणा-गत में है तेरी।
जो जीव आया-पाया, तेरा दरश पाया॥ मनहर...॥२॥
साँच कहूँ खोई निधि मुझको मिल गई, मिल गई।
जिसको पाकर मन की कलियाँ ख़िल गई, खिल गई॥
आशा पूरी होगी रे, आश लगा के 'वृद्धि'।
तेरे द्वारा आया - पाया, तेरा दरश पाया ॥ मनहर...॥३॥ "
इस तरह विद्याधर जी भजन सुनकरके अपना हिन्दी का ज्ञान प्रगाढ़ करते रहते थे। युवा सोचते थे कि मुनि श्री भजन में आनन्द ले रहे हैं, किन्तु वास्तविकता यह थी कि वे हर क्षण ज्ञानवृद्धि में लगे रहते थे। धन्य हैं, ऐसी ज्ञानपिपासा को नमन करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य