लेखनी लिखती है कि-
गुरु मध्य दीपक हैं
उनसे उच्च स्थान पर प्रभु हैं
और निम्न स्थान पर शिष्य है
रोशनी उनके दीये की
दोनों तरफा है
अंतर सिर्फ इतना है कि
नीचे शिष्य को रोशन करने के लिए
और ऊपर की तरफ जाती है जब-जब भी लौ
स्वयं में रोशनी भरने के लिए।
यद्यपि गुरु में भी प्रकाश है
पर कहती है उनकी विनम्रवृत्ति कि-
यह सब प्रभु की है दीप्ति
मैं भी पूर्व में तम से घिरा था
ज्यों-ज्यों प्रभु पर किया विश्वास
त्यों-त्यों तम छँट कर
भरता गया मुझमें प्रकाश
अब भी कुछ अपूर्व पाने
उनकी ज्ञान लौ ऊपर उठी रहती है
प्रभु की ओर तकती रहती है,
किंतु शिष्य की श्रद्धा की पवन
जब बहती है
तब गुरु की करुणा के झोंके से
हिलती हुई लौ नीचे चली आती है
शिष्य की आत्मा जितनी-जितनी
गुरु के प्रति नम्रीभूत होती है
पुरवैया उतनी ही बहती रहती है
तब शिष्य के हिये के दीये की बाती
जल उठती है गुरु के प्रज्ञा दीप से
जैसे शिष्य विद्याधर प्रकाशित हुए
गुरु श्रीज्ञानसागरजी के ज्ञानदीप से।