लेखनी लिखती है कि-
सशिष्य यदि बनना है तो
गुरु के समक्ष पैर पसारना नहीं
गुरु की आज्ञा नकारना नहीं
गुरु के आसन पर भूलकर भी बैठना नहीं
गुरु निंदक को मीत बनाना नहीं
अंतर के दोषों को गुरु से छिपाना नहीं
अपनी महाभारत उन्हें सुनाना नहीं
गुरु से कभी तुच्छ चीज माँगना नहीं।
उत्तम शिष्य वही जो बिना कहे कार्य पूर्ण कर दे
मध्यम वहीं जो कहने पर कर दे
अधम हैं वे जो कहने पर भी न करें
वैसे सद्गुरु कुछ कराते नहीं
कर्तृत्व भाव को मिटाते हैं,
कुछ देते नहीं
किंतु पर स्वामित्व भाव नशाते हैं,
अपना बनाते नहीं
पर ममत्व भाव हटाते हैं।
शिष्य कोई भी साधना गुरु से छिपकर नहीं करता
प्रत्येक शुभ कार्य में गुरु का स्मरण करता
गुरु के पास खाली हाथ नहीं जाता
समय-समय पर गुरु का दर्शन पाता
गुरु के आदर्शों का आदर करता
अपना नहीं गुरु नाम का प्रचार करता
तब कहीं शिष्यत्व सार्थक होता।
ज्यों किया है सार्थक शिष्यत्व श्रीविद्यासिंधु ने
गुरु श्रीज्ञानसिंधु के इशारे पर चलके
जैसा लिखा आगम में वैसा ही लखके।