लेखनी लिखती है कि-
गुरु अपनी ज्ञान साधना से गुरु होता है
शिष्य का जीवन ऐसे ही गुरु से शुरु होता है
पहले गुरु स्वयं अपने ज्ञान पर लगी
ऊपरी परत को तोड़ते हैं
दृष्टि को अंतर में समाहित कर
स्वयं को स्वयं से जोड़ते हैं
तभी अदभुत होता है दिव्य ज्ञान
उन क्षणों में अतीन्द्रिय भाव से
उपयोग को सूक्ष्म करके
श्रद्धा-नयन से दिखता निज का भगवान् ।
शरणागत को वह यही सिखाते हैं
जिस पथ पर चले स्वयं
उसी पथ पर शिष्यों को चलाते हैं
कहने में आता है कि-
गुरु ज्ञान के ऊपर की परत खोलते हैं
पर वे ज्ञान के बाधक तत्त्व का
प्रथमतः ज्ञान कराते हैं,
पश्चात् आवरण को हटाने का
उपाय बतलाते हैं।
वास्तव में मिथ्या परतों को
स्वयं ही तोड़ना होता है
पर कारण में कार्य का
उपचार भी तो होता है
गुरु यदि न होते कारण
तो ज्ञान पर लगा हटता नहीं आवरण।
सच यही है कि-
ज्ञान दिवाकर विद्या के सागर गुरु
जिन्हें मिलते हैं,
ज्ञान पर मिथ्यात्व की मैली परत हटकर
उसके सद्ज्ञान के कपाट खुलते हैं।