लेखनी लिखती है कि-
गुरु वे हैं जो
बाह्य जगत् में रहने की कला न सिखायें
वरन् अपने अंतेवासिन् को
अंतर्जगत् की यात्रा करायें
स्वयं शिष्य से रखकर पर्याप्त दूरियाँ
उसे निजात्मा से मिलवा दें
अपना ही आत्मीय कैसे बनना
ऐसी प्रीत की रीत सिखला दें
जिनकी स्मृति करते ही
आशीष का उपहार मिल जाता
जिनकी स्तुति करते ही
हृदय से आनंद रस बरस जाता
जिनकी सन्निधि पाते ही
स्वयं को स्वयं से देख लेता
वे जब भी करें किसी से वार्ता
लगे कि मुझे ही समझा रहे हैं,
वे देखें किसी भी दृश्य को
लगे कि मुझे ही देख रहे हैं,
वे जाने किसी भी ज्ञेय को
लगे कि मेरे ही ज्ञान में समाये हैं।
जिनके साथ औपचारिकता का
न करना पड़े निर्वाह
जीवन में गुरु के आते ही
न लगे कठिन गंतव्य की राह
सही मायने में वही तो हैं गुरु
जो मात्र मार्गदर्शन ही नहीं करते
वरन् बना देते मार्गदर्शक
बेसहारे को देकर सहारा
बना देते औरों का सहायक
ऐसे गुरु हैं श्रीविद्यासागरजी महाराज
भवोदधि तिरने का मानो अनुपम जहाज।