भारत के सभी दर्शन, धर्म जीने की कला सिखाते हैं लेकिन जैन दर्शन जीने के साथ-साथ मरने की कला भी सिखाता है, अब तुम्हारा मरण हो तो ऐसा हो कि पुनः मरण शेष न रह जावे| इसका नाम है। ‘समाधिमरण' इसको समझने के लिए महान् आत्माओं के जीवन की ओर दृष्टिपात करना चाहिए।
सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में रत्नकरण्डक - श्रावकाचार की क्लास चल रही थी। उस वक्त आचार्य श्री जी ने बताया कि एक स्वस्थ व्यक्ति हमारे पास आये और बोले आचार्य श्री जी मुझे अभी सल्लेखना दे दो ताकि मैं अच्छे ढंग से उपवास करके शरीर छोड़ सकूँ वरना क्या पता बुढ़ापे में कोई रोग घेर गया तो क्या करेंगे। तो आचार्य श्री ने कहा - शरीर को ऐसा नहीं छोड़ा जाता। शरीर माध्यम है धर्म का, संयम पालने का जल्दी समाधि लेकर क्या करोगे - स्वर्ग जाओगे वहाँ असंयम के साथ रहना होगा, तो फिर असंयम का समर्थन हो जायेगा। इसलिए कुछ दिन संयम के साथ शरीर की देख रेख करो बाद में जब संयम पालने में बाधा पड़ने लगे तो शरीर को छोड़ा जाता है, समाधि ली जाती है। एकदम शरीर को नहीं छोड़ा जाता। शरीर को छोड़ना मात्र समाधि नहीं है बल्कि कषाय को छोड़ना ही सही समाधि मानी जाती है।