शिल्पी के मुख में बैठी-बैठी रसना (जीभ) भी सब घटना को देख रही है, अत: कुपित हो उत्तेजना भरे स्वर में बोल उठी रस्सी से कि-ओ री रस्सी ! तेरी और मेरी एक ही नाम राशि है, परन्तु क्या बात है आज तू रस-सी नहीं किन्तु कोरी नीरस-सी लग रही है। अभी तक तो दादी-दीदी के समान सबका भला करने वाली सीधी-सादी-सी मानी जाती थी किन्तु अब तू सरल नहीं रही, कसी गांठ पाल रखी, घनी हठीली बनी है। मेरी बात मान हठ को छोड़ गांठ को ढीली कर दे, वरना कुछ ही समय बाद जब तेरा यह अविभाज्य जीवन दो भागों में विभाजित होगा तब तुझे पश्चाताप ही करना पड़ेगा। और इस निन्द्य कार्य के प्रति छी-छी, थु-थू करती रसना गांठ के सन्धि स्थल पर लार टपका देती है परिणाम यह निकला कि रस्सी अपने भयावह भविष्य को देख हिल उठी और कुछ ही क्षणों में गीली गांठ, नरम हो ढीली पड़ गई। फिर क्या पूछना! दाँतों में उत्तेजना आई और ऊपर नीचे, सामने के सभी दाँत मिलकर गांठ खोल देते हैं।
रस्सी की गांठ खुलने पर रस्सी जिज्ञासा का भाव ले पूछती है रसना से कि आपके स्वामी को मुझ गांठ से क्या बाधा थी? जो खोलने हेतु इतना पुरुषार्थ किया गया, डराया-धमकाया गया। सो रसना कहती है रस्सी से कि –सुन री रस्सी! क्या तुझे पता नहीं कि मेरे स्वामी शिल्पी जी पाप से दूर रहने वाले, इन्द्रियों को वश में रखने वाले संयमी हैं। वे सदा हिंसा से डरते हैं, अहिंसा ही उनका जीवन है, उनका कहना है कि संयम के अभाव में आदमी, आदमी नहीं है यानि
"वही आदमी है
जो यथा–योग्य
सही आ.....दमी है।" (पृ. 64)
जो शक्ति के अनुसार आ-सब ओर से, दमी-इन्द्रियों का दमन करने वाला, उन्हें वश में रखने वाला हो वही सही आदमी है।