लेखनी लिखती है कि-
गुरु सिर्फ अर्हत् की चर्चा ही नहीं करते
वरन् अर्हं रूप हो जाने की
चर्या भी करते,
प्रभु से तुझे पथ मिलेगा
यही नहीं पढ़ाते,
अपितु तुझमें भी है प्रभुता
इसे प्रकट करने का
उपाय भी बतलाते।
कहना है उनका कि-
नदी तो बह रही है
झुककर जल तुम्हें ही पीना है,
दिनकर उदित हो चुका है
कपाट खोलकर रोशनी तुम्हें ही लेना है।
यदि बंद रखे द्वार
तो रोशनी मिल न पायेगी,
गले से जल की घूँट न उतारी
तो प्यास बुझ न पायेगी,
शास्ता ने दिखाया जो रास्ता
वही दिखाया है मैंने,
यदि है तुम्हारी आस्था
तो चल पड़ो
मंजिल अवश्य मिलेगी।
तुम्हारा धाम तुम्हें ही पाना है
चलने का काम तुम्हें ही करना है
इस भाँति “अप्प दीपो भव"
सूत्र का दीप जलाते हैं गुरु
अपने तक ही न अटकाकर
निज परमात्मा तक ले जाने का
जरिया बनते हैं गुरु
हर शिष्य में छिपे प्रभुत्व को
जानते हैं गुरु।
कर्मों के कारण है भेद भिन्नता
सिर्फ बाह्य परिवेश में,
किंतु नहीं है असमानता
भीतरी आत्म प्रदेश में
ऐसा ज्ञान देने के कारण ही तो
गुरु भगवंत स्वरूप हैं
चिन्मय चेता, विकारजेता चिद्रूप हैं
ऐसे गुरुवर श्रीविद्यासागरजी सचमुच संतों के भूप हैं।