लेखनी लिखती है कि-
गुरु की परिभाषा शब्दों में कठिन है गूँथना
बहुत मुश्किल है उन्होंने जो लखा
उसे लिपिबद्ध करना
फिर भी कुछ यह संकेत समझना
जो मैंने देखे हैं गुरु में-
सर्वप्रथम वे अपने लिए कुछ माँगते नहीं
सिर्फ देते हैं,
देने पर भी अहं की खाई में गिरते नहीं
वरन् अर्हत् पद के
उन्नत सोपान पर चढ़ते हैं,
वे स्वयं को दाता मानते नहीं
सदा प्रभु के परम पात्र रहते हैं।
अपने ज्ञानादि गुणों का उपयोग
बाह्य प्रभावना के लिए नहीं
करते हैं स्वात्मोपलब्धि के लिए
वे निर्विकल्प रहते निर्विकार
सदा आनंदित रहने के लिए।
अपने शिष्यों को शिक्षा देते हैं
सिर्फ विचारों से नहीं
स्वयं जीवन जीकर,
इसीलिए जीवंतशाला हैं गुरुवर
दैवीय गुणों से संयुत हैं गुरुवर
उनकी शांत मुद्रा में भी उपदेश है
ऐसे श्रीविद्यासागरजी गुरु ही मेरे पूर्णेश हैं।