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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 31. संकल्पिता की : एक सहेली

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    मात्र खड़ी है वह संकल्पिता मछली साथ में है उसकी एक सहेली। वह अपनी सहेली से कहती है

     

    "चल री चल...!

    इसी की शरण लें हम।

    "धम्मो दया–विसुद्धो"

    यही एक मात्र है

    अशरणों की शरणा!

    महा-आयतन है यह

    यहीं हमारा जतन है" (पृ. 71)

     

    चल-चल हम इस विमान की शरण लें, यह ही एक मात्र अशरणों के लिए शरण है महा-आयतन, बोध-गृह। यहीं पर हमारा भविष्य सुरक्षित रह सकता है। वरना आज नहीं तो कल निश्चित ही हमें भी मृत्यु के मुख में प्रवेश करना होगा और तू यह नहीं जानती क्या? यहाँ बड़ी मछली, छोटी-छोटी मछलियों को साबुत, सीधे ही निगल जाती है। साधर्मी और समान जाति वालों में ही ज्यादा बैर-भाव देखा जाता है, कुत्ता-कुत्ते को देखते ही नाखूनों से जमीन खोदता हुआ भौंकता है बुरी-तरह।

     

    यह सुनकर सहेली मछली कहती है अरे सखी! किसी दृष्टिकोण से, कुछ हद तक तुम्हारी बात सही है परन्तु इतना भी तो सोचो, यदि हमारे भक्षण से अपनी ही जाति पुष्ट, संपुष्ट हो तो वह हमारे लिए ठीक ही है। क्योंकि अन्त समय में अपनी ही जाति के लोग काम आते हैं और तो सब दर्शक बने देखते रहते हैं। फिर जिसे तुम शरण मान रही हो, उस विजाति व्यक्तित्व का कैसे विश्वास किया जाए? क्योंकि आज तो सामने-सामने ही, प्रतिपल विश्वास टूटता देखा जा रहा है। बाहर जैसा लिखा हो वैसा ही असली माल मिल जाए तो फिर कहना ही क्या? यहाँ तो बगुला जैसे मायाचार का खेल चल रहा है। मुँह में राम-नाम का जाप होता है और बाजू में चाकू छुपा कर दूसरों का घात करने की बात मन में चलती रहती है।

     

    जीवन में सही-सही दया का भाव होना और दया की बात करना दोनों पृथक्-पृथक् है। दया होने में जीवन है और दया की बात करने में केवल दया का नाटक है। अब तो अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों और कृपाणों (तलवारों) पर भी दया धर्म का मूल है लिखा मिलता है किन्तु-

     

    "कृपाण कृपालु नहीं हैं

    वे स्वयं कहते हैं

    हम हैं कृपाण

    हम में कृपा न!" (पृ. 73 )

     

    देखो कृपाण शब्द स्वयं कह रहा है— हममें दया नहीं है, हम कृपालु नहीं है। आगे कहाँ तक सुनाऊँ तुम्हें-निजी स्वार्थ के लिए, समय पड़ने पर धर्म का झण्डा भी लड़ने का डण्डा बन जाता है, परोपकार करने वाला धर्म शास्त्र भी लड़ाई का शस्त्र बन जाता है। सदा प्रभु भक्ति में लीन रहने वाली सुरीली बांसुरी भी बांस बन प्रभु भक्तों को पीट सकती है। क्या कहें! समय ही ऐसा चल रहा है, कलियुग है।


    विशेष : उपरोक्त प्रसंग में कवि ने वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ते हुए, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, व्यक्ति की बिगड़ती हुई मनोदशा का हृदय स्पर्शी वर्णन किया है, धर्म की आड़ में, स्वार्थ सिद्धि करने वाले व्यक्तियों को भी यहाँ चपेट में लिया गया है।

     

    1 कर्म = सुख-दुख में कारणभूत पुद्गल स्कन्धों का पिण्ड।

    2 रसनाधीना = जीभ के वश में रहने वाली।

    3 रसलोलुपा = खट्टा-मीठा आदि रसों की इच्छा/चाह रखने वाली।

    4 संकल्पिता = जिसने ऊपर धरती पर जाने का संकल्प किया है।



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