लेखनी लिखती है कि-
बहती हुई पुरवैया से
सुनना चाहे यदि सरगम,
बहते हुए झरनों से
करना चाहे यदि देह निर्मल,
उगते हुए सूरज से
पाना चाहे यदि प्रकाश,
तो प्राप्त कर ही सकता है
बदले में प्रकृति को
कुछ नहीं मिलता है।
फिर भी प्रकृति देना कम नहीं करती
वह तो सदा देती ही रहती
बस हो लेने की योग्यता
इसी भाँति जिससे गुरु की हो प्रभावना
शिष्य में मात्र यही हो भावना
तो वह सब कुछ पा लेता है
जो उसे पाना था,
उस तत्त्व को जान लेता है
जो उसे जानना था,
यदि है आत्म जागरण
गुरु के अनुसार आचरण।
क्योंकि गुरु में है गुणवत्ता
आकर गुरु के समीप
वह जीवन की श्रेष्ठता ही नहीं
एक दिन पा लेता है भगवत्ता
जिसे स्वात्मरुचि के बल पर ही
समझना होता है
अंतर की पिपासा से ही
पाना होता है
यदि पात्र पर ढक्कन लगा हो तो
जल भरता नहीं
पात्र उल्टा हो तो भी
वह रहता है खाली ही।
ज्ञान का सदुपयोग करना ही
सीखने का महत्त्व है
यहाँ विवेकवान विद्याधर का
हो आता स्मरण है
जिनने गुरु श्रीज्ञानसिंधु के चरणों में
किया सर्वस्व समर्पण है।