जिनकी आँखों में करुणामयी चेतनता का दर्शन हो रहा है, ऐसी धरती माँ की सरल आँखें हर्ष के आँसुओं से भीग चुकी हैं, इन आँखों से निरन्तर अश्रु प्रवाह बह रहा है। जिसका माथा संकल्प-विकल्पों के तनाव से रहित, श्रेष्ठता को प्राप्त है ऐसी माँ धरती अपने मौन को तोड़ती हुई कुछ कहने को उद्यत हो रही है।
निमित-नैमितिक सम्बन्धों के कारण अथवा माटी के निवेदन रूप पुरुषार्थ के कारण कहें, किन्तु सहज ही माँ धरती का माटी के प्रति विरह, अलग-अलगपने के भाव का अभाव हो अपनेपन का भाव उत्पन्न हो रहा है।
धैर्य को धारण करने वाली माँ धरती के सम्मुख माटी का आकर्षण है, अत: वह कुछ कहने के लिए तैयार होती है। लो! करुणा से भीगे भावों द्वारा सम्बोधन की शुरुआत –
"सत्ता शाश्वत होती है, बेटा!
प्रति-सत्ता में होती हैं
अनगिन सम्भावनाएँ
उत्थान–पतन की,
खसखस का दाना-सा
बहुत छोटा होता है
बड़ का बीज वह!
समुचित क्षेत्र में उसका वपन हो
समयोचित खाद, हवा, जल
उसे मिलें
अंकुरित हो, कुछ ही दिनों में
विशाल काय धारण कर
वट के रूप में अवतार लेता है।
यही इसकी महत्ता है।
सत्ता शाश्वत होती है
सत्ता भास्वत होती है बेटा!
रहस्य में पड़ी इस गन्ध का
अनुपान करना होगा
आस्था की नासा से सर्वप्रथम
समझी बात................ !" (पृ. 7 )
बेटा! जीवन को उन्नत बनाने के लिए, सर्वप्रथम प्रकृति और पुरुष के इस रहस्य को समझना होगा, वह भी आस्था से, क्योंकि तत्व का ग्रहण ना ही आँखों से और ना ही कानों से अपितु आस्था से ही संभव है।
सत्ता शाश्वत होती है अर्थात् जो है वह कभी नष्ट नहीं होता। द्रव्यार्थिक नय' से स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने पर द्रव्य सदा नित्य तथा शुद्ध, सिद्धों के समान स्वभाव वाला है, किन्तु प्रतिसत्ता में विकास एवं ह्रास की संभावनाएँ होती हैं अर्थात् पर्याय में परिवर्तन देखा जा सकता है। पर्यायें नाशवान (नष्ट होने वाली) हैं योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का संयोग मिलने पर शुद्ध पर्याय को प्राप्त किया जा सकता है। पुन: समझने का प्रयास करें सो जीव द्रव्य की नर, नारक आदि अशुद्ध पर्यायें हैं जबकि सिद्ध दशा उसी जीव की शुद्ध पर्याय है।
खसखस के दाने से भी छोटा बरगद का बीज होता है, उचित भूमि में बोने पर, समयानुसार खाद-पानी देने पर वह बीज विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार जीवन में विकास की योग्यता, उपादान शक्ति होने पर भी योग्य संयोगों की आवश्यकता को स्वीकारना, निमित्त कारण को भी जानना होगा।
सत्ता सदा से थी, है और रहेगी। वह सदा स्वभाव की अपेक्षा प्रकाशमान है। उस प्रकाशित सत्ता का उद्घाटन करना है तो अज्ञान के बाहरी आवरण को हटाना होगा।
और भी देखो यह कितना खुला स्पष्ट विषय है कि निमित्त का, संगति का जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता है ? बादलों से गिरने वाली निर्मल जल की धारा धूल में मिल दल-दल में बदलती, नीम की जड़ में जा कटुता में ढलती, सागर में मिलकर खारी हो लवणाकर कहलाती, सर्प के मुख में जा हलाहल विष का रूप धारण करती है और वही जल की बूंद यदि स्वाति नक्षत्र का काल हो, सागर में तैरती सीप के मुख में जा मोती के रूप में परिवर्तित हो झिलमिल - झिलमिल करती वही जलीय सत्ता समझी बेटा!
अनादिकाल से जीवन यूँ ही परिवर्तित होता आ रहा है, जैसी संगति मिलती है वैसी ही बुद्धि परिवर्तित होती है। जैसी बुद्धि होती है उसी के अनुसार आगे गति, दिशा मिलती जाती है।
1. शास्त्रों की शैली में कहा जाये तो पद यानि सम्यक् चारित्र, पथ यानि सम्यग्दर्शन और पाथेय यानि सम्यग्ज्ञान।
2. संकल्प - विकल्प = पर पदार्थों के प्रति मेरे-तेरे पन का भाव तथा मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ इत्यादि परिणाम ।
3. निमित - नैमितिक सम्बन्ध = किसी कार्य की सम्पन्नता में सहयोगी कारण एवं उस कारण से उत्पन्न हुआ कार्य। जैसे-कुम्भकार रूप कारण के निमित्त से उत्पन्न घट रूप नैमितिक कार्य।
4. शाश्वत = जो कभी नष्ट न हो ।
5. भास्वत = प्रकाशमान ।
6. द्रव्यार्थिक नय = द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, ऐसा कथन, वचन।
7. द्रव्य = जो पहले थी, अभी है, आगे भी रहेगी, ऐसी त्रिकालवर्ती वस्तु द्रव्य कहलाती है।
8. पर्याय = जो प्रतिसमय उत्पन्न हो और नष्ट हो, उसे पर्याय कहते हैं।