लेखनी लिखती है कि-
लौकिक आत्मीय जन
घर परिवार की पहचान कराके
घर बसाना सिखाते हैं
अपनों से घुल मिलकर
जीना सिखाते हैं
जड़ अक्षरों की पहचान कराते हैं
आँखें खोलकर दुनिया का परिचय कराते हैं,
पर सद्गुरु निज गुणों की पहचान कराके
निजगृह रहना सिखाते हैं
अपने में ही रहकर
पर से भेदज्ञान कराते हैं
अक्षर अविनाशी सुख का पथ दिखाते हैं
आँखें मूंदकर भीतरी जगत् का
अनुपम दृश्य दिखाते हैं।
जहाँ कभी पहुँचा नहीं शिष्य
वहाँ अपने दिव्य प्रकाश से ले जाते हैं
शिष्य के लिए दीया जलाकर
स्वयं अदृश्य हो जाते हैं ,
शिष्य को स्वयं के समीप लाकर
उसे अपनी अव्यक्त शक्तियों से मिलाते हैं।
स्वार्थी जगत् खींचता है जब अपनी ओर
तब वे सही अपनत्व का बोध कराते हैं
मतलबी भक्तों से छुड़ाते हैं
सिर्फ चलना ही नहीं स्वयं अस्थिर रहकर
शिष्य को स्थिर होना भी सिखाते हैं
स्वयं बोलकर शिष्य को
मौन के झरने में नहलाते हैं।
यह है अलौकिक गुरु की अलौकिक महिमा
जहाँ लेखनी भी स्थिर हो जाती है
आचार्य श्रीविद्यासागरजी जैसे गुरु पर लिखने
चाहे विशिष्ट ज्ञानधर ही क्यों न हो
मति थाह नहीं पाती है।