लेखनी लिखती है कि-
मोक्ष की भी इच्छा होती है जब तक
तब तक मोक्ष मिलता नहीं
गुरु से दूरियाँ हैं जब तक
संसार का मोह मिटता नहीं;
क्योंकि माँ की गोद ही होती है
बालक की सारी दुनिया
गुरु की नि:स्वार्थ स्नेह वर्षण से
महकती है शिष्य की ज्ञान बगिया।
ज्यों माँ के अंक में
बालक नि:शंक निर्भय हो सोता,
त्यों गुरु-शरण में आ
शिष्य को भव भ्रमण का भय नहीं होता।
गुरु को अपना बनाने
किसी वस्तु के उपहार की जरूरत नहीं,
माँ को मनाने के लिए
अलग से कुछ करने की जरूरत नहीं,
अश्रुधार बहाते ही
लगा लेती माँ सीने से,
गल्तियों का प्रायश्चित लेते ही
गुरु कर देते माफ उसे;
क्योंकि गुरु का कहना है कि-
स्व को साफ रखो
पर को माफ करो
फिर परम प्रभु को याद करो।
यह सूत्र पहले वह स्वयं जीवन में लाते हैं
तदुपरांत शिष्य को समझाते हैं
ऐसे गुरु के लिए
अब कहीं नहीं जाना है
जग हितकारी गुरुवर श्रीविद्यासागरजी के
चरणों में ही जीवन बिताना है।