Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में श्रावकाचार की कक्षा में श्रावक को किस प्रकार से आजीविका चलाना चाहिए। गुरूदेव ने बतलाते हुये कहा कि आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज जी ने बताया था कि एक सेठजी थे वे अहिंसा धर्म में बड़ी ही निष्ठा रखते थे | उन्होंने अपने पुत्र से कह दिया था कि तुम कपड़े की दुकान खोल सकते हो, लेकिन कपड़े की फैक्ट्री (मिल) नहीं खोल सकते क्योंकि उसमें हिंसा होती है। और सोने, चाँदी, हीरे, जवाहरात की दुकान खोल सकते हो लेकिन खदान में ठेका नहीं ले सकते क्योंकि उसमें हिंसा अधिक होती है। हमें हिंसा से बचना चाहिए। मूल उद्देश्य हिंसा से बचने का होना चाहिए। अनर्थ से धन कमाना ठीक नहीं। परमार्थ के साथ अर्थ का उपार्जन करना चाहिए। प्रत्येक श्रावक को सात्विक धंधा अपनाना चाहिए।
  2. यह उन दिनों की बात है जब गर्मी अच्छी पड़ रही थी, 3-5-2002 को सुबह इटावा की ओर विहार करते हुये जा रहे थे, आचार्य गुरूदेव से कहा - कल राजस्थान के श्रावकगण दर्शनार्थ आये थे, राजस्थान चलने का निवेदन भी कर रहे थे, तभी मैंने पूछा - आचार्य श्री राजस्थान में भी क्या ऐसी ही गर्मी पड़ती है? आचार्य महाराज ने कहा- नहीं वहाँ, यहाँ जैसी गर्मी नहीं पड़ती, यहाँ तो बहुत गर्मी है। भैया - सागर, जबलपुर, ललितपुर पूरे बुन्देलखण्ड में सर्दी गर्मी दोनों ज्यादा पड़ती हैं और यही हमारा केन्द्र है। तो हमने कहा हाँ आचार्य श्री आपका तो "बुन्देलखण्ड केन्द्रीय कार्यालय" है। आचार्य श्री बोले - हाँ और इस (बुन्देलखण्ड) को हम छोड़ नहीं सकते क्योंकि यहाँ हमारी दुकान अच्छी चलती है, संयम रतन खरीदने वाले यहीं मिलते हैं।
  3. एक बार एक सज्जन आचार्य गुरूदेव के दर्शन करके उनके समीप बैठ गये और गुरूदेव से निवेदन किया कि मुझे ऐसा कोई सूत्र दीजिए जिसके माध्यम से मैं स्व और पर के हित में कुछ कर सकूँ | आचार्य गुरूदेव ने कहा - क्या करना है यह नहीं बल्कि क्या नहीं करना है यह देख लो। क्योंकि कुछ करने में पुरूषार्थ की आवश्यकता होती है और कुछ न करने में पुरूषार्थ नहीं करना पड़ता। सज्जन बोले आचार्य श्री आप ही बता दीजिए क्या नहीं करना चाहिए। आचार्य श्री बोले - “जीवन में अभिमान मत करना। यह सुनकर सज्जन आश्चर्य भरे शब्दों में बोले - यह पालन करना तो बहुत बड़ा पहाड़ जैसा है यदि यह सूत्र पालन हो गया तो मुक्ति मिलने में देर नहीं लगेगी। आचार्य श्री बोले - सुनो! मन में भीतर से रूचि हो तो फिर कोई भी कार्य कठिन नहीं होता। अहं (मैं) तक ही सीमित रहो। अहंकार मत करो, क्योंकि विनय को मोक्ष मार्ग में उपकरण के रूप में स्वीकारा है। विनयवान बनो।
  4. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी ने आज पड़रिया ग्राम में प्रवचन देते हुये कहा कि- जबलपुर के आसपास बायपास रोड भी है | आगामी संभावित दिशा- कही ये दिशा टीकमगढ़ की ओर तो नही? गुरुवर के मन की बात तो केवल गुरुवर ही जानें। क्या कहती हैं आपकी भावना - क्या कहता हैं आपका मन क्या कहता हैं आपका अनुमान ?
  5. आचार्य गुरूदेव ने ज्ञानी-अज्ञानी की परिभाषा बताते हुए कहा कि - एक सज्जन ने आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- ज्ञानी-अज्ञानी की परिभाषा क्या है? आचार्य महाराज बोले आपने श्रीफल चढ़ाया हमने देखा यह श्रीफल है, यही ज्ञानीपन है और यदि यह देखकर अन्यथा भाव आया। इन्होंने श्रीफल हमको ही चढ़ाया है, अन्य किसी को नहीं चढ़ाया है तो यह विकल्प आना अज्ञानीपना हो गया और किसी अन्य सांसारिक स्वार्थ के लिए चढ़ाया है तो यह श्रावक का अज्ञान हो गया। बस यही ज्ञानी-अज्ञानी की छोटी सी परिभाषा है।
  6. गौरझामर से पटना बुजुर्ग की ओर विहार कर रहे थे। कच्चा रास्ता था एक सज्जन से पूछा भैया यहाँ से अब कितना और चलना है। उन्होंने कहा बस महाराज जी एक फलांग और, तब आचार्य श्री जी हँसकर बोले हाँ इनका फलांग तो फोर लॉग (चार गुना) होता है। ये श्रावकगण लोभ के वश अपने गाँव ले जाने के लिए दूरी कम बता देते हैं। इन पर एकदम विश्वास मत किया करो। धूल बहुत थी रास्ता कच्चा था चलने में परेशानी हो रही थी। इससे यह शिक्षा मिलती है कि श्रावक को निर्लोभ होकर साधुओं को सही-सही रास्ता एवं रास्ते की दूरी ज्ञात कराना चाहिए।
  7. यह बात 07-09-2004 मंगलवार की है जब द्रव्यसंग्रह ग्रंथ की वाचना में किसी श्रावक ने आचार्य श्री जी के समक्ष जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा कि - हे गुरूदेव! आप जिन साधकों, मुनिराज, आर्यिका माताजी को बहुत दूर चातुर्मास आदि करने के लिए भेज देते हैं। वे आपको हर क्षण याद करते हैं, आपको सम्प्रेषण तो होता होगा ? (सभी लोग हँस पड़े) इस जिज्ञासा को सुनकर आचार्य गुरूदेव ने कहा - जिनके साथ गुरु व जिनवाणी की आज्ञा की डोर लगी हुई है तो वह आज्ञा की डोर ही सम्प्रेषण है फिर अन्य किसी सम्प्रेषण की बात ही नहीं है। आज्ञा पालना ही गुरु के पास में रहने का माध्यम है, बिना आज्ञा के पास में भी रहो तो दूर ही समझे जाओगे फिर पास में नाम मात्र का रहना होगा। जैसे बिजली के खम्बे आपके घर के सामने हैं फिर भी उससे आपके घर में कनेक्शन (संबंध) नहीं है तो घर में प्रकाश नहीं आवेगा और यदि बिजली का खम्बा आपके घर से बहुत दूर है कनेक्शन (संबंध) लेने से लाइट (प्रकाश) प्राप्त हो जाती है वैसे ही आज्ञा की डोर ही गुरु के पास रहने का माध्यम है। भौतिक दूरी कोई मायना नहीं रखती, भावों से काम चलता रहता है। भक्त और भगवान की भौतिक दूरी होय। भावों से कब दूर हों हमेशा पास होय।। आचार्य श्री ने लिखा भी है - ईश दूर पर मैं सुखी, आस्था लिये अभंग। ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग।।
  8. यह उस समय की बात है जब किसी दुःखित प्रसंग की चर्चा चल रही थी। आचार्य श्री ने बताया कि लोग हमारे पास आते हैं और कहते हैं। महाराज हम बहुत दुःखी हैं ऐसा आशीर्वाद दो ताकि हमारा सारा दुःख दूर हो जाये, इसके बारे में आचार्य ज्ञान सागर ही कहते थे कि - यह कौन सा काल है ? पंचमकाल है तो पंचमकाल पर आपको विश्वास है यदि विश्वास है, यदि है तो बतलाइये इसका क्या नाम है? दुःखमाकाल। फिर भैया दुःख ही मिलेगा सुख नहीं। इसलिए इसे कर्म का उदय समझकर सहन करना चाहिए और कर्म काटना चाहिए ताकि आगे दुःख ना मिले। वरना आगे दुःखमा-दुःखमा काल मिलेगा| उस काल में तो प्रवचन भी नहीं सुन सकते, श्रद्धाने मजबूत करने के लिए दुःखमा काल तो वरदान सिद्ध होता है।
  9. रत्नकरण्डक-श्रावकाचार की कक्षा में रात्रि भोजन त्याग का व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री ने बताया कि पहले जैनी लोग राज दरबार में कोषाध्यक्ष जैसे बड़े-बड़े विश्वस्त पदों पर नियुक्त किये जाते थे| उन जैनी भाईयों को सारे राज्य में विश्वस्त एवं ईमानदार माना जाता था और रात्रि होने से पूर्व ही उन्हें राज्यसभा से छुट्टी मिल जाती थी, क्योंकि उनका रात्रि भोजन का संकल्पपूर्वक त्याग रहता था। इसलिए राजा भी उनकी धर्म, नियम के प्रति निष्ठा देखकर उन नियमों को पालन करने में उनका सहयोग देते थे। पहले जैनियों के संकल्प के प्रति इतनी आस्था और निष्ठा रहती थी, लेकिन बड़े दुःख की बात है कि आज जैनी भाई स्वयं कह देते हैं कि मुझे रात में सब चलता है और यदि रात्रिभोजन त्याग का नियम भी लेते हैं तो बाहर की छूट रखते हैं। यह एक अफसोस की बात है कि आज जैनी स्वयं अपना स्वाभिमान खोते चले जा रहे हैं।
  10. एक दिन कुछ महाराज जी आचार्य श्री जी के पास बैठे हुये थे चर्चा के दौरान आचार्य श्री जी ने कहा कि आचार्यों ने साधु को आत्मा की साधना में लीन रहने को कहा है। साधु को अपना समय व्यर्थ की चर्चा में नहीं खोना चाहिए। जैसे माँ अपने बच्चे को समझाती है कि बेटा तू लडडू, फल, दूध आदि खाया कर लेकिन बच्चा तो बाहर जाकर मिट्टी को ही खाने में लगता है उसी में खेलता है। इमली, बेर जैसे शरीर को नुकसान पहुँचाने वाले पदार्थ ही खाता है। यह सुनकर समीप में ही विराजमान पू. मुनि श्री प्रसाद सागर जी महाराज ने पूछा - आचार्य श्री जी ये बड़े-2 बेर (बनारसी बेर) क्या दक्षिण (सदलगा) में भी मिलते हैं? तब आचार्य गुरूदेव ने कहा - "जैसे दुनिया में हर जगह बैर मिलता है, पाया जाता है वैसे ही हर जगह बेर मिलते हैं।” यह बैर हमेशा दुख देने वाला होता है। इससे भव्यात्माओं को बचना चाहिए।
  11. एक बार की बात है आचार्य भगवंत विहार करते हुये एक नदी के पास से गुजरना हुआ, नदी में नाव चल रही थी। इस दृश्य को देखकर आचार्य महाराज ने कहा देखो नदी में नाव तैर रही है और साथ में जो उसका आलम्बन ले रहे हैं, वे भी नदी से पार हो जाते हैं, लेकिन उसी नदी में भंवरे भी उठती हैं, यदि नाव भंवर में फँस जाती है तो डूब जाती है। ठीक उसी प्रकार साधु संसार रूपी सागर में तैर रहा है। उनका आलम्बन लेने वाले भी डूबने से बच जाते हैं, लेकिन यदि साध भी राग-द्वेष रूपी भंवर में फंस गया तो समझो फिर संसार में डूबे बिना नहीं रह सकता। इसलिए हमें संसार में रहते हुए रागद्वेष से बचना चाहिए। तभी हम संसार से पार हो सकते हैं।
  12. छपारा नगर में पंचकल्याणक के समय की बात है| एक दिन आचार्य गुरूदेव कक्ष में सामायिक में बैठे हुए थे उसी समय कुछ जैनेतर बंधु आये और नमस्कार करते हुये गुरूदेव के श्री चरणों में श्रीफल समर्पित किया, दर्शन करके बहुत हर्षित हुए। साथ ही साथ वे कुछ अपने भावों को एक कागज में लिखकर लाये थे। चूँकि आचार्य श्री जी सामायिक में बैठे हुए थे, सज्जन ने उनके हाथों पर कागज रखा और नमस्कार करके चले गये। सामायिक पूर्ण होने के उपरान्त आचार्य श्री ध्यान मुद्रा से उठे तब सभी महाराज जी वहाँ पहुँचे, वहाँ देखा कि गुरूवर के हाथों पर एक कागज रखा हुआ है। आचार्य श्री जी ने कहा वे यह नहीं जानते कि महाराज सामायिक कर रहे हैं, वे तो मात्र यही जानते हैं कि भक्तिभाव पूर्वक नमस्कार करना चाहिए। एक चरण कमल होते हैं और एक करकमल होते हैं, इसलिये दोनों का उपयोग करके, लाभ उठाकर चले गये।
  13. यह बात उस समय की है जब अतिशय क्षेत्र कोनी जी में धवला जी पुस्तक बारहवीं की वाचना चल रही थी, प्रसंगवशात् आचार्य गुरूदेवसे पूछा - आचार्य श्री जी आदिनाथ जी ने शब्द और अंक विद्या, ब्राह्मी, सुन्दरी दोनों कन्याओं को ही क्यों सिखलायी। पुत्र भरत और बाहुवली जी को क्यों नहीं? तब आचार्य श्री जी ने कहा, क्योंकि बेटियाँ शादी के बाद दूसरे घर चली जाती हैं फिर वे सीख नहीं पायेंगी । बच्चे तो हमेशा पास रहते हैं, इसलिए कभी भी सीख लेंगे।
  14. महावीर जयंती के दिन भोपाल में लाल परेड ग्राऊण्ड से आचार्य श्री के प्रवचन हुये। प्रवचन के उपरान्त आचार्य गुरूदेव चौक मंदिर की ओर विहार करते हुए आ रहे थे तभी किसी श्रावक ने आचार्य श्री जी के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुये नारा लगाया - "चतुर्थ काल की आत्मा” "काया पंचम काल की” यह सुनकर आचार्य गुरूदेव ने लघुता प्रदर्शित करते हुए कहा कि - भैया चतुर्थ काल की आत्मा नहीं अनंतकाल की आत्मा कहो, अनंत काल की। अनंत काल से यह आत्मा संसार में रह रही है।
  15. छपारा नगर में पंचकल्याणक के उपरान्त मंदिर का कलशारोहण होना था। कलशारोहण की सारी सामग्रियाँ जुटा ली गयी थीं। अब कलशारोहण होने जा रहा था वहाँ संघ सहित आचार्य श्री जी उपस्थित थे, वहीं आर्यिका १०५ श्री दृढ़मति माताजी ससंघ विराजमान थीं। प्रतिष्ठाचार्य ब्र0 विनय भैयाजी बण्डा वाले थे जो कि विधिवत् कलशारोहण करा रहे थे, कलश में कुछ गड़बड़ी होने से कलश व्यवस्थित नहीं बैठ रहा था, तब आचार्य गुरूदेव ने कहा आयोजकों को पहले से ही सावधानी रखना चाहिए जैसे बच्चे परीक्षा देने जाते हैं तो पूर्ण सावधानी और तैयारी के साथ जाते हैं सावधानी के साथ किया। गया कार्य ही समय पर सानंद सम्पन्न होता है।
  16. जिस प्रकार नदी पार करने के लिए नाव की आवश्यकता होती है उसी प्रकार संसार सागर से पार होने के लिए गुरु रूपी नाव की आवश्यकता होती है, गुरु को स्वीकार किये बिना आज तक किसी को मुक्ति नहीं मिली है। गुरुतत्व के माध्यम से ही हमारे आत्मा के रहस्यों का उद्घाटन हुआ करता है। यह उस समय की बात है जब मैंने दोनों नावों को एक जगह पाया वह स्थान था तिलवारा घाट जबलपुर। जहाँ एक ओर नदी पार करने वाले नाव का सहारा ले रहे थे वहीं हम सभी मुनिराज गुरूवर की साक्षात् चरण छाँव में थे तभी आचार्य भगवन् से कहा - आचार्य श्री आज आधुनिकीकरण, खतरा बन गया है। कम्प्यूटर, टी.वी. आदि आधुनिक यंत्रों, वस्तुओं के माध्यम से बीमारियाँ फैल रहीं हैं। यह सब सुनकर दूर दृष्टि रखने वाले आचार्य गुरूदेव ने कहा - "आज नहीं तो कल इस विलासता का दुष्परिणाम भोगना ही पड़ेगा, क्योंकि किये हुये कर्म का फल तो मिलता ही है, इसे भूलना नहीं चाहिए।" आचार्य गुरूदेव आधुनिकता की दौड़ में दौड़ने वाले प्राणियों को हमेशा आगाह करते रहते हैं कि सात्विक जीवन जियो एवं सात्विक विचार रखो वरना भारतीय संस्कृति का लोप हो जावेगा फिर सुख और शांति भी लुप्त हो जावेगी।
  17. भारत के सभी दर्शन, धर्म जीने की कला सिखाते हैं लेकिन जैन दर्शन जीने के साथ-साथ मरने की कला भी सिखाता है, अब तुम्हारा मरण हो तो ऐसा हो कि पुनः मरण शेष न रह जावे| इसका नाम है। ‘समाधिमरण' इसको समझने के लिए महान् आत्माओं के जीवन की ओर दृष्टिपात करना चाहिए। सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में रत्नकरण्डक - श्रावकाचार की क्लास चल रही थी। उस वक्त आचार्य श्री जी ने बताया कि एक स्वस्थ व्यक्ति हमारे पास आये और बोले आचार्य श्री जी मुझे अभी सल्लेखना दे दो ताकि मैं अच्छे ढंग से उपवास करके शरीर छोड़ सकूँ वरना क्या पता बुढ़ापे में कोई रोग घेर गया तो क्या करेंगे। तो आचार्य श्री ने कहा - शरीर को ऐसा नहीं छोड़ा जाता। शरीर माध्यम है धर्म का, संयम पालने का जल्दी समाधि लेकर क्या करोगे - स्वर्ग जाओगे वहाँ असंयम के साथ रहना होगा, तो फिर असंयम का समर्थन हो जायेगा। इसलिए कुछ दिन संयम के साथ शरीर की देख रेख करो बाद में जब संयम पालने में बाधा पड़ने लगे तो शरीर को छोड़ा जाता है, समाधि ली जाती है। एकदम शरीर को नहीं छोड़ा जाता। शरीर को छोड़ना मात्र समाधि नहीं है बल्कि कषाय को छोड़ना ही सही समाधि मानी जाती है।
  18. यह बात उन दिनों की है जब उसका अमूल्य समय निकल गया था। वैसे अंग्रेजी में एक कहावत है "Time is money" समय ही पैसा है। समय बीतने पर ज्ञात होता है कि बीता समय कितना मूल्यवान था। एक सज्जन आचार्य महाराज के पास आये और हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में निवेदन करने लगे - मेरे हाथ की अंगुली अभी कुछ दिन पहले कट गयी थी - क्या मैं आहार दे सकता हूँ। आचार्य महाराज ने उसका मन्तव्य समझ लिया और कहा - क्या आपने पहले भी आहार दिये हैं। उन्होंने नीचे गर्दन झुकाते हुये कहा - नहीं। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि भैया जब तक हाथ, पैर, शरीर ठीक है, तब तक कुछ सत्कार्य कर लो वरना बाद में पछतावा ही हाथ लगेगा। जीवन का खेत एकदम खुला पड़ा है रखवाला कोई नहीं, विषय-कषाय रूपी चिड़ियों ने बहुत कुछ चुग लिया है, चेत सको तो अभी भी चेत जाओ जिससे जो शेष बचा है उसे सुरक्षित बचाया जा सके।
  19. सर्दी का समय था एक दिन प्रातःकाल आचार्य श्री के पास कुछ महाराज लोग बैठे हुए थे, ठण्डी हवा चल रही थी और सभी को ठण्ड लग रही थी, शरीर से कँपकँपी उठ रही थी। आचार्य श्री से कहा देखो आचार्य श्री जी शरीर से कांटे उठ रहे हैं। आचार्य श्री ने कहा - "हाँ, शरीर से काँटे ही उठते हैं फूल नहीं।" शरीर दुख का घर है। इसके स्वभाव को जानो और वैराग्य भाव जाग्रत करो। शरीर को नहीं बल्कि शरीर के स्वभाव को जानने से वैराग्य भाव उत्पन्न होता है।
  20. उस स्थान की यह बात है जो स्थान संगमरमर के पत्थरों को अपनी गोद में लिए हुये हैं और धुआँधार जलप्रपात के नाम से प्रसिद्ध है। जिसे लोग भेड़ाघाट के नाम से जानते हैं। वहीं एक स्थान है जिसे स्वर्गद्वार के नाम से जानते हैं। उस स्थान पर जाते हुए रास्ते में हम कुछ महाराज भटक गये और ऊपर पहाड़ पर पहुँच गये, वहाँ से नीचे देखा तो सही रास्ते से आचार्य महाराज और अन्य महाराज जी भी जा रहे थे तो मैंने कहा - हे गुरूवर! हम लोग भटक गये हैं आपके पास आने का रास्ता बतलाइये तो आचार्य महाराज ने हँसकर कहा - 'अरे अभी एक बार ऊपर चले जाओ (स्वर्ग) से लौटकर आओ फिर रास्ता (मोक्ष का) मिल जावेगा। अभी सीधा मोक्ष नहीं प्राप्त किया जा सकता।
  21. विश्वास, लगनशीलता, धैर्य, साहस और दृढ़ता अपने आप में महत्वपूर्ण गुण हैं। इन गुणों को अपनाने वाला कभी भी अपने कार्य में असफल नहीं होता। आत्मविश्वास एवं दृढ़ता एक ऐसा रसायन है, जो निराशावादी मानव के अंदर आशा का सूर्य उगा देता है। अब हम इस संस्मरण के माध्यम से समझें कि दृढ़ता से काम लेने वाले क्या से क्या बन जाते हैं। यह बात उन दिनों की है जब ब्र0 विद्याधर जी ने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में केशलोंच किया। उस समय वे खटाखट केशलोंच करते जा रहे हैं। प्रत्येक बार बाल खींचते समय खून निकल रहा है। उस दृश्य को देखकर कई लोग आश्चर्य में पड़ गये। वहीं पर उपस्थित क्षु.आदिसागर जी ने देखा तब वह आचार्य ज्ञान सागर जी के पास पहुँचे। उनसे निवेदन किया कि महाराज ब्र. जी को खून निकल रहा है। ऐसा सुनकर आ. ज्ञानसागर जी महाराज ने कहा कि चुप रहो। तब क्षु.जी शान्त हो गये, कुछ बोले नहीं। फिर भी क्षु. जी ने ब्र. जी से कहा कि क्यों कैंची मँगवायें, तब ब्र. विद्याधर जी ने कहा 'ऊँ हूँ' ऊंगलियों की चमड़ी उखड़ गयी थी। फिर भी वे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे, यही उनकी दृढ़ता का द्योतक है। यही दृढ़ता ब्र. विद्याधर को आचार्य विद्यासागर बना गयी। मोक्ष मार्ग में दृढ़ता ही महत्वपूर्ण है। दृढ़ता के अभाव में मोक्षमार्ग पर चलना असंभव है। इससे सिद्ध होता है कि - आत्मविश्वास वाला ही आत्मकल्याण कर सकता है। यह संस्मरण आचार्य श्री जी ने मूलाचार गाथा क्र. 99 की वाचना के समय बताया। उन्होंने कहा कि इस प्रकार की दृढ़ता क्षपक को अपनी समाधि के समय रखनी चाहिए।
  22. जहाँ कलकल बहती रेवा नदी के तट पर एक ओर पक्षियों का मधुर कलरव सुनाई देता है, वहीं दूसरी और सूर्य का आगमन भक्तों के मन में प्रभु के प्रति आस्था को मजबूत करता है। बहता हुआ निर्मल जल भक्त के हृदय को निर्मल बनाने का संकेत देता है। वहाँ पर नदी के तट पर सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर है। इसी सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर में आचार्य श्री के सान्निध्य में समयसार की कक्षा चल रही थी तभी एक प्रसंगवश आचार्य श्री जी ने कहा - जगत्काय स्वभावौ वा संवेग वैराग्यार्थं (संवेग और वैराग्य के लिए जगत् और शरीर के स्वभाव का विचार करना चाहिए) यह एक ही सूत्र काफी है और यही कापी है। यह कापी कभी गीली नहीं होती है। तब एक महाराज जी ने कहा कि इसको रखने के लिए बस्ता की एवं फोटो कापी की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रसंग के समय वहाँ एक पंडित जी भी उपस्थित थे, उन्होंने कहा इतने बड़े संघ के दर्शन मिलना बड़े ही सौभाग्य की बात है, पुण्य की बात है, इसमें आचार्य श्री तो ओरीजनल हैं एवं सभी महाराज फोटोकापी हैं। तब आचार्य श्री जी की अन्तर्दृष्टि कह उठी - अन्तर का भेद नहीं - पं. जी ध्यान रखना ये सभी ओरिजनल कापी हैं। डुप्लीकेट नहीं समझना। एकदम असली कापी हैं। हमारे आचार्य महाराज इतने महान् होकर भी अपने शिष्यों को अपने समान समझते हैं। यही तो उनकी अन्तरदृष्टि का जीता जागता उदाहरण है। (नेमावर)
  23. अपने लक्ष्य तक पहुँचना आस्थावान व्यक्ति का कर्तव्य हुआ करता है। साधन साध्य तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध होता है। रास्ता, रास्ता है मंजिल, मंजिल है। जिसे मंजिल पर विश्वास है लेकिन रास्ते पर नहीं उसके लिए मंजिल पाना मात्र एक स्वप्न के अलावा और कुछ नहीं रह जाता। रास्ते पर विश्वास किये बिना मंजिल की कल्पना करना आकाश के फूल की तरह है। जिन्होंने मंजिल के साथ-साथ रास्ते पर भी विश्वास किया है एवं उस रास्ते के अनुसार चले हैं उनके माध्यम से हमें बोध लेना अनिवार्य है। बात बचपन की है जब आचार्य श्री गृहस्थ जीवन में थे उनके पिता मल्लप्पा जी मंदिर निर्माण हेतु सागौन की लकड़ी लाये थे उनके साथ एक दो चंदन की लकड़ियाँ भी लाये थे जो अन्य लकड़ियों की अपेक्षा मोटी थीं। उसी समय आचार्य शांतिसागर जी की समाधि हुई थी तो आचार्य श्री (बालक विद्याधर) ने उस चंदन की लकड़ी को उनकी समाधि में लगा दी थीं। यह गुरु के प्रति भक्ति समर्पण की भावना उनके जीवन में बचपन से ही थी। (समर्पण भक्ति का मापदंड हुआ करता है)। (गुरूदेव का यह संस्मरण मुझे पू. मुनि श्री चंद्रसागर जी महाराज ने सुनाया था।)
  24. अहिंसा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/parmarth-deshna/ahinsa/
×
×
  • Create New...