लेखनी लिखती है कि-
गुरु का निखरा हुआ रूप हैं प्रभु
शिष्य का निखरा हुआ रूप हैं गुरु
पत्थर का उन्नत रूप है मूरत
गुरु का उन्नत स्वरूप हैं जिनवर
यद्यपि गुरु ही प्रभु का पूर्व स्वरूप हैं
मंगल घट बिखरी माटी का ही रूप है
लगता दोनों हैं समान
लेकिन कहते हैं गुरु-
कहाँ मैं और कहाँ भगवान्!
कहाँ धरती और कहाँ आसमान?
कली और सुमन कैसे हो सकते हैं समान?
गुरु की यही लघुता
प्रगटाती है पावन प्रभुता
ज्यों मांगलिक घट बनने से पूर्व
माटी को आग खानी पड़ती है
औरों को रोशनी बाँटने से पूर्व
स्वयं को अनल की तपन सहनी पड़ती है
त्यों प्रभु होने से पूर्व गुरु को गहनतम
साधना करनी होती है।
वास्तव में प्रभुता पाने की
कोई मुहूर्त या तिथि नहीं होती
मोक्ष जाने की कोई वीथी नहीं होती
गुरु ही उन्नत होकर बन जाते हैं प्रभु
शिष्य ही आगे जाकर बन जाता है गुरु,
लेकिन पिता को पूर्व में पुत्र होना ही पड़ेगा
गुरु को पूर्व में शिष्य होना ही पड़ेगा
और यह दृश्य
विद्याधर में देखने को मिलेगा
जो बन गए अब विद्याधर से श्रीविद्यासागर
आरती उतारें जिनकी धरा और अंबर।