लेखनी लिखती है कि-
गुरु दो प्रकार के होते हैं
व्यवहार नयाश्रित गुरु
और निश्चय नयाश्रित गुरु,
भक्ति से पाता है बाह्य गुरु
ध्यान से मिल जाता है निश्चय गुरु।
यद्यपि निश्चय गुरु
स्वयं का ही विवेक ज्ञान है
पर निश्चय गुरु की प्राप्ति में
बाह्य गुरु का ही अवदान है।
ऐसे गुरु के प्रति प्रीत
राग नहीं भक्ति कहलाती है,
स्वातम के प्रति प्रीत
संसार नहीं मुक्ति दिलाती है।
यदि गुरु की प्रीत भी अच्छी लगे
जगत् की झूठी रीत भी अच्छी लगे
तो गुरु भक्त की भक्ति पर
प्रश्नचिह्न लगता है
उसे आत्म स्वरूप के साथ
देह रूप भी अच्छा लगता है
गुरु के विराग भाव के साथ
अपना अहं भाव भी अच्छा लगता है,
गुरु- स्तुति के साथ
पर निंदा में भी रस आता है
औषध सेवन के साथ
कुपथ्य भी छोड़ नहीं पाता है।
सच यही है कि -
अगर गुरु के गुणों का आकर्षण है
तो विकारी भावों से घृणा होगी,
गुरु के विचारों का आदर है
तो व्यसनों से विरक्ति होगी,
गुरु के आचरण से लगाव है
तो दुराचरण से नफरत होगी।
जैसे गुरु श्री ज्ञानसागर जी से होकर प्रभावित
विद्याधर ने ममता को त्याग दिया
फिर समता रथ में बैठकर
अपने को अपने में पा लिया।