१०-०३-२०१६
तलवाड़ा (बाँसवाड़ा राजः)
ध्वजारोहण (पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव)
निरन्तर तप श्रम से श्रान्त देह से परमतत्त्व में विश्रान्त करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल नमोस्तु...
हे आत्ममानिन् गुरुवर ! आपका ज्ञान प्रकाश पाकर ब्रह्मचारी विद्याधर का अन्तरंग रोशन हो उठा और उनके क्रिया कलापों में भी आपकी चमक दृष्टिगोचर होने लगी। इससे सम्बन्धित एक संस्मरण नसीराबाद के प्रकाशचंद जी बाकलीवाल ने सुनाया। वह मैं आप तक भेज रहा हूँ
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी विद्याधर जी
"नसीराबाद में ब्रह्मचारी विद्याधर जी को हमने सफेद धोती-दुपट्टा पहने सौम्य-हँसमुख मुद्रा में देखा था। वो सतत् पढ़ते रहते थे। रात में गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य करते थे तब भी मुख से संस्कृत के सूत्र, श्लोक और प्राकृत की गाथाओं का पाठ करते रहते थे। अप्रैल-मई की गर्मी में भी वे कभी ख़ाली बैठे नजर नहीं आये। न ही उनको दिन में कभी लेटे हुए देखा, दिन में प्रमेयरत्नमाला नामक न्याय ग्रन्थ की हिन्दी व्याख्या को कॉपी में लिखा करते थे। एक दिन हमने कॉपी उठाकर देखी तो उस पर लिखा था २४ अप्रैल १९६८ प्रारम्भ (आचार्य श्री माणिक्यनंदीकृत सूत्र ग्रन्थे परीक्षामुख पर आचार्य श्री अनन्तवीर्य लघु द्वारा संस्कृत भाषा में रचित न्याय विषयक टीका ग्रन्थ प्रमेयरत्नमाला की पण्डित हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री द्वारा संपादित अनुवादित चिन्तामणि नामक हिन्दी व्याख्या)।
मैं कभी-कभी ब्रह्मचारी जी के साथ प्रातः काल शौच के लिए जंगल जाता था। तब भी रास्ते में वो कुछ-कुछ पढ़ते रहते थे। उनकी नजर नीचे ही रहती थी। तब मेरे मन में विचार आया कि भैया जी को पढ़ाई के लिए समय की कमी पड़ती है इसलिए हर कार्य करते हुए पाठ करते रहते हैं। तो मेरे मन में विचार आया कि वो संडास में शौच चले जाएँ तो समय बच जाएगा। मन की यह बात हमने उनसे कही कि आप संडास में शौच क्यों नहीं चले जाते ? आपका समय बच जायेगा। तो विद्याधर जी बोले- 'मैं समय बचाने के लिए ही तो जंगल जाता हूँ। गुरु महाराज ने बताया है कि समय यानि आत्मा।" इस तरह वो ज्ञान को आचरण में उतारते चले जा रहे थे। आज वो चारित्र शिखर पर ज्ञान की प्रतिमूर्ति ज्योतिर्मय निर्ग्रन्थ रूप में दैदीप्यमान हैं। ऐसे ज्ञानी महापुरुष को नमन करता हुआ....
आपका
शिष्यानुशिष्य