इससे यही समझ आता है कि बर्फ को बाहर से छूने पर भले ही ठण्डा लगता है, किन्तु बर्फ में भीतर से ठण्डापन नहीं ज्वलनशीलता ही उत्पन्न होती है। अन्यथा जिसे बहुत जोरों की प्यास लगी हो, गला सूख रहा हो, आँखों में जलन हो रही हो, ऐसा व्यक्ति पीड़ा से जल्दी-जल्दी छुटकारा पाने जल पीने की बजाय बर्फ की डली खा लेता है, परिणाम स्वरूप उसकी प्यास बुझना तो दूर उल्टी कसकर प्यास और बढ़ जाती है, नाक बहने लगती है क्यों? यही परिणति तो विभाव दशा की सफलता और स्वभाव दशा की असफलता है।
इतना होने पर भी सागरीय जल-सत्ता जो माँ के समान है, बर्फ की शिला को डुबोती नहीं इसमें क्या रहस्य है? लगता है अपनी संतान के प्रति माँ की ममता का परिणाम है यह। चुपचाप सब कुछ कष्ट सहन करती हुई भी अपने वंश-अंश (संतान) के प्रति भूलकर भी ऐसा कदम नहीं उठा सकती।
माटी की बात सुनकर कंकरों की ओर से व्यंग्यात्मक तरंग आई कि हम मानते हैं कि अपने आपको सबसे अलग दिखाने की भावना का उत्पन्न होना मान कषाय का ही प्रतिफल है, किन्तु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मान का अत्यन्त कम होना, सूक्ष्म होना मान का समाप्त होना-सा लगता है किन्तु वह सूक्ष्म मान भी भावी बहुमान के लिए बीज वपन के समान हो सकता है। कंकरों की ओर से निकली तरंग संग की संगति से दूर माटी के शरीर को ही नहीं सीधे जाकर उसके मन को छूती है। इधर तुरन्त ही कंकरों को लगा कि हमने गलत विचार किया और वे कह पड़े कि नहीं-नहीं हमारा अनुचित साहस हुआ, हमारी भूल के लिए क्षमा करें माँ, यह प्रसंग आपके विषय में घटित नहीं होता कहता हुआ कंकरों का दल रो पड़ा और माटी से प्रार्थना करता है-हे माँ माटी! हमें एक मन्त्र दो जिससे यह जीवन हीरे के समान बहुमूल्य और कंचन यानि स्वर्ण जैसा विशुद्ध बन सके।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव