लेखनी लिखती है कि-
जब कोई गुरु को
करता है हृदय में धारण
वह इंसान तभी से
रहता नहीं साधारण
बदल जाता उसका भाग्य
टल जाता है दुर्भाग्य
गुरु की स्नेह दृष्टि से खुल जाते नयन
स्वात्म तत्त्व का हो जाता है दर्शन
पर शिष्य हो विनयवान;
क्योंकि स्वयं को सरल या लघु समझना
प्रसिद्धि के लिए लघु बनना
या हृदय से लघु हो जाना।
इन सब में अंतर है।
केवल गुरु संग रहना पर्याप्त नहीं
ऊपर के आचरण का आवरण
ओढ़ने से भी कुछ नहीं
वरन् गुरु की सन्निधि में
निज गुण शाश्वत निधि को
पाना है शिष्यत्व की सार्थकता।
मिश्री के साथ रहकर भी
नीम में मीठापन नहीं आता,
किंतु मिश्री से मिलकर दुग्ध में
मीठापन आ जाता
इसीलिए रूप बदलने मात्र से नहीं
आचरण में रूपांतरण भी हो
गुरु के पद-कमल में रहकर
हृदय की कठोरता का
कोमलता में परिवर्तन भी हो।
तब कहीं वह गुरु का हो पाता है।
इसके लिए गुरु श्रीज्ञानसागरजी के
चरणों में समर्पित
विद्याधर का उदाहरण याद आता है।