लेखनी लिखती है कि-
गुरु को मानना है आसान
किंतु गुरु की मानना है कठिन;
क्योंकि गुरु को मानने में
आ सकता है प्रसिद्धि का भाव
कि मेरे भी गुरु हैं
नहीं है मेरे जीवन में गुरु का अभाव
गुरु को मानकर भी
वह मानी हो सकता है
लेकिन गुरु की न माने तो
वह ज्ञानी कैसे हो सकता है?
गुरु के देहाकार को नहीं
गुण को जो देखता है,
गुरु की बाह्य प्रसिद्धि को नहीं
स्वयं के समर्पण को जो देखता है,
वह गुरु का नाम जपकर
अपने परिणाम सँभालता है,
मैं गुरु का चेला हूँ बड़ा
यह प्रमाण नहीं देता है।
ऐसा शिष्य ही
अंतरात्मा से निजानंद का
अनुभव करता है
तोड़कर संबंध सर्वजगत् का
स्वयं में संपर्क साधता है।
अहा! अद्भुत क्षण है यह
जिसे मिला यह अवसर धन्य है वह
वास्तव में
गुरु की महिमा लिखी नहीं जाती
श्रीविद्यासागर गुरु की निकटता
बड़भागी को ही मिल पाती।