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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. 12 मार्च 2018 परम पूज्य गुरुदेव, आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का भव्य मंगल प्रवेश आज, डिंडोरी मप्र में अत्यंत भक्ति और उत्साहमय वातावरण में हुआ। अब डिंडोरी में हर दिन होली, हर रात दीवाली सी खुशियां। विहार अपडेट 8 मार्च 2018 Ⓜ ???? Ⓜ सागर- संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का ससंघ मंगल विहार प्रसिद्ध सर्वोदय जैन तीर्थक्षेत्र अमरकंटक से डिंडोरी की ओर 2 बजे हो गया। अमरकंटक से डिंडोरी की दूरी 84 किलोमीटर है। कबीर चौराहा,करंजिया, रूसा, गोरखपुर, सागर टोला, हो करके डिंडोरी पहुंचा जा सकता है जबलपुर से डिंडोरी की दूरी 145 किलोमीटर है जबलपुर से कुंडम शहपुरा होकर के डिंडोरी जाया जा सकता है डिंडोरी में पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव का आयोजन 23 मार्च से 29 मार्च महावीर जयंती तक होगा पंचकल्याणक के प्रतिष्ठाचार्य बाल ब्रहमचारी विनय भैया बंडा होंगे Ⓜ मुकेश जैन ढाना Ⓜ एमड़ी न्यूज़ सागर मंगल विहार संभावित परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार आज दोपहर लगभग 2 बजे हो सकता है, डिंडोरी की ओर। आगामी दिनों में डिंडोरी में होंगे पंचकल्याणक महोत्सव।
  2. शिल्पी पूछता है कि युग निर्माता, आदि ब्रह्मा, आदिनाथ ने जो नीति (व्यवहारिक जीवन, जीने का ढंग, तरीका) मानवों को दी थी वे सब भुला दी गई हैं या नष्ट ही हो गई हैं- "पहला पद वही हो- मान का मनन जो, अगला पद सही हो मान का हनन हो, वह भी आमूल ! भूल न हो!" (पृ. 132) मनुष्य जीवन मिला है, यदि कुछ धर्म पुरुषार्थ करना चाहते हो तो सबसे पहले मान के विषय में चिन्तन करो मान है क्या? इसका परिणाम क्या है? जिस वस्तु को आधार बनाकर मान किया जाता है, वह कब तक स्थिर है? सोचो मान एक कषाय है, मन ही इसका जन्मदाता है, इसका परिणाम नरकादि दुर्गतियों में जा दुख ही पाना है और फिर जिस रूप, धन, परिवार, ज्ञान, बल आदि को लेकर मान किया जाता है वे सब शीघ्र नाशवान, कर्मों के अधीन हैं। भरत चक्रवर्ती, पाण्डव, रावण जैसे बलशाली महापुरुषों को भी पराजय का मुख देखना पड़ा। तथा दूसरे चरण में मान का त्याग हो, वह भी थोड़ा-सा नहीं पूरा का पूरा। इसमें तनिक भी भूल नहीं होनी चाहिए। शिल्पी के मुख से वीर रस की अनुपयोगिता और अनादर सुन माटी के होंठो से फिसलकर, ठहाका मारता हुआ हास्य रस निकला। और शिल्पी से कहता है- वीर रस की उपयोगिता वीर लोग ही जानते हैं इसका अपना एक इतिहास है। तुम इसकी हँसी न करो। जो वीर नहीं, कायर हैं, ऐसे लोगों के इतिहास पर न रोना बनता है और न हँसना। उन्हें जीवन भर कोई सम्मान, आदर नहीं मिलता, यदि उनके ऊपर कभी गुलाल डाली भी जाती है तो जीवित अवस्था में नहीं, मरने के बाद अर्थी पर या तस्वीर पर। (गुलाल के द्वारा विजयी-वीरों का सम्मान किया जाता है) वीर रस - साहित्यिक नौ रसों में एक रस, जिसका स्थायी भाव उत्साह है।
  3. शिल्पी के पैरों से लिपटती हुई माटी की भुजाओं से पैदा होता है वीर रस, और वह पूछता है शिल्पी से कि-मुझे क्यों याद किया, वीरों का आदरणीय, सदियों से दुनिया को शक्ति प्रदाता वीर रस उपस्थित है। तुम भी वीर रस का पान करो, तुम्हारी भी विजय की इच्छा पूर्ण हो, युगवीर, महावीर, अक्षतवीर बनो। वीर रस की बात सुनकर, वीरता के साथ ही शिल्पी का वीर्य (पौरुष, साहस) भी बोलता है कि तुम अहंकार के नशे में बोल रहे हो। वीर रस के विषय में हमारा पक्का विश्वास अटूट श्रद्धान बन चुका है की "वीर रस से तीर का मिलना कभी सम्भव नहीं है और पीर का मिटना त्रिकाल असम्भव !" (पृ.131) वीर रस के प्रयोग से संसार का किनारा मिल नहीं सकता और तीन काल में पीड़ा मिट नहीं सकती। अग्नि का संयोग पाकर उबलता हुआ जल अग्नि बुझाने में फिर भी कारण बन सकता है किन्तु वीर रस को पीने से मानव का खून ही उबलने लगता है, माहौल शान्त होने की अपेक्षा और बिगड़ने लगता है। जीवन में उच्छंखलता (स्वेच्छाचारिता) की अधिकता, दूसरों पर अधिकार चलाने का भाव इसी वीर-रस' का दुष्परिणाम है। वैसे मानव का मान बबूल के ढूंठ की भाँति कड़ा और खड़ा रहता है दूसरों को हीन देखता दिखाता हुआ। मान को थोड़ी-सी ठेस पहुँचते ही वीर रस चिल्लाने लगता है, महापुरुषों की सहनशीलता, नम्रता, परोपकार आदि सदगुणों को भूलकर।
  4. शिल्पी की पिंडरयों से लिपटी माटी में से फूटता है वीररस, माटी की महासत्ता के अधरों से फिसलता हास्य रस, रसातल में उबलता रौद्र रस, भय-महाभय सभी शिल्पी के जीवन में अपनी अनुपयोगिता सुन चुप हो जाते हैं। रौद्र को रुग्ण और भय को भयभीत देख, विस्मय को भी विस्मय (आश्चर्य) होने लगा। इस स्थिति में श्रृंगार का मुख भी सूख गया। शिल्पी की प्रभु से प्रार्थना, भीतरी आयाम (चिन्तन) और श्रृंगार को सम्बोधन, सही श्रृंगार भीतर झांकी। श्रृंगार की कोमलता को अनित्यता का बोध, अर्थ-परमार्थ की समीचीन भूमिका। श्रृंगार ने विदेही बनने हेतु स्वर स्वीकारता की बात कही तब शिल्पी के साफे ने स्वर की नश्वरता बताते हुए उसे भी नकारा। चिन्तन में डूबा शिल्पी सही संगीत का स्वरूप विचारता है। स्वर की नश्वरता और सारहीनता सुन वीभत्स रस ने भी श्रृंगार को नकारा। श्रृंगार की नाक से बहते मल का स्वाद लेती रसना को देख कुपित हो प्रकृति माँ ने श्रृंगार के गालों पर चाटे लगाए सो माँ को अपने कर्तव्य की ओर इंगित किया। प्रकृति माँ की आँखों से रोती हुई करुणा द्वारा रसों को सम्बोधन जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का वृण सुखाओ, ऋण चुकाओ। पुनः गंभीर हो अपने अस्तित्व को मिटाने की प्रभु से प्रार्थना। यह सब सुन बिलखत लेखनी द्वरा विश्व के चलक चलकों की समीक्षा
  5. इधर माटी की मृदुता भी चुप ना रह सकी और चेतन सत्ता का रहस्य खोलती हुई कहती है – चेतन के कारण ही जिन आँखों में काजल के समान करुणता बसी है, सिखा रही है ‘चेतन को जानो - पहचानो'। प्रात:कालीन सूर्य के समान लाल होंठ कह रहे हैं 'सदा समता धारण करो'। गालों की तरुणता कह रही है ‘समुचित बल का प्रयोग करो'। भौंरों के रंग को हरने वाली बालों की कुटिलता सुनाती है, "शरीर का ज्यादा सम्मान मत करो।” "जिन-चरणों में सादर आली चरणाई वह पुलक आई है गुनगुना रही है – पूरा चल कर विश्राम करो..." (प्र. 129) पैरों में जो चलने की शक्ति आई है वह गुनगुनाती है ‘पूरा चलकर ही विश्राम / आराम करो' और सुनो इस चेतन सत्ता का कोई ओर-छोर किनारा भी नहीं है, अनादि अनन्त है। जो भी कुछ तुम्हें बता पाई वह रेत के समुद्र से निकाले गए एक कण के समान, सागर की एक बूंद के समान ही है। वह भी वहीं से ली और वहीं छोड़ दी, यूँ कहती – कहती प्रसन्नचित्त माटी की मृदुता मौन हो जाती है। मृदुता की सीख "पूरा चल कर विश्राम करो" सुनते ही शिल्पी ने चेतन को पुन: और जागृत किया, मन को झकझोर डाला, जिससे शिथिल पड़े तन में भी स्फूर्ति आई, रौदन क्रिया और तेज हो गई। शिल्पी के पैर जांघों तक मिट्टी में डूब गए मिट्टी भी शिल्पी की पिंडरियों में लिपटने लगी, सुगन्ध की प्यासी नागिन, जैसे चन्दन वृक्ष पर लिपटती है।
  6. पुरुष (आत्मा) का पुद्गल पर नहीं किन्तु चेतना (निज ज्ञान-दर्शन) पर नियंत्रण होना चाहिए। चेतन का नियंत्रण इन्द्रिय समूह पर नहीं किन्तु मन पर होना चाहिए। मन का नियंत्रण शरीर पर नहीं किन्तु इन्द्रिय समूह पर होना चाहिए और इन्द्रिय समूह का नियंत्रण, शासन सदा शरीर पर होना चाहिए। फिर भी इतना जरूर ध्यान रखना चाहिए कि शरीर किसी का शासक स्वामी न बने, वह शासित-सेवक ही बने, कारण तन भोग्य है भोक्ता नहीं। भोक्ता तो अनन्त गुणों का स्वामी, संवेदन करने वाला पुरुष ही सब शासकों का शासक हो सकता है अन्य नहीं। भावार्थ यह हुआ कि आत्मा चेतन को, चेतन मन को, मन इन्द्रिय समूह को, इन्द्रिय समूह तन को वश में रखें, किन्तु आत्मा के वश में सब हो तन के वश में कोई नहीं। चेतन की क्रियावती शक्ति जाग्रत हुई, शिल्पी के ओठीं पर मन्द मधुरिम मुस्कान उभर आती है। उपयोग (आत्मा का परिणाम) में परिवर्तन आते ही मन वचन और काय सभी अपने काम में लग गए, चालक से संचालित यन्त्र के समान। शिल्पी का दाहिना पैर कार्य प्रारम्भ करता हुआ धीरे-धीरे माटी पर उतरता है और चाँदनी को तरसती चकवी (एक मादा पक्षी) के समान माटी, शिल्पी चरण का स्वागत करती है और शीघ्रता से उलटती-पलटती वह। शिल्पी के पदों ने अनुभव किया-माटी की मृदुता का स्पर्श, अस्पर्शी प्रभु के स्पर्श को भी पार कर रहा है, असम्भव कार्य संभव-सा लगा। माटी की मृदुता के समक्ष मखमल के समान कोमल मार्दव का मान भी फीका पड़ गया। कोमल कोंपलों की मुलायमता भी कहीं खो गई। 1. गुणी = जो गुण को धारण करें। पुरुष है गुणी तो चेतन उसका गुण है। जो सुख-दु:ख का अनुभव करे, सो चेतन है। 2. अस्पर्शी = जिसे छुआ न जा सके
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