अहिंसा (किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुँचाना) ही हमारी पूजा के योग्य परमात्मा है। जहाँ गांठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही हिंसा सम्बन्धी पाप लगता है। अर्थ यह हुआ कि गांठ (परिग्रह) ही, हिंसा रूपी पाप को जन्म देने वाली है।
"निग्रन्थ-दशा में ही
अहिंसा पलती है,
पल-पल पनपती,
.....बल पाती है।" (पृ. 64)
जहाँ पर परिग्रह का पूर्णत: त्याग होता है ऐसी निग्रन्थ, दिगम्बर स्थिति में ही सही-सही अहिंसा का पालन होता है और निग्रन्थता की शरण में ही अहिंसा प्रतिक्षण विकसित हो, सम्मान पाती है ।
हम ऐसे ही निग्रन्थ पन्थ के पथिक हैं। हमारे यहाँ सदा इसी पन्थ की बातें, इसी की पूजा और इसी की प्रशंसा चलती रहती है। हम सदा प्रभु से यही भावना भाते हैं कि-यह जीवन आगे भी इसी प्रकार चलता रहे बस! और कोई लौकिक चाह (संसार सम्बन्धी चाह) नहीं है।
तुमने जो कठिन-कठोर गांठ बाँध रखी थी, यदि उसे खोला नहीं जाता तो पानी से भरी बाल्टी को जब ऊपर खींचा जाता तब गांठ गिरी में आ फंसती, जिससे बाल्टी का संतुलन बिगड़ जाता एवं बाल्टी का पानी उछलकर नीचे कूप में जा गिरता और गिरते हुए पानी की चोट से कूप में रहने वाले छोटे-बड़े अनेक जलचर जीव अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होते। उनकी हिंसा से उत्पन्न दोष के स्वामी, मेरे स्वामी शिल्पी जी कैसे बन सकते थे? इसीलिए गांठ का खोलना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य था, समझीं बात ओ री रस्सी ! पगली कहीं की, मेरी सहेली ।