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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. इसलिए बेटा! मैंने जो कहा उसे आस्था से समझकर स्वीकार कर लेना। क्योंकि- "जीवन का आस्था से वास्ता होने पर रास्ता स्वयं, शास्ता हो कर सम्बोधित करता साधक को साथी बन साथ देता है।" (पृ. 9) जीवन में जब समीचीन श्रद्धा जागृत होती है तब वही श्रद्धा हमारे लिए दिशा निर्देशक, उपदेशक बनकर सदा साथ देती है। आस्था के तारों पर ही साधना की अंगुलियाँ चलती हैं-साधक की, फिर सफल जीवन में लौकिक स्वरों से अतीत / रहित एक अलग ही अपूर्व आत्मानंद की गूंज उठती है और जीवन परम आनन्द का अनुभव करता है, समझी बात बेटा! तेरे जीवन में निश्चित ही उज्वल भविष्य का, पवित्र सत्ता का कोई बिम्ब/रूप झलका है। तभी तूने अपने आपको छोटा माना है, अपने से अन्य प्रभु को श्रेष्ठ और बड़ा माना है, यह भी अभूतपूर्व घटना है। असत्य को असत्य के रूप में जानना-पहचानना ही सत्य की खोज करना है बेटा! खाई में गिरे हुए पतित जीवन का अनुभव करना ही, उच्चशिखरों की उत्कृष्टता को प्राप्त करना है। किन्तु बेटा जिसे हमने श्रद्धा से स्वीकार किया, उस विषय को जीवन में/आचरण में उतारना, अनुभव में लाना सरल नहीं है। आस्था अनुभूति (feeling) में ढले इसके लिए स्वयं को उत्साह के साथ, हर्ष पूर्वक (प्रसन्नता के साथ) साधना के सांचे में ढालना होगा अर्थात् तप, संयम, समता को अंगीकार करना होगा। क्योंकि पर्वत की तलहटी से भी शिखर का दर्शन हो सकता है किन्तु "चरणों का प्रयोग किये बिना शिखर का स्पर्शन सम्भव नहीं है।" (पृ. 10) शिखर को छूना चाहते हों तो, पुरुषार्थ पूर्वक ऊपर चढ़कर जाना होगा। हाँ हाँ, यह बात मैं भी स्वीकारती हूँ कि बिना समीचीन श्रद्धा के सन्मार्ग का मिलना संभव नहीं। बिना जड़ के उपरिल भाग (तना, फल आदि) का होना, जैसे संभव नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र का होना भी संभव नहीं, किन्तु क्या कभी जड़ में फल-फूल लगे हैं? फल-फूल तो पेड़ के ऊपरी भाग में ही लगते हैं। 1. आस्था = श्रद्धा, 2. वास्ता = सम्बन्ध, 3. शास्ता = उपदेशक।
  2. लेखनी लिखती है कि- शिष्य से गुरु का रिश्ता होता है अनोखा भवसागर से पार जाने गुरु हैं एक नौका। देह की सुंदरता देख उनकी प्रसिद्धि प्रतिष्ठा देख भी गुरु बनाये नहीं जाते वरन् ज्ञान-चारित्र आदि गुणों से माने जाते, अनेक तारों के मध्य चन्द्रमा की भाँति गुरु अनेक भक्तों के बीच अलग ही पहचाने जाते। महामानव हैं गुरु; जो किसी से कह नहीं सकते वह दोष गुरु को ही बता सकते स्वार्थ भरी दुनिया में एक गुरु को ही अपना बना सकते। जिनकी सन्निधि पाते ही निज की निधि दिखने लगती है जिनकी पवित्र परिणति लखकर निज की प्रतीति होने लगती है। उनकी मधुर आगम वाणी सुन लगता है सुना रही माँ लोरी, तो कभी शिष्य उड़ता है पतंग सम अनंत चिन्मय आकाश में पर पकड़े रहते हैं स्वयं गुरु हाथ में डोरी, शिष्यों ने किया है यह अनुभवन ऐसे गुरु श्रीविद्यासागरजी को अनंतों नमन। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  3. लेखनी लिखती है कि- शिष्य है शुभारंभ तो गुरु मार्ग का ले रहे हैं आनंद शिष्य आदि तो गुरु मध्य का पड़ाव हैं शिष्य धरा तो गुरु पर्वत का चढ़ाव हैं समंदर के दोनों तट हैं शिष्य इस तरफ तो गुरु उस तरफ हैं शिष्य गुरु के सम्मुख है तो गुरु प्रभु के अभिमुख हैं जो प्रभु से पाकर देते जाते हैं तो शिष्य गुरु से लेते जाते हैं। सच पूछो तो जल की बूंद में ही मुक्ता होने का छिपा है राज, समर्पित शिष्य ही बन पाता है श्रेष्ठ गुरुराज, शिष्य की यात्रा अति दुर्गम है शिष्य होने के उपरांत गुरु होने की यात्रा सुगम है; क्योंकि तोड़ता जो अपना गिरि-सा गरूर वही गुरु होकर प्रभु होता जरूर इस प्रसंग में विद्याधर की पदचाप सुनाई देती है जो चलते रहे गुरु आज्ञानुसार तभी तो आज जगत्गुरु श्रीविद्यासागरजी में दिख रहे श्रीज्ञानसागरजी के ही संस्कार। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  4. लेखनी लिखती है कि- गुरु का निखरा हुआ रूप हैं प्रभु शिष्य का निखरा हुआ रूप हैं गुरु पत्थर का उन्नत रूप है मूरत गुरु का उन्नत स्वरूप हैं जिनवर यद्यपि गुरु ही प्रभु का पूर्व स्वरूप हैं मंगल घट बिखरी माटी का ही रूप है लगता दोनों हैं समान लेकिन कहते हैं गुरु- कहाँ मैं और कहाँ भगवान्! कहाँ धरती और कहाँ आसमान? कली और सुमन कैसे हो सकते हैं समान? गुरु की यही लघुता प्रगटाती है पावन प्रभुता ज्यों मांगलिक घट बनने से पूर्व माटी को आग खानी पड़ती है औरों को रोशनी बाँटने से पूर्व स्वयं को अनल की तपन सहनी पड़ती है त्यों प्रभु होने से पूर्व गुरु को गहनतम साधना करनी होती है। वास्तव में प्रभुता पाने की कोई मुहूर्त या तिथि नहीं होती मोक्ष जाने की कोई वीथी नहीं होती गुरु ही उन्नत होकर बन जाते हैं प्रभु शिष्य ही आगे जाकर बन जाता है गुरु, लेकिन पिता को पूर्व में पुत्र होना ही पड़ेगा गुरु को पूर्व में शिष्य होना ही पड़ेगा और यह दृश्य विद्याधर में देखने को मिलेगा जो बन गए अब विद्याधर से श्रीविद्यासागर आरती उतारें जिनकी धरा और अंबर। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  5. लेखनी लिखती है कि- गुरु वे हैं जो बाह्य जगत् में रहने की कला न सिखायें वरन् अपने अंतेवासिन् को अंतर्जगत् की यात्रा करायें स्वयं शिष्य से रखकर पर्याप्त दूरियाँ उसे निजात्मा से मिलवा दें अपना ही आत्मीय कैसे बनना ऐसी प्रीत की रीत सिखला दें जिनकी स्मृति करते ही आशीष का उपहार मिल जाता जिनकी स्तुति करते ही हृदय से आनंद रस बरस जाता जिनकी सन्निधि पाते ही स्वयं को स्वयं से देख लेता वे जब भी करें किसी से वार्ता लगे कि मुझे ही समझा रहे हैं, वे देखें किसी भी दृश्य को लगे कि मुझे ही देख रहे हैं, वे जाने किसी भी ज्ञेय को लगे कि मेरे ही ज्ञान में समाये हैं। जिनके साथ औपचारिकता का न करना पड़े निर्वाह जीवन में गुरु के आते ही न लगे कठिन गंतव्य की राह सही मायने में वही तो हैं गुरु जो मात्र मार्गदर्शन ही नहीं करते वरन् बना देते मार्गदर्शक बेसहारे को देकर सहारा बना देते औरों का सहायक ऐसे गुरु हैं श्रीविद्यासागरजी महाराज भवोदधि तिरने का मानो अनुपम जहाज। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  6. जिनकी आँखों में करुणामयी चेतनता का दर्शन हो रहा है, ऐसी धरती माँ की सरल आँखें हर्ष के आँसुओं से भीग चुकी हैं, इन आँखों से निरन्तर अश्रु प्रवाह बह रहा है। जिसका माथा संकल्प-विकल्पों के तनाव से रहित, श्रेष्ठता को प्राप्त है ऐसी माँ धरती अपने मौन को तोड़ती हुई कुछ कहने को उद्यत हो रही है। निमित-नैमितिक सम्बन्धों के कारण अथवा माटी के निवेदन रूप पुरुषार्थ के कारण कहें, किन्तु सहज ही माँ धरती का माटी के प्रति विरह, अलग-अलगपने के भाव का अभाव हो अपनेपन का भाव उत्पन्न हो रहा है। धैर्य को धारण करने वाली माँ धरती के सम्मुख माटी का आकर्षण है, अत: वह कुछ कहने के लिए तैयार होती है। लो! करुणा से भीगे भावों द्वारा सम्बोधन की शुरुआत – "सत्ता शाश्वत होती है, बेटा! प्रति-सत्ता में होती हैं अनगिन सम्भावनाएँ उत्थान–पतन की, खसखस का दाना-सा बहुत छोटा होता है बड़ का बीज वह! समुचित क्षेत्र में उसका वपन हो समयोचित खाद, हवा, जल उसे मिलें अंकुरित हो, कुछ ही दिनों में विशाल काय धारण कर वट के रूप में अवतार लेता है। यही इसकी महत्ता है। सत्ता शाश्वत होती है सत्ता भास्वत होती है बेटा! रहस्य में पड़ी इस गन्ध का अनुपान करना होगा आस्था की नासा से सर्वप्रथम समझी बात................ !" (पृ. 7 ) बेटा! जीवन को उन्नत बनाने के लिए, सर्वप्रथम प्रकृति और पुरुष के इस रहस्य को समझना होगा, वह भी आस्था से, क्योंकि तत्व का ग्रहण ना ही आँखों से और ना ही कानों से अपितु आस्था से ही संभव है। सत्ता शाश्वत होती है अर्थात् जो है वह कभी नष्ट नहीं होता। द्रव्यार्थिक नय' से स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने पर द्रव्य सदा नित्य तथा शुद्ध, सिद्धों के समान स्वभाव वाला है, किन्तु प्रतिसत्ता में विकास एवं ह्रास की संभावनाएँ होती हैं अर्थात् पर्याय में परिवर्तन देखा जा सकता है। पर्यायें नाशवान (नष्ट होने वाली) हैं योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का संयोग मिलने पर शुद्ध पर्याय को प्राप्त किया जा सकता है। पुन: समझने का प्रयास करें सो जीव द्रव्य की नर, नारक आदि अशुद्ध पर्यायें हैं जबकि सिद्ध दशा उसी जीव की शुद्ध पर्याय है। खसखस के दाने से भी छोटा बरगद का बीज होता है, उचित भूमि में बोने पर, समयानुसार खाद-पानी देने पर वह बीज विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार जीवन में विकास की योग्यता, उपादान शक्ति होने पर भी योग्य संयोगों की आवश्यकता को स्वीकारना, निमित्त कारण को भी जानना होगा। सत्ता सदा से थी, है और रहेगी। वह सदा स्वभाव की अपेक्षा प्रकाशमान है। उस प्रकाशित सत्ता का उद्घाटन करना है तो अज्ञान के बाहरी आवरण को हटाना होगा। और भी देखो यह कितना खुला स्पष्ट विषय है कि निमित्त का, संगति का जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता है ? बादलों से गिरने वाली निर्मल जल की धारा धूल में मिल दल-दल में बदलती, नीम की जड़ में जा कटुता में ढलती, सागर में मिलकर खारी हो लवणाकर कहलाती, सर्प के मुख में जा हलाहल विष का रूप धारण करती है और वही जल की बूंद यदि स्वाति नक्षत्र का काल हो, सागर में तैरती सीप के मुख में जा मोती के रूप में परिवर्तित हो झिलमिल - झिलमिल करती वही जलीय सत्ता समझी बेटा! अनादिकाल से जीवन यूँ ही परिवर्तित होता आ रहा है, जैसी संगति मिलती है वैसी ही बुद्धि परिवर्तित होती है। जैसी बुद्धि होती है उसी के अनुसार आगे गति, दिशा मिलती जाती है। 1. शास्त्रों की शैली में कहा जाये तो पद यानि सम्यक् चारित्र, पथ यानि सम्यग्दर्शन और पाथेय यानि सम्यग्ज्ञान। 2. संकल्प - विकल्प = पर पदार्थों के प्रति मेरे-तेरे पन का भाव तथा मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ इत्यादि परिणाम । 3. निमित - नैमितिक सम्बन्ध = किसी कार्य की सम्पन्नता में सहयोगी कारण एवं उस कारण से उत्पन्न हुआ कार्य। जैसे-कुम्भकार रूप कारण के निमित्त से उत्पन्न घट रूप नैमितिक कार्य। 4. शाश्वत = जो कभी नष्ट न हो । 5. भास्वत = प्रकाशमान । 6. द्रव्यार्थिक नय = द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, ऐसा कथन, वचन। 7. द्रव्य = जो पहले थी, अभी है, आगे भी रहेगी, ऐसी त्रिकालवर्ती वस्तु द्रव्य कहलाती है। 8. पर्याय = जो प्रतिसमय उत्पन्न हो और नष्ट हो, उसे पर्याय कहते हैं।
  7. लेखनी लिखती है कि- गुरु की परिभाषा शब्दों में कठिन है गूँथना बहुत मुश्किल है उन्होंने जो लखा उसे लिपिबद्ध करना फिर भी कुछ यह संकेत समझना जो मैंने देखे हैं गुरु में- सर्वप्रथम वे अपने लिए कुछ माँगते नहीं सिर्फ देते हैं, देने पर भी अहं की खाई में गिरते नहीं वरन् अर्हत् पद के उन्नत सोपान पर चढ़ते हैं, वे स्वयं को दाता मानते नहीं सदा प्रभु के परम पात्र रहते हैं। अपने ज्ञानादि गुणों का उपयोग बाह्य प्रभावना के लिए नहीं करते हैं स्वात्मोपलब्धि के लिए वे निर्विकल्प रहते निर्विकार सदा आनंदित रहने के लिए। अपने शिष्यों को शिक्षा देते हैं सिर्फ विचारों से नहीं स्वयं जीवन जीकर, इसीलिए जीवंतशाला हैं गुरुवर दैवीय गुणों से संयुत हैं गुरुवर उनकी शांत मुद्रा में भी उपदेश है ऐसे श्रीविद्यासागरजी गुरु ही मेरे पूर्णेश हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  8. लेखनी लिखती है कि- वही हैं ज्ञानी गुरु जो हमें हमारे अज्ञान का बोध करा दें अंतर्तमस् की पहचान कराकर ज्ञान दीप को उजाल दें जब वह हमें हमारे दोषों का ज्ञान कराते हैं तब भीतर का ज्ञान गुण प्रगटने लगता है सुख की सरिता उछलने लगती है यहीं से अंतर्यात्रा की शुरुआत होती है। सद्गुरु वह नहीं जो करे सिर्फ ज्ञान की बात, सद्गुरु हैं वही जिनकी आत्मा में जगमगा रहा ज्ञान प्रकाश चाहे दिन हो या रात। कहने में आता है कि गुरु ने दिया है ज्ञान पर गुरु का कहना है कि- मैं चाहकर भी दे नहीं सकता अपना ज्ञान; क्योंकि द्रव्य से गुण को जुदा किया नहीं जाता ज्ञान को आत्मा से भिन्न किया नहीं जाता स्वरूप को स्वरूपवान से अलग किया नहीं जाता तू स्वयं ज्ञान स्वरूप है उपमाओं से रहित तेरा ज्ञान अनूप है। बस इसी भाँति गुरु भव-भवांतर के फैले अज्ञानतम का कराते एहसास तभी शिष्य अपने ज्ञान स्वरूप पर करके विश्वास ज्ञानकलाविद् गुरु को बिठाता हृदयासन पर, ज्यों श्रीविद्यासागरजी के हृदय में विराजे थे गुरु श्रीज्ञानसागर। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  9. लेखनी लेखती है कि- सद्गुरु सारी धरा के वरदान हैं गुरु ही शिष्य के लिए भगवान् हैं; क्योंकि माँ तन को देती है जन्म पिता वसीयत के नाम पर देता है धन लेकिन गुरु मिटा देते हैं जनम-मरण, माता देती है संस्कार पिता देता है घर बार लेकिन गुरु देते हैं मुक्ति का उपहार, माता का रिश्ता जुड़ा है देह से पिता का जुड़ा है गेह नेह से लेकिन गुरु का नाता है विदेह से । गुरु शिष्य को प्रथम मूच्र्छा से जगाते हैं फिर उसके अस्तित्व का भान कराते हैं इसीलिए कहता है शिष्य- मंदिर के द्वार से कम नहीं गुरु का द्वार कैसे करू गुरु का आभार? श्रीराम थे सर्व कला परायण फिर भी गुरु वशिष्ठ की शरण आना पड़ा, घनश्याम थे नारायण फिर भी उन्हें गुरु आश्रम जाना पड़ा, अनंत-ज्ञानी थे चौबीस तीर्थंकर फिर भी उन्हें 'नमः सिद्धेभ्यः' कहना पड़ा। सच! गुरु बिन भव से तिरा जाता नहीं गुरु जो कर सकें वह प्रभु से भी किया जाता नहीं इसीलिए शिष्य को श्रीविद्यासागरजी जैसे गुरु बिन रहा जाता नहीं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  10. स्वभाव से ही संकोच और लज्जा को धारण करने वाली, रूपवती सरिता-तट की माटी अपने मन के भावों को माँ धरती के समक्ष व्यक्त करती है। हे माँ! मैं स्वयं ही पूर्वोपार्जित पापकर्म के उदय से निम्न दशा (नीची अवस्था) को प्राप्त पतिता हूँ और इस स्वार्थी, अहंकारी दुनिया ने मुझे और गिरा दिया है। दूसरों का बुरा करने में जिनकी बुद्धि लगी रहती है, ऐसे पापियों के पैरों द्वारा कुचली गई हूँ। मेरा जीवन सुख से रहित और दुख से सहित है साथ ही साथ औरों के द्वारा अपमानित की गई, त्यता यानी छोड़ी गई हूँ। यह पतितात्मा कितनी पीड़ाओं को झेल रही है सो व्यक्त नहीं कर सकती और करूं भी तो किसके सामने, कौन सुनने वाला है यहाँ। मेरे पास पैर भी नहीं है, ना ही मैं कुछ पुरुषार्थ कर सकती हूँ। आखिर भाग्य उल्टा जो रहा। इतना जरूर है कि मेरे निमित से और कोई दुखी न हो, ऐसा विचार करती हुई प्रत्येक श्वांस पर मिलने वाले दुख को पीती / सहन करती आ रही हूँ, अपने मुख पर आवरण ले किन्तु आन्तरिक वेदना से घुटती जा रही, केवल दिखाने के लिए ही जी रही हूँ, किन्तु जीना नहीं चाहती हूँ। अत: हे माँ! मुझे बस इतना बता दो कि यह पतित दशा कब नष्ट होगी ? यह शरीर मुझसे कब पृथक् होगा। "इसका जीवन यह उन्नत होगा, या नहीं अनगिन गुण पाकर अवनत होगा, या नहीं कुछ उपाय करो माँ! कुछ अपाय हरो माँ! और सुनो, विलम्ब मत करो पद दो, पथ दो पाथेय भी दो माँ! "(पृ. 5) मेरा यह जीवन अनन्त गुणों को पाकर, नम्रवृत्ति (विनय रूप परिणाम) को धारता हुआ उन्नत बनेगा कि नहीं। हे माँ तुम ही कुछ उपाय करो और मेरे दुखों को दूर करो। और सुनो माँ! मुझे तुम पर ही विश्वास है अत: शीघ्रता से वो चरण दो, जो उन्नति के मार्ग में चल सके। वो रास्ता भी बताओ जो उन्नति की ओर जाता हो। साथ ही साथ कुछ ऐसे भी सूत्र दो, जो पथ पर चलते समय मुझे शक्ति/सहारा प्रदान कर सकें। इतना कहकर माटी चुप हो जाती है, कुछ समय तक मौन का माहौल छा जाता है। माटी और माँ धरती एक दूसरे को अपलक देख रही हैं, माटी की नजरें धरा में और धरा की नजरें माटी में एक दूसरे के भीतर पहुँचते हुए अन्तरंग में जा समाती हैं। पूर्वोपार्जित = पूर्व जन्म में बाँधे हुए उत्पन्न किए हुए कर्म।
  11. लेखनी लिखती है कि- लाख दुनिया समझाये पर गुरु का समझाना अलग ही बात है, लाख कोई अपनाये पर गुरु का अपनाना अलग ही बात है, लाख जुगनू टिमटिमाये पर सूर्य का उगना अलग ही बात है; क्योंकि गुरु हैं धड़कन नाड़ी की फड़कन चाहे कितना ही काम करें अन्य अंग पर हृदय की अपनी अलग ही अस्मिता है, चाहे कितने ही काम आये अन्यजन पर गुरु की एक अलग ही विधा है, गुरु-कृपा की रसधार के आगे अमृत रसायन से भरा घट भी लगता रीता है। गुरु की दृष्टि है निराली जिस पर पड़ जाये उसे लगता है आ गई दीवाली, समस्त दुविधा को हरने वाली अंध नयन में भी मानो नव ज्योत भरने वाली। गुरु-महिमा को हजारों जिह्वा भी गाएँ पर महिमा शेष ही रह जाती, ऐसे गुरुवर श्रीविद्यासागरजी के गुण लिखते-लिखते लेखनी भी थम जाती। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  12. लेखनी लिखती है कि- पिता चाहता है कि यह आज्ञाकारी ही बना रहे माँ चाहती है कि यह मेरा बेटा ही बना रहे बहन चाहती है कि यह मेरा भ्राता ही बना रहे लेकिन गुरु चाहते हैं यह स्वयं को इतना काबिल करे कि भगवत्ता को हासिल करे। इसीलिए गुरु बन जाते अधिवक्ता जो अनंतकाल से सताते हैं ऐसे कर्मरूपी प्रतिद्वन्द्वी से भी जिताते है यह मत सोचो कि यह तो गुरु का फर्ज है सच्चा शिष्य कहता - मुझ पर गुरु का यह बहुत बड़ा कर्ज है जिसका सामान्य ब्याज भी चुका नहीं सकता मैं! फिर मूल चुकाने की तो बात कैसे कर सकता मैं !! सच है, गुरु के गुण अगम हैं जिनका स्थिर मन देख हिमगिरि भी पिघल जाता है जिनका गंभीर चारित्र देख प्रशांत महासागर का उफान भी रुक जाता है जिनकी क्षमा भाव की शीतलता देख अनल उगलता मरुथल भी ठंडा पड़ जाता है ऐसे ही संतों में श्रेष्ठ श्रीविद्यासागरजी यतिराज अनेक गुणों के धाम हैं उन्हें त्रियोग से मेरा प्रणाम है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  13. लेखनी लिखती है कि- मत पूछो कि गुरु से क्या पाया पूछो मन से, गुरु को पाकर क्या खोया? गुरु तो बहती निर्मल गंगा है जिसने धोये विकार उसका चेतन हुआ चंगा है, गुरु तो पूनम का चंदा है चमकती चाँदनी में नहाकर रोशनी पाता अंधा है, गुरु तो हैं ज्योतिर्मान दिनकर उनके समक्ष आँखें मूंदकर स्वस्थ हो जाता रोगी है, गुरु तो सागर का है बसरा मोती जिसने सीप खोजी उसी ने पाई वह मुक्ताकांति है। शिष्य ही पहचान पाता गुरु के मोल को शिष्य ही समझ पाता गुरु के गूढ़ बोल को तभी तो वह गुरु की उपयोगी वस्तु पैर से कभी छूता नहीं गुरु की छाया पर चलता नहीं गुरु के सम्मुख जा रूप प्रदर्शन की मूर्खता करता नहीं गुरु ने क्या दिया यह सोचता नहीं; क्योंकि लेन-देन से परे हैं गुरु व्यापारी नहीं हैं सद्गुरु सिंधु हैं गुरु तो बूंद है शिष्य पृष्ठ हैं गुरु तो हाँसिया है शिष्य आसमाँ हैं गुरु तो धरा है शिष्य कण है शिष्य तो मन हैं गुरु देह है शिष्य तो प्राण हैं गुरु। श्रद्धालु श्रद्धेय का संबंध है दोनों का समर्पण समर्थ्य का संबंध है दोनों का ज्ञान और विद्या का अनादि संबंध है तो ज्ञानसिंधु और विद्यासिंधु में गुरु शिष्य का बंधन है ऐसे पवित्र बंधन को मेरे अगणित वंदन है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  14. लेखनी लिखती है कि- गुरु को मानना है आसान किंतु गुरु की मानना है कठिन; क्योंकि गुरु को मानने में आ सकता है प्रसिद्धि का भाव कि मेरे भी गुरु हैं नहीं है मेरे जीवन में गुरु का अभाव गुरु को मानकर भी वह मानी हो सकता है लेकिन गुरु की न माने तो वह ज्ञानी कैसे हो सकता है? गुरु के देहाकार को नहीं गुण को जो देखता है, गुरु की बाह्य प्रसिद्धि को नहीं स्वयं के समर्पण को जो देखता है, वह गुरु का नाम जपकर अपने परिणाम सँभालता है, मैं गुरु का चेला हूँ बड़ा यह प्रमाण नहीं देता है। ऐसा शिष्य ही अंतरात्मा से निजानंद का अनुभव करता है तोड़कर संबंध सर्वजगत् का स्वयं में संपर्क साधता है। अहा! अद्भुत क्षण है यह जिसे मिला यह अवसर धन्य है वह वास्तव में गुरु की महिमा लिखी नहीं जाती श्रीविद्यासागर गुरु की निकटता बड़भागी को ही मिल पाती। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  15. प्रात:काल का समय है, अनन्त आकाश में नीली-नीली आभा फैली हुई है और इधर नीचे धरा में कोलाहल रहित शान्त वातावरण बना हुआ है। रात्रि व्यतीत होने को है दिन उदित होने जा रहा है। सूर्य की निद्रा टूट तो गई है किन्तु अभी वह दिशारूपी माँ की वात्सल्यमयी गोद में लेटा हुआ, मुख पर आँचल ले करवटें बदल रहा है (हल्का-सा प्रकाश फैल चुका है किन्तु सूर्य नहीं दिख रहा है) पूर्व दिशा के ओठों पर मन्द मन्द मीठी-सी मुस्कान प्रतीत हो रही है, इसके सिर पर कोई आवरण नहीं है तथा चारों ओर सिंदूरी रंग की धूल उड़ती-सी लग रही है। यह वातावरण सभी के मन को सुहावना लग रहा है। इधर सरोवर (तालाब) में रात्रि में विकसित होने वाली कुमुदिनी बन्द होने को है, ऐसा लगता है मानो लज्जा के कारण वह सूर्य की किरणों के स्पर्श से बचना चाहती है। अत: अपनी पराग और सराग सहित सुन्दर मुद्रा को पाँखुरियों की ओट देकर छुपा रही हो। और दूसरी ओर कमलिनी जो अधखुली है वह भी डूबते चाँद की चाँदनी को भी पूरी तरह आँख खोलकर नहीं देख पा रही है। कारण चाँदनी के प्रति ईष्र्या भाव लगता है। चूँकि ईष्र्या (जलन भाव) पर विजय प्राप्त करना सबके वश की बात नहीं है और वह भी स्त्री पर्याय में अनहोनी - सी घटना लगती है। गगनांगन में स्थित बल रहित बाला (बालिका)-सी सरल परिणामी ताराएँ भी अपने पतिदेव चन्द्रमा के पीछे-पीछे चलती हुई सुदूर दिशाओं के अन्त में छुपी जा रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं सूर्य उन्हें देख न ले, इसी भय से भाग रही हैं वे। "मन्द-मन्द सुगन्ध पवन बह रहा है; बहना ही जीवन है बहता-बहता कह रहा है" (पृ.2, 3 ) सुबह-सुबह मन्द-मन्द सुगंधित हवा बह रही है, मानो संदेश दे रही है कि परिवर्तन ही जीवन है यहाँ कोई भी तो स्थिर नहीं है। जो आज नया है कल पुराना हो जाता है पुराना और भी पुराना हो जाता है। बहता हुआ पवन कह रहा है-मेरे लिए और सबके लिए कल्याणकारी है यह सन्धिकाल’। छोर-छोर तक सुगन्धि फैल रही है, अभी ना रात है और ना ही चन्द्रमा, ना दिन है ना ही सूर्य। अभी दिशाएँ भी अन्धी हैं अर्थात् कौन-सी दिशा पूर्व है और कौन-सी उत्तर कहा नहीं जा सकता। ध्यान साधना के इस काल में निज आत्म तत्व की खोज की जा सकती है, ऐसे शुभ वक्त में अन्य किसी के मन में दुर्विचार (बुरे भाव) भी पैदा नहीं होते हैं। और इधर सामने तीव्र वेग से बहती हुई नदी अन्य किसी बात पर ध्यान न देते हुए असीम सागर की ओर जा रही है, कारण समीचीन मार्ग (पथ) में चलता हुआ पथिक बाहरी आकर्षण मिलने अथवा संकट आने पर भी लक्ष्य से चयुत नहीं होता और ना ही तन से, ना ही मन से पीछे मुड़कर देखता है अपितु आगे ही बढ़ता चला जाता है। 1. अनहोनी = जिनका होना संभव न हो। 2. सन्धिकाल = दिन और रात के बीच का काल। 3. भोर = प्रभात, रात के पहेले एवं सूर्यादय के पहेले का समय 4. आँचल = साडी का वह छोर, जो छाती और पेट पर रहता है |
  16. मूकमाटी महाकाव्य को प्रारम्भ करते हुए कवि ने प्रथम ही प्रात:कालीन प्राकृतिक वातावरण के सौन्दर्य का वर्णन किया। सूर्योदय के पूर्व सन्धिकाल के महत्त्व को दर्शाते हुए, बहती हुई सरिता का सन्देश दिया गया। सरिता तट की माटी ने अपनी अन्तर्वेदना माँ धरती से कही और पूछा कि मेरा जीवन उन्नत बनेगा कि नहीं। करुणा से भीगी माँ धरती ने माटी को सम्बोधन दिया–सत्ता प्रतिसत्ता का रहस्य, संगति का महत्व, आस्था की बात, साधना की रीत, पथ की घाटियाँ, प्रतिकार अतिचार का परिणाम, सही-सही पुरुषार्थ का स्वरूप और अन्त में संघर्षमय जीवन का उपसंहार हर्षमय। पतित माटी से पावन घट बनने तक की प्रक्रिया को रूपक बनाकर पापात्मा से परमात्मा बनने तक की यात्रा का वर्णन करने वाले मूकमाटी महाकाव्य को प्रारम्भ करते हुए प्रथम ही प्रात: कालीन प्राकृतिक दृश्य का वर्णन किया गया। सीमातीत शुन्य में नीलिमा बिछाई, और..... इधर..... निचे निरी नीरवता छाई, निसा का अवसान हो रहा हैं उषा की अब शान हो रही है। (पृ.1)
  17. लेखनी लिखती है कि- गुरु अपनी ज्ञान साधना से गुरु होता है शिष्य का जीवन ऐसे ही गुरु से शुरु होता है पहले गुरु स्वयं अपने ज्ञान पर लगी ऊपरी परत को तोड़ते हैं दृष्टि को अंतर में समाहित कर स्वयं को स्वयं से जोड़ते हैं तभी अदभुत होता है दिव्य ज्ञान उन क्षणों में अतीन्द्रिय भाव से उपयोग को सूक्ष्म करके श्रद्धा-नयन से दिखता निज का भगवान् । शरणागत को वह यही सिखाते हैं जिस पथ पर चले स्वयं उसी पथ पर शिष्यों को चलाते हैं कहने में आता है कि- गुरु ज्ञान के ऊपर की परत खोलते हैं पर वे ज्ञान के बाधक तत्त्व का प्रथमतः ज्ञान कराते हैं, पश्चात् आवरण को हटाने का उपाय बतलाते हैं। वास्तव में मिथ्या परतों को स्वयं ही तोड़ना होता है पर कारण में कार्य का उपचार भी तो होता है गुरु यदि न होते कारण तो ज्ञान पर लगा हटता नहीं आवरण। सच यही है कि- ज्ञान दिवाकर विद्या के सागर गुरु जिन्हें मिलते हैं, ज्ञान पर मिथ्यात्व की मैली परत हटकर उसके सद्ज्ञान के कपाट खुलते हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  18. लेखनी लिखती है कि- गुरु तो सरोवर की तरह हैं ज्ञान जल से सराबोर हैं कभी रहता है सरोवर शांत तो दिख जाता उसमें आनन देह की होती है उसमें झलकन, जब शुद्धोपयोग में मग्न रहते हैं संत तो विदेह तत्त्व का होता है दर्शन तब शिष्य भी उन्हें प्रभु-सा मान कर लेते स्वात्म शक्तियों का ज्ञान, किंतु जब तरंगायित होता है सरवर उछलता रहता जल इधर-उधर तब तट पर बैठा पथिक जल के शीतल छीटे से आर्द्र हो जाता है रवि की तपन से राहत पा जाता है। जब शुभोपयोग में रहते हैं संत तब भक्तजनों को दर्शाते मोक्षपंथ भटके पथिकों को मिल जाता मार्ग छूट जाता है अप्रशस्त राग, किंतु गुरु से हो जाता प्रशस्त अनुराग। तब गुरु ही राग का स्वभाव बताते हैं जब इसके दोष समझ में आते हैं तब बुझने लगती है राग की आग अनुभूत होता है वीतराग भाव वैरागी गुरु ही यहाँ तक ला सकते हैं शिष्य में वीतराग भाव जगा सकते हैं। जब विद्याधर बैठे ज्ञानसिंधु के तट पर उनकी विरागता से अभिभूत होकर अन्त्र्पुरुषार्थ जगाया ऐसा कि स्वयं हो गए विशाल शांत सरवर शुद्धोपयोगी संत गुरुवर जयवंत रहो सदा धरती तल पर जब तक हैं रवि शशि तारे गगन पर । आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  19. लेखनी लिखती है कि- गुरु मध्य दीपक हैं उनसे उच्च स्थान पर प्रभु हैं और निम्न स्थान पर शिष्य है रोशनी उनके दीये की दोनों तरफा है अंतर सिर्फ इतना है कि नीचे शिष्य को रोशन करने के लिए और ऊपर की तरफ जाती है जब-जब भी लौ स्वयं में रोशनी भरने के लिए। यद्यपि गुरु में भी प्रकाश है पर कहती है उनकी विनम्रवृत्ति कि- यह सब प्रभु की है दीप्ति मैं भी पूर्व में तम से घिरा था ज्यों-ज्यों प्रभु पर किया विश्वास त्यों-त्यों तम छँट कर भरता गया मुझमें प्रकाश अब भी कुछ अपूर्व पाने उनकी ज्ञान लौ ऊपर उठी रहती है प्रभु की ओर तकती रहती है, किंतु शिष्य की श्रद्धा की पवन जब बहती है तब गुरु की करुणा के झोंके से हिलती हुई लौ नीचे चली आती है शिष्य की आत्मा जितनी-जितनी गुरु के प्रति नम्रीभूत होती है पुरवैया उतनी ही बहती रहती है तब शिष्य के हिये के दीये की बाती जल उठती है गुरु के प्रज्ञा दीप से जैसे शिष्य विद्याधर प्रकाशित हुए गुरु श्रीज्ञानसागरजी के ज्ञानदीप से। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  20. लेखनी लिखती है कि- क्षेत्र से गुरु चाहे कितने हों दूर श्रद्धा दर्पण में उनका दर्शन हो जाता जिनके स्मरण करते ही मन के कोने-कोने में स्पंदन हो जाता जिनसे दृष्टि मिलते ही भीतर की बदल जाती है दृष्टि जिनका आशीर्वाद मिलते ही होती है आनंद की अनुभूति जिनके मौन होते ही प्रकृति भी हो जाती है शांत जिनके मुखरित होने पर प्रकृति के कण-कण से झरता है मकरंद। जो जगत् में रहकर भी अपने आप में रमते हैं, होकर बेखबर जगत् से न जाने कैसे सबकी खबर रखते हैं, अपनी ही सुध में रहकर औरों को कैसे ज्ञानसुधा पिला देते हैं, गुरु की महिमा तो गुरु ही जाने बड़े-बड़े विज्ञ भी समझ न पाते हैं। दाता कहो या गुरु एक ही है पात्र कहो या शिष्य एक ही है ऐसे महान् गुरु में कुछ तो है विशेष उनकी ऊर्जायित देहाकृति को शिष्य निरखता रहता अनिमेष वरना अपरिचित के समक्ष कैसे संभव है यह निरखन गुरुवर श्रीविद्यासागरजी के समीप्य में गुजारे सार्थक हुए वे ही क्षण। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  21. अमरकंटक (छत्तीसगढ़)। प्रसिद्ध दार्शनिक व तपस्वी जैन संत शिरोमणिश्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा है कि सांसारिक वैभव अस्थिर व अस्थायी होता है। यह एक पल में प्राप्त और अगले ही पल समाप्त हो सकता है। यही संसार की लीला है। इसलिए यह वैभव प्राप्त होने पर भी कभी संतोष का त्याग नहीं करें और न ही अहंकार को पास में फटकने दें। आचार्यश्री ने बताया कि सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही लक्ष्यों पर ध्यान रखते हुए यह भी सदैव याद रखें कि लक्ष्य को प्राप्त करने का रास्ता कठिनाइयोंभरा है। यह याद रखने से तो कठिनाइयां भी कम हो जाती हैं। आचार्यश्री यहां श्रद्धालुओं की विशाल सभा को संबोधित कर रहे थे। इससे पूर्व यहां ससंघ ने आशीर्वाद प्राप्त किया। पहुंचने पर श्रद्धालुओं ने उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए आशीर्वाद प्राप्त किया। इस अवसर पर अमरकंटक के शैल शिखर पर निर्माणाधीन विशाल भव्य जैन मंदिर के सम्मुख 1008 जिन प्रतिमायुक्त सहस्रकूट मान स्तंभ का शिलान्यास संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में किया गया। मान स्तंभ का जिन भवन बहुमंजिला व कीर्ति स्तंभ की शैली में होगा। शिलान्यास समारोह में बिलासपुर के जाने-माने व्यवसायी प्रमोद सिंघई व विनोद सिंघई ने परिवार सहित समारोह को सफल बनाने के लिए विशेष योगदान दिया। आचार्यश्री विद्यासागरजी ने कहा कि देवों के पास असीम वैभव होता है, मगर मन पर अंकुश नहीं होता है। सुख तो भोगते हैं किंतु संतोष नहीं होता। संतोष धारण की प्रवृत्ति मानव में होती है, देवों में नहीं। धार्मिक कार्यों में व्यय से मानव संतोष की अनुभूति करता है। मन पर अंकुश लगा व संयम धारण कर संतोष व सुख पा लेता है। हाथी की दिशा ठीक रखने के लिए महावत हाथी के सिर पर अंकुश का प्रयोग करता है। किसी की आवश्यकता की पूर्ति में सहायता करना अनुग्रह है, अनुग्रह से संतोष की अनुभूति होती है। चलने व गतिशीलता को प्रगति का सूचक बताते हुए आचार्यश्री ने कहा कि लगातार चलने वाले विरले ही होते हैं। चलने का अर्थ गतिशील होना है। आपने कुछ हास्य-भावों के साथ कहा कि हमारे गमन की सूचना पाकर कुछ लोग चलने लगते हैं कि महाराज हमारे गांव या नगर आ रहे हैं, साथ में हर्षोल्लास से चलते हैं किंतु कितनी दूर और कब तक? रास्ते में किलोमीटर की गणना करते रहते हैं कि कितनी दूरी शेष है? उन्होंने कहा कि भव्य आत्माओं ने चलते-चलते परम पद पा लिया। पद-पद चले, परम पद पा गए। भव्य आत्माओं के ध्यान से टूट रहा साहस पुन: दृढ़ होकर बल बन जाता है। भक्त न हो, तो भक्ति नहीं हो सकती। भक्ति से भगवान को सरोकार नहीं, अपितु भक्ति का सरोकार भक्त से भक्त के लिए होता है। आचार्यश्री ने कहा कि सहस्रकूट जिनालय का निर्माण विशेष पत्थरों से किया जा रहा है जिससे कि सैकड़ों वर्ष तक ऊपर चढ़ने का पथ प्रशस्त होता रहे। चातुर्मास में एक स्थान पर रुकना होता है लेकिन वह समय अभी दूर है। यह संकेत करते हुए आचार्यश्री विद्यासागरजी ने बच्चों में दान की प्रवृत्ति की सराहना करते हुए कहा कि बच्चों के संस्कार से कभी-कभी बड़ों को भी सीख लेना चाहिए। (साभार : वेदचंद जैन/वीएनआई)
  22. लेखनी लिखती है कि- गुरु सिर्फ अर्हत् की चर्चा ही नहीं करते वरन् अर्हं रूप हो जाने की चर्या भी करते, प्रभु से तुझे पथ मिलेगा यही नहीं पढ़ाते, अपितु तुझमें भी है प्रभुता इसे प्रकट करने का उपाय भी बतलाते। कहना है उनका कि- नदी तो बह रही है झुककर जल तुम्हें ही पीना है, दिनकर उदित हो चुका है कपाट खोलकर रोशनी तुम्हें ही लेना है। यदि बंद रखे द्वार तो रोशनी मिल न पायेगी, गले से जल की घूँट न उतारी तो प्यास बुझ न पायेगी, शास्ता ने दिखाया जो रास्ता वही दिखाया है मैंने, यदि है तुम्हारी आस्था तो चल पड़ो मंजिल अवश्य मिलेगी। तुम्हारा धाम तुम्हें ही पाना है चलने का काम तुम्हें ही करना है इस भाँति “अप्प दीपो भव" सूत्र का दीप जलाते हैं गुरु अपने तक ही न अटकाकर निज परमात्मा तक ले जाने का जरिया बनते हैं गुरु हर शिष्य में छिपे प्रभुत्व को जानते हैं गुरु। कर्मों के कारण है भेद भिन्नता सिर्फ बाह्य परिवेश में, किंतु नहीं है असमानता भीतरी आत्म प्रदेश में ऐसा ज्ञान देने के कारण ही तो गुरु भगवंत स्वरूप हैं चिन्मय चेता, विकारजेता चिद्रूप हैं ऐसे गुरुवर श्रीविद्यासागरजी सचमुच संतों के भूप हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  23. लेखनी लिखती है कि- मोक्ष की भी इच्छा होती है जब तक तब तक मोक्ष मिलता नहीं गुरु से दूरियाँ हैं जब तक संसार का मोह मिटता नहीं; क्योंकि माँ की गोद ही होती है बालक की सारी दुनिया गुरु की नि:स्वार्थ स्नेह वर्षण से महकती है शिष्य की ज्ञान बगिया। ज्यों माँ के अंक में बालक नि:शंक निर्भय हो सोता, त्यों गुरु-शरण में आ शिष्य को भव भ्रमण का भय नहीं होता। गुरु को अपना बनाने किसी वस्तु के उपहार की जरूरत नहीं, माँ को मनाने के लिए अलग से कुछ करने की जरूरत नहीं, अश्रुधार बहाते ही लगा लेती माँ सीने से, गल्तियों का प्रायश्चित लेते ही गुरु कर देते माफ उसे; क्योंकि गुरु का कहना है कि- स्व को साफ रखो पर को माफ करो फिर परम प्रभु को याद करो। यह सूत्र पहले वह स्वयं जीवन में लाते हैं तदुपरांत शिष्य को समझाते हैं ऐसे गुरु के लिए अब कहीं नहीं जाना है जग हितकारी गुरुवर श्रीविद्यासागरजी के चरणों में ही जीवन बिताना है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  24. लेखनी लिखती है कि- बहती हुई पुरवैया से सुनना चाहे यदि सरगम, बहते हुए झरनों से करना चाहे यदि देह निर्मल, उगते हुए सूरज से पाना चाहे यदि प्रकाश, तो प्राप्त कर ही सकता है बदले में प्रकृति को कुछ नहीं मिलता है। फिर भी प्रकृति देना कम नहीं करती वह तो सदा देती ही रहती बस हो लेने की योग्यता इसी भाँति जिससे गुरु की हो प्रभावना शिष्य में मात्र यही हो भावना तो वह सब कुछ पा लेता है जो उसे पाना था, उस तत्त्व को जान लेता है जो उसे जानना था, यदि है आत्म जागरण गुरु के अनुसार आचरण। क्योंकि गुरु में है गुणवत्ता आकर गुरु के समीप वह जीवन की श्रेष्ठता ही नहीं एक दिन पा लेता है भगवत्ता जिसे स्वात्मरुचि के बल पर ही समझना होता है अंतर की पिपासा से ही पाना होता है यदि पात्र पर ढक्कन लगा हो तो जल भरता नहीं पात्र उल्टा हो तो भी वह रहता है खाली ही। ज्ञान का सदुपयोग करना ही सीखने का महत्त्व है यहाँ विवेकवान विद्याधर का हो आता स्मरण है जिनने गुरु श्रीज्ञानसिंधु के चरणों में किया सर्वस्व समर्पण है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  25. लेखनी लिखती है कि- जब कोई गुरु को करता है हृदय में धारण वह इंसान तभी से रहता नहीं साधारण बदल जाता उसका भाग्य टल जाता है दुर्भाग्य गुरु की स्नेह दृष्टि से खुल जाते नयन स्वात्म तत्त्व का हो जाता है दर्शन पर शिष्य हो विनयवान; क्योंकि स्वयं को सरल या लघु समझना प्रसिद्धि के लिए लघु बनना या हृदय से लघु हो जाना। इन सब में अंतर है। केवल गुरु संग रहना पर्याप्त नहीं ऊपर के आचरण का आवरण ओढ़ने से भी कुछ नहीं वरन् गुरु की सन्निधि में निज गुण शाश्वत निधि को पाना है शिष्यत्व की सार्थकता। मिश्री के साथ रहकर भी नीम में मीठापन नहीं आता, किंतु मिश्री से मिलकर दुग्ध में मीठापन आ जाता इसीलिए रूप बदलने मात्र से नहीं आचरण में रूपांतरण भी हो गुरु के पद-कमल में रहकर हृदय की कठोरता का कोमलता में परिवर्तन भी हो। तब कहीं वह गुरु का हो पाता है। इसके लिए गुरु श्रीज्ञानसागरजी के चरणों में समर्पित विद्याधर का उदाहरण याद आता है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
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