उलझी रस्सी सुलझ गई है, गांठ भी खुल गई है। अब कूप से निकालने हेतु कुँए के पाट (तट) पर खड़े हो, बाल्टी हाथ में ले शिल्पी कूप की ओर थोड़ा झुकता है कि, शीतल-शान्त एवं विकसित बुद्धि वाले शिल्पी के शरीर की परछाई गहरे कुएँ के स्वच्छ जल में तैरती हुई मछली के ऊपर पड़ती है। मछली का मुख ऊपर हुआ और उसके मन में ऊपर धरा पर जाने का विचार उत्पन्न हुआ किन्तु ऊपर शिल्पी के पास तक मैं, मेरी काया कैसे उठ सकती है, क्योंकि काया जड़ क्रिया-शून्य, पौद्गलिक है उसे चेतन जीव का सहारा आपेक्षित है। यही चिन्ता मछली को सता रही है।
काया (शरीर) से ही सारा संसार बसा है, काया छूट जाए तो परमात्म दशा (सिद्ध अवस्था) प्राप्त हो जाए। संसार के झूठे आकर्षण में ही लीन, उसी से प्रभावित मेरी बुद्धि हो गई है।
"मति सन्मति हो सकती है
माया उपेक्षित हो...तो... "(पृ. 67)
बिद्धि सद्बुद्धि हो सकती है यदि संसार से वैराग्य’ हो तो। इधर अन्धकूप में पड़े-पड़े क्रोध, मान आदि कुत्सित (निन्दित, बुरे) भावों के अनुभव से, कूपमण्डूक सी संकुचित विचारधारा हो गई है मेरी। गति, मति और दशा सब कुछ तो बिगड़ी है फिर मुझे निज रूप-स्वरूप का ज्ञान कैसे हो? ऊपर से भेजी प्रकाश / सम्यग्ज्ञान की एक किरण भी तो मुझ तक नहीं आती और मछली के मुख से दीनता घुली ध्वनि निकल पड़ी कि - कोई इसे इस अंधकूप से निकालो और परमात्म स्वरूप में मिला दो।
मेरे इस रुदन को कोई सुनता भी नहीं, अरे कान वालों सब बहरे हो गए हों क्या? जब कोई प्रति आवाज नहीं आई, सहारे का संकेत भी नहीं मिला तो, मेरा यह रोना जंगल में रोने के समान ही निष्फल रहा, यूँ विचार कर पुनः विकल्पों में डूबती जाती है मछली। विकल्पों में उलझते हुए भी उसके मन में एक आशा की किरण जगी और लगा कि निस्सार विकल्पों में उलझने से कुछ लाभ होने वाला नहीं अब तो दृढ़ता के साथ कुछ पुरुषार्थ करना ही होगा, पुरुषार्थ करते हुए भले ही कटुता की अनुभूति हो। इस प्रकार चिरकाल से कार्य करने की क्षमता, दृढ़ संकल्प के रूप में परिवर्तित होती है। मछली सोचती है अब कुछ भी हो, कैसा भी साधन मिले ऊपर धरती पर जाना है अवश्य।