लेखनी लिखती है कि-
मत पूछो कि गुरु से क्या पाया
पूछो मन से, गुरु को पाकर क्या खोया?
गुरु तो बहती निर्मल गंगा है
जिसने धोये विकार
उसका चेतन हुआ चंगा है,
गुरु तो पूनम का चंदा है
चमकती चाँदनी में नहाकर
रोशनी पाता अंधा है,
गुरु तो हैं ज्योतिर्मान दिनकर
उनके समक्ष आँखें मूंदकर
स्वस्थ हो जाता रोगी है,
गुरु तो सागर का है बसरा मोती
जिसने सीप खोजी
उसी ने पाई वह मुक्ताकांति है।
शिष्य ही पहचान पाता गुरु के मोल को
शिष्य ही समझ पाता गुरु के गूढ़ बोल को
तभी तो वह गुरु की उपयोगी वस्तु
पैर से कभी छूता नहीं
गुरु की छाया पर चलता नहीं
गुरु के सम्मुख जा
रूप प्रदर्शन की मूर्खता करता नहीं
गुरु ने क्या दिया यह सोचता नहीं;
क्योंकि लेन-देन से परे हैं गुरु
व्यापारी नहीं हैं सद्गुरु
सिंधु हैं गुरु तो बूंद है शिष्य
पृष्ठ हैं गुरु तो हाँसिया है शिष्य
आसमाँ हैं गुरु तो धरा है शिष्य
कण है शिष्य तो मन हैं गुरु
देह है शिष्य तो प्राण हैं गुरु।
श्रद्धालु श्रद्धेय का संबंध है दोनों का
समर्पण समर्थ्य का संबंध है दोनों का
ज्ञान और विद्या का अनादि संबंध है
तो ज्ञानसिंधु और विद्यासिंधु में
गुरु शिष्य का बंधन है
ऐसे पवित्र बंधन को मेरे अगणित वंदन है।