लेखनी लिखती है कि-
छोटे से छोटे कार्य को सीखने
आवश्यक होता है गुरु
तो फिर करने परमात्मा का साक्षात्कार
क्यों नहीं चाहिए गुरु;
क्योंकि गुरु ही
उजड़े चमन को मधुवन बनाते हैं
अंधकार से उजाले में लाते हैं
पतित से पावन बनाते हैं।
गुरु वही हैं जो
कराते हैं आध्यात्मिक जगत् में पदार्पण,
लोहे को स्वर्ण में ही नहीं
पारस रूप में कर देते हैं रूपांतरण।
जो शरणागत को परमार्थ के लिए
नि:स्वार्थ करते हैं मदद,
बदलकर जीवन को
बदले में कभी करते नहीं हैं मद।
इसीलिए
जितना प्राचीन है मानव का इतिहास
उतना ही पुराना है गुरु शब्द का राज
भले ही आज अर्थ की चकाचौंध में
गुरु शब्द के अर्थ को बदल दे
पर गुरु के सद्स्वभाव को
कालचक्र बदलने पर भी
बदल नहीं सकते,
गुरु जो कह देते वचन
वह कभी टल नहीं सकते।
सच, गुरु में प्रभु की छवि है
जो गुरु श्रीविद्यासागरजी में मैंने पाई है,
इस पंचमकाल में भी चतुर्थकाल-सी चर्या कर
जिनशासन की महिमा बढ़ाई है।