लेखनी लिखती है कि-
गुरु को तन का समर्पण नहीं
धन का भी अर्पण नहीं
वचन से स्तुति प्रशंसा भी नहीं
चाहिए निर्मल मन का समर्पण,
यदि देना ही चाहते गुरु को
तो देना है निश्छल मन।
यद्यपि गुरु तो कुछ चाहते नहीं
लेकिन शिष्य चाहता यदि बोधामृत
तो विषय भोगों का जहर पीये नहीं
पाना चाहता है गुरु चरणों में स्थान
तो हृदय में प्रभु के सिवा किसी को बिठाये नहीं।
यदि मन पर राज करेगी बुद्धि
तो तर्क को उठाती रहेगी
तब श्रद्धा वहाँ से छूमंतर होकर
ठहर नहीं पायेगी
इसीलिए सर्वप्रथम गुरु निकट जाकर
अपने मन को टटोले?
कहीं बाहर का सब कुछ देकर
मन की इच्छाओं को अपने ही पास रखकर
कहने को तो नहीं रह गये शिष्य खोखले?
इसमें शिष्य स्वयं से ही छला जायेगा
अनेक महत्त्वाकांक्षाओं से भर जायेगा
अरे! गुरु का काम नहीं है शिष्य को पकड़कर सुधारना
बल्कि जो आये विनम्र होकर शरण में
उनकी ज्ञान पिपासा शांत करना।
प्रशंसनीय हैं ऐसे गुरु विद्या के भंडार
खाली झोली लेकर आता शरणागत
दे देते उसे ज्ञान का अपूर्व उपहार।