लेखनी लिखती है कि-
शिष्य है शुभारंभ
तो गुरु मार्ग का ले रहे हैं आनंद
शिष्य आदि तो गुरु मध्य का पड़ाव हैं
शिष्य धरा तो गुरु पर्वत का चढ़ाव हैं
समंदर के दोनों तट हैं
शिष्य इस तरफ तो गुरु उस तरफ हैं
शिष्य गुरु के सम्मुख है
तो गुरु प्रभु के अभिमुख हैं
जो प्रभु से पाकर देते जाते हैं
तो शिष्य गुरु से लेते जाते हैं।
सच पूछो तो
जल की बूंद में ही
मुक्ता होने का छिपा है राज,
समर्पित शिष्य ही
बन पाता है श्रेष्ठ गुरुराज,
शिष्य की यात्रा अति दुर्गम है
शिष्य होने के उपरांत
गुरु होने की यात्रा सुगम है;
क्योंकि तोड़ता जो अपना गिरि-सा गरूर
वही गुरु होकर प्रभु होता जरूर
इस प्रसंग में
विद्याधर की पदचाप सुनाई देती है
जो चलते रहे गुरु आज्ञानुसार
तभी तो आज जगत्गुरु श्रीविद्यासागरजी में
दिख रहे श्रीज्ञानसागरजी के ही संस्कार।