लेखनी लिखती है कि-
गुरु तो सरोवर की तरह हैं
ज्ञान जल से सराबोर हैं
कभी रहता है सरोवर शांत
तो दिख जाता उसमें आनन
देह की होती है उसमें झलकन,
जब शुद्धोपयोग में मग्न रहते हैं संत
तो विदेह तत्त्व का होता है दर्शन
तब शिष्य भी उन्हें प्रभु-सा मान
कर लेते स्वात्म शक्तियों का ज्ञान,
किंतु जब तरंगायित होता है सरवर
उछलता रहता जल इधर-उधर
तब तट पर बैठा पथिक
जल के शीतल छीटे से आर्द्र हो जाता है
रवि की तपन से राहत पा जाता है।
जब शुभोपयोग में रहते हैं संत
तब भक्तजनों को दर्शाते मोक्षपंथ
भटके पथिकों को मिल जाता मार्ग
छूट जाता है अप्रशस्त राग,
किंतु गुरु से हो जाता प्रशस्त अनुराग।
तब गुरु ही राग का स्वभाव बताते हैं
जब इसके दोष समझ में आते हैं
तब बुझने लगती है राग की आग
अनुभूत होता है वीतराग भाव
वैरागी गुरु ही यहाँ तक ला सकते हैं
शिष्य में वीतराग भाव जगा सकते हैं।
जब विद्याधर बैठे ज्ञानसिंधु के तट पर
उनकी विरागता से अभिभूत होकर
अन्त्र्पुरुषार्थ जगाया ऐसा कि
स्वयं हो गए विशाल शांत सरवर
शुद्धोपयोगी संत गुरुवर
जयवंत रहो सदा धरती तल पर
जब तक हैं रवि शशि तारे गगन पर ।